विज्ञापन
Story ProgressBack
This Article is From Dec 24, 2023

बनारसी गालियों में है भारत का असली लोकतंत्र

keur pathak
  • विचार,
  • Updated:
    December 24, 2023 19:40 IST
    • Published On December 24, 2023 19:40 IST
    • Last Updated On December 24, 2023 19:40 IST

हिंसा के मूल में स्वामित्व का भाव है मालिक होने का भाव है. हिंसा करनेवाला अधिकार चाहता है- वह आधिपत्य चाहता है. हिंसा के कम से कम दो तरीके तो हैं ही- देह पर हमला, या फिर मन पर चोट. मन पर हमला अधिक खतरनाक है. यह मनुष्य के भीतर हिमालयी हलचल पैदा कर सकता है. यह आदमी को प्रतिहिंसा में झोंक सकता है- उसमें आमूल-चूल बदलाव ला सकता है. गालियाँ- मन पर हिंसा करने का ब्रम्हास्त्र है. गालियाँ- यानि शब्दों का वह संसार जो प्रचलित सामाजिक मूल्यों और नैतिकताओं से बाहर है. गालियों की समाज के भीतर अपनी अलग नैतिकता है. यह नैतिकता समाज की अस्वीकृत नैतिकता है. गालियाँ इन अस्वीकृत नैतिकता की बौछाड़ है. भारतीय राजनीति में ऐसी अस्वीकृत नैतिकता के प्रयोग का आरोप पक्ष विपक्ष एक दूसरे पर लगाते ही रहते हैं. और इन आरोपों की भयंकर भरमार है. मन अब ऐसी अस्वीकृत नैतिकता के प्रति सादर भाव भी रखने लगा है.   
 

नारीवादियों की शिकायत है कि गालियाँ केवल स्त्री केन्द्रित ही क्यों है? सभी गालियों से स्त्री के मान-स्वाभिमान को ही क्यों ताड-ताड़ किया जाता है? सो वे गालियों को “सभ्य समाज” के विरुद्ध मानती है- और इसलिए हम अपने बच्चों को पहला पाठ गालियों को न बोलना ही सिखाते हैं.

नारीवादियों का यह भी कहना है कि इन गालियों में स्त्री की यौनिकता को ‘पैसिव' या कमतर क्यों आँका जाता है! उन्हें समझना चाहिए कि यह पूरा सच नहीं है. गालियां पुरुषों के अस्तित्व से भी जुडी है. यह उनकी यौनिकता पर भी चोट है. हमने पुरुषों को दी जानेवाली गालियों की एक लिस्ट बनाई. इसमें अनगिनत गालियाँ पुरुषों के सम्पूर्ण अस्तित्व को झकझोर देनेवाली थी- जैसे ‘नामर्द', ‘नपुंसक' आदि. उन सभी गालियों को यहाँ लिखा नहीं जा सकता, क्योंकि गालियों के बारे में हम बड़े दोहरे चरित्र वाले हैं. हर दिन बोलते हैं, हर दिन सुनते हैं, लेकिन इसे लिखने से निषेध करते हैं. जिसने लिखा वे बागी लेखकों में या फिर लीक से हटकर लिखने वाले हो गए. जबकि इसमें लीक से हटकर लिखने वाली कोई बात नहीं. वो लिखा जाता जो अप्रचलित है, वो लिखा जाता जिसके हम अभ्यस्त नहीं तो उन लेखकों को लीक से हटकर लिखने वाला मानते. हमारा साहित्य गालियों के अभ्यस्त समाज के बीच पनपता है, लेकिन दुर्भाग्य से इसका सबसे अधिक निषेध भी करता है. यह भयानक रूप से विरोधाभाषी दुनिया है!  
लेकिन, राजनीति और साहित्य से इतर भारत की संस्कृति में गालियों का अपना अलग समाजशास्त्र है. यह केवल अस्वीकृत नैतिकता ही नहीं है. यह स्वीकृत भी है. ऐसा भाव शायद दुनिया के अन्य देशों में न होगा. अन्य देशों में गालियाँ आमतौर पर केवल गालियाँ ही होंगी. ये दी जाती है संबंधों के बिगड़ने पर, या फिर इन्हें बिगाड़ देने के लिए. उनका कोई सामाजिक या सांस्कृतिक सरोकार नहीं. जबकि भारत में गालियाँ प्रेम है, हास्य है, क्रोध है, घृणा, स्वागत है. यह संबंधों को बनाने के लिए भी है. और यह संबंधों को तार-तार करने के भी काम आता है. यहाँ गालियों का विविध रूप है. और इन सब रूपों की अलग-अलग जिम्मेवारियां भी है. गालियाँ इन जिम्मेवारियों को बखूबी निभाती है. बिना गालियों के भारत की कल्पना कुछ अधपकी सी होगी. ऐसे, जैसे भारत में अंग्रेजीदां लोग- जिनके पास कुछ विशेष शब्दों से आगे कुछ भी नहीं- उसके बाद सीधे हिंसा. उनके पास गालियों का कोई रचना-संसार नहीं.

हिंदी सिनेमा में देखे तो लगता है असली रचनाशीलता ‘गैंग्स ऑफ़ वासेपुर' से ही शुरू होती है. जिस भाषा में ठीक से गाली नहीं दी जा सकती, वह हमारी भाषा नहीं हो सकती. और इस तरह कह सकते हैं कि भाषाई विमर्श में गालियों को अंतिम पैमाना माना जाना चाहिए.    

     
बनारस में होली के समय कुछ काव्य सम्मलेन आयोजित किये जाते हैं. यह परम्परा दशकों से चली आ रही है. यह शुद्ध और एकदम खांटी बनारसी गालियों का काव्य सम्मलेन है. इसमें हास्य का “सभ्य” रूप नहीं, बल्कि इसका “ब्रह्म” रूप गालियों के रूप में प्रस्तुत किया जाता है. एक-दो बार BHU में रहते हुए मैंने भी इस सम्मलेन में भाग लिया. बनारस और इसके आसपास के बड़े साहित्यकार, राजनेता, लेखक, कवि, अधिकारी तमाम लोग आये थे. और कार्यक्रम शुरू से लेकर अंत तक गालियों से ही सज्जित रहा. ऐसी-ऐसी गालियाँ कि सुननेवाला सनसना जाए. गालियों के ऐसे सम्मलेन का औचित्य क्या है! इसका औचित्य बेहद गंभीर है. यह बनारस के फक्कडपन की संस्कृति का प्रतीक है. यह संस्कृति जीवन को आनंद मानकर जीने का दर्शन है. फक्कड़पन तभी आ सकता है जब आप बेपरवाह हो जाए. बेपरवाही के लिए जरुरी है जीवन में शाब्दिक हिंसा को हास्य बना कर स्वीकार किया जाए. बनारस के ऐसे गाली काव्य सम्मलेन सबसे आपत्तिजनक चीजों का उत्सव मना देते हैं. वह सबसे आपत्तिजनक चीजों को मजाक बनाकर जीते हैं. यह शब्द के अस्तित्व को नकार देने का सबसे सर्वोच्च रूप है. शब्द की अस्वीकार्यता इससे बेहतर तरीके से नहीं की जा सकती. बनारस की मिटती हुई यह परम्परा एक बेमिशाल परम्परा है. इसे संजोये जाने की जरुरत है, ये समाज की लोकतांत्रिक धारा की तरंगे हैं. और मैं तो यहाँ तक कहना चाहूँगा कि ऐसे सम्मलेन तो अन्य जगहों पर भी आयोजित किये जाने चाहिए. ऐसी विविध परम्पराओं के कारण ही बनारस अपनी परम्परा और आधुनिकता को एक साथ जी पाता है. संसद के लिए बनारस की यह परम्परा एक प्रेरणा के रूप में देखी जा सकती है.   

दुनिया अब ‘ग्लोबल' हो गई है. ग्लोबल होने की जिद में आदमी अपनी ‘लोकेलिटी' से संघर्ष कर रहा है. वह जीने के ‘लोकल' तरीके से दूर हो रहा, और ‘ग्लोबल' तरीके को जीना लगातार कठिन होता जा रहा. इस कशमकश में आदमी विवाह के अहम् रिवाजो को भी भूल चुका है.

विवाह में गालियों की परम्परा अब इस ग्लोबल दौर में थोड़ी बिखरती दिख रही. गालियाँ अब “सभ्य” शहरी मन के समझ से बाहर है. खैर! गाँवों में अब भी गालियाँ जीवित है. बिना गालियों के विवाह संभव नहीं. जैसे, ऐसे अवसरों पर मिथिला में स्त्रियाँ जब गालियाँ शुरू करती है तो ‘भगवान्' तक को नहीं छोडती. स्वागत बिना गालियों के अधुरा है- “स्वागत में गाली सुनाओ मेरी सखियों- स्वागत में गाली सुनाओ समधी को”, और “बोलो-बोलो हो दूल्हा गुलाबी बोली- तोहर मम्मी हमर पापा के लागल जोड़ी” जैसे गीत गाली से ही तो गुंथे हैं. इन गालियों से संबंधों की उपस्थिति का बोध होता है. संबंधों में ऊष्मा का संचार होता है.  गालियों की ऐसी ही परम्परा भारतीय समाज में भीतर पैठे सामुदायिकता और लोकतंत्र का सूचक है. जिन समाजों से गालियाँ गायब होंगी वहां लोकतान्त्रिक परम्पराएँ भी कमजोर होंगी. भारत अपने उत्पत्ति काल से ही लोकतान्त्रिक है, क्योंकि इसके पास गालियों की समृद्ध विरासत है.

लेखक सीएसडी हैदराबाद से पोस्ट-डॉक्टरेट करने के बाद वर्तमान में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.

MPCG.NDTV.in पर मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ की ताज़ातरीन ख़बरों को ट्रैक करें. देश और दुनियाभर से न्यूज़ अपडेट पाएं. इसके अलावा, मनोरंजन की दुनिया हो, या क्रिकेट का खुमार,लाइफ़स्टाइल टिप्स हों,या अनोखी-अनूठी ऑफ़बीट ख़बरें,सब मिलेगा यहां-ढेरों फोटो स्टोरी और वीडियो के साथ.

फॉलो करे:
NDTV Madhya Pradesh Chhattisgarh
डार्क मोड/लाइट मोड पर जाएं
Our Offerings: NDTV
  • मध्य प्रदेश
  • राजस्थान
  • इंडिया
  • मराठी
  • 24X7
Choose Your Destination
Previous Article
कांग्रेस के ‘एसेट’ नहीं रहे कमलनाथ
बनारसी गालियों में है भारत का असली लोकतंत्र
Despite defeat in assembly elections, Congress has another chance to do something good in Chhattisgarh.
Next Article
कुछ अच्छा करने का कांग्रेस के पास एक और मौका
Close
;