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MP के सरकारी स्कूल हैं बदहाल ! 10 साल में खर्च हुए 2 लाख करोड़ पर कम हो गए 39 लाख छात्र

सर्व शिक्षा अभियान के तहत स्कूल चले हम अभियान करीब-करीब पूरे देश में चलाया जा रहा है. मध्यप्रदेश में तो तमाम सरकारी स्कूलों में जून महीने में प्रवेश उत्सव भी मनाया गया. मकसद सिर्फ ये कि बच्चे स्कूल में आएं और अपना बेहतर भविष्य बना सके. मगर कागजों और सरकारी दावों से इतर देखें तो जमीनी हकीकत कुछ और ही है. खासकर मध्यप्रदेश में आलम ये है कि बच्चे कह रहे हैं- स्कूल तो आ जाएंगे पर बैठेंगे कहां?

MP के सरकारी स्कूल हैं बदहाल ! 10 साल में खर्च हुए 2 लाख करोड़ पर कम हो गए 39 लाख छात्र

Madhya Pradesh Education: सर्व शिक्षा अभियान के तहत 'स्कूल चलें हम' अभियान करीब-करीब पूरे देश में चलाया जा रहा है. मध्यप्रदेश में तो तमाम सरकारी स्कूलों (Government Schools of Madhya Pradesh) में बीते जून महीने में ही प्रवेश उत्सव भी मनाया गया. मकसद सिर्फ ये कि बच्चे स्कूल में आएं और अपना बेहतर भविष्य बना सकें. मगर कागजों और सरकारी दावों से इतर देखें तो जमीनी हकीकत कुछ और ही है. खासकर मध्यप्रदेश में आलम ये है कि बच्चे कह रहे हैं- स्कूल तो आ जाएंगे पर बैठेंगे कहां? स्कूल आ भी गए तो इसकी क्या गारंटी है कि उसकी इमारत हमारे लिए सुरक्षित है? सवाल और भी हैं. मसलन- हमें पढ़ाएगा कौन? सरकारी हाई सेकेंडरी स्कूलों के लैबोरेट्री में हमें सिखाएगा कौन? एक ही कमरे में 5 अलग-अलग ब्लैक बोर्ड हों तो हम पढ़ेंगे कैसे? 

दरअसल हम ये बातें यूं ही नहीं कह रहे हैं बल्कि प्रदेश में सरकारी स्कूलों की हालत ही ऐसी है. गजब तो ये है कि सरकार के पास हालात में सुधार के लिए पर्याप्त पैसे भी हैं और वो उसे जारी भी करती है लेकिन फिर भी हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं...साफ जाहिर है कहीं न कहीं प्रशासनिक लापरवाही का खामियाजा हमारे प्रदेश का भविष्य झेल रहा है. आगे बढ़ने से पहले कुछ तथ्यों पर गौर कर लेते हैं. 

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NDTV ने जमीनी हकीकत जानने के लिए प्रदेश के कई हिस्सों में जाकर स्कूलों की हालत का जायजा लिया. शुक्रवार को जबलपुर के सरकारी मिडिल स्कूल तमरहाई में छत का छज्जा टूटकर लटक गया, लंच का वक्त था बच्चे बाहर थे, इसलिये हादसा टल गया लेकिन इससे हमें पिछले साल दिसंबर में हुए हादसे की याद आ गई. दरअसल पिछले साल दिसंबर में भोपाल में शाहजहांनाबाद के सरकारी स्कूल की छत का प्लास्टर उखड़कर गिरा था. जिसमें 2 बच्चे और एक टीचर घायल हो गईं थी. बहरहाल जब हम राजधानी भोपाल के रोशनपुरा में मौजूद सरकारी स्कूल पहुंचे तो वहां की हालत बेहद खराब मिली. यहां पहली से पांचवी तक एक ही कमरे में 5 अलग-अलग ब्लैक बोर्ड हैं और तो और मिड-डे मील की रसोई भी यहीं लगती है. ये हालत तब है जबकि ये स्कूल शिक्षा मंत्रालय की इमारत से महज 3 किलोमीटर दूर ही मौजूद है. 

दरक रही हैं दीवारें, सांप का भी है डर

हमारी टीम भोपाल से करीब 200 किलोमीटर दूर आगर मालवा जिले के झोटा गांव पहुंची तो वहां के माध्यमिक शाला भवन की हालत बेहद खराब मिली. यहां शौचालय में ताला लगा है.पीने के पानी के लिए नल और ट्यूबवेल लगवाए तो गए हैं लेकिन पीने के लिए पानी नहीं हैं. यहां 75 बच्चों को 2 शिक्षक पढ़ाते हैं .. NDTV के पहुंचने पर एक ही शिक्षक ज्योति सोनी एक क्लास से दूसरी क्लास  में दौड़ लगाती हुई मिली. उनका कहना है कि वे लोग अपने स्तर ही हालात को संभालते हैं. हम विभाग के खिलाफ कुछ नहीं बोल सकते. यहां स्कूल की इमारत की दीवारें दरक रहीं हैं. जमीन भी धंस रही है. बच्चों का कहना है कि यहां सांप, चूहे और बिच्छू का डर हमेशा बना रहता है. बच्चों से बात की पता चला कि उनसे सपने बड़े-बड़े हैं लेकिन सुविधाएं नहीं है. स्कूल में खेलने का सामान तो हैं लेकिन वो भी पेटियों में बंद है. 

आगर-मालवा के स्कूल का हाल. एक ही कमरे में कई अलग-अलग क्लास के छात्र एक साथ बैठे हैं

आगर-मालवा के स्कूल का हाल. एक ही कमरे में कई अलग-अलग क्लास के छात्र एक साथ बैठे हैं


आगर-मालवा के ही लाल ग्राम के प्राथमिक विद्यालय में ममता कारपेंटर पहली से पांचवीं तक के बच्चों को एक ही कमरे में पढ़ाती हैं. पांच अलग-अलग क्लास के 80 बच्चों को एक साथ पढ़ाने का 'जादू' शायद ममता मैडम से सीखा जा सकता है. इसी के बगल में मिडिल स्कूल है. यहां छठी के लिए तो एक कमरा है लेकिन सातवीं और आठवीं की पढ़ाई एक ही कमरे में होती है. इस जिला मुख्यालय पर स्थित छात्राओं के लिए एकमात्र हायर सेकंडरी स्कूल की हालत भी खस्ताहाल है. यहां एक हजार छात्रों के लिए महज 4 कमरे हैं. लिहाजा यहां दो अलग-अलग पालियों में स्कूल संचालित होता है. बिल्डिंग जर्जर है. पूछने पर पता चला कि लैब देखे बिना ही बच्चे प्रैक्टिकल एग्जाम में पास हो गए और अगली क्लास में दाखिला मिल गया. 

20 साल से छप्पर में चल रहा स्कूल

कुछ ऐसा ही हाल हमें प्रदेश के दूसरे इलाकों में भी मिला. कुपोषण के मामले में देश का इथियोपिया कहे जाने वाले श्योपुर में भी स्कूलों की हालत बेहद चिंतनीय है. गुना जिले में काली भोंट का प्राइमरी स्कूल 20 साल से‎ छप्पर के नीचे चल रहा है.यहां ना टेबल-कुर्सियां हैं और ना ही पीने का पानी. जब बारिश होती है तो स्कूल को बंद करना पड़ता है. हद ये है कि स्कूल की बिल्डिंग बनाने को लिए दो बार राशि आई भी लेकिन वो भी लैप्स हो गई. राज्य में सरकारी स्कूल बदहाल क्यों है इसका पता कांग्रेस नेता जीतू पटवारी के दावों से भी चलता है. उनका दावा है कि ये जानकारी उन्हें विधानसभा में एक सवाल के जवाब में सरकार की ओर से ही मिला है.  

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हालात में जल्द ही सुधार होगा: मंत्री

अब जब हमने इस मसले पर राज्य सरकार में जिम्मेदार मंत्री उदय प्रताप सिंह से बात की तो उनका जवाब क्या है ये भी जान लीजिए. उन्होंने कहा- कई बार योजना के लिए जारी कुछ राशि लैप्स हो जाती है. वैसे हमारी प्राथमिकता होती है कि निर्धारित समय में ही फंड का सौ फीसदी इस्तेमाल हो जाए. कई बार अनपेक्षित परिस्थितियों के कारण थोड़ा बहुत बजट लैप्स होता है तो हम अगले साल इसके इस्तेमाल की कोशिश करते हैं. हम स्कूलों की हालत सुधारने की लगातार कोशिश कर रहे हैं. जाहिर है पूरी स्थिति तो यही बताती है कि सरकार के पास पैसे हैं, योजना है और प्रावधान भी हैं. ऐसे में प्रशासनिक लापरवाही को दूर करने के साथ-साथ संवेदनशील भी होने की जरूरत है.  

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