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MP में न्याय के लिए भटक रहे हैं समाज के कमजोर वर्ग; नेता प्रतिपक्ष ने कहा- मध्य प्रदेश के सभी आयोग निष्क्रिय

MP Politics: नेता प्रतिपक्ष ने कहा कि "डिजिटल भाजपा सरकार में इन आयोगों की वेबसाइटें तक बंद कर रखी हैं. इन आयोगों की लगभग 2 लाख से ज़्यादा शिकायतें लंबित पड़ी और लोगों का विश्वास इन संस्थानों में कम हो रहा है. इन आयोगों की निष्क्रियता के बावजूद, वित्त वर्ष 2017 से 2024 तक इनके संचालन पर जनता के कर से करोड़ों रुपये खर्च किए गए."

MP में न्याय के लिए भटक रहे हैं समाज के कमजोर वर्ग; नेता प्रतिपक्ष ने कहा- मध्य प्रदेश के सभी आयोग निष्क्रिय
MP Politics: उमंग सिंघार का बड़ा बयान- मध्य प्रदेश में सभी आयोग निष्क्रिय

Madhya Pradesh: मध्य प्रदेश विधानसभा के नेता प्रतिपक्ष उमंग सिंघार ने विभिन्न आयोगों की निष्क्रियता पर सवाल उठाते हुए कहा है कि आयोगों की निष्क्रियता सामाजिक न्याय पर गहरा प्रहार है. राज्य के नेता प्रतिपक्ष उमंग सिंघार ने एक बयान जारी कर राज्य सरकार पर आरोप लगाते हुए कहा कि समाज के कमजोर वर्गों के अधिकारों की रक्षा और उनके उत्पीड़न को रोकने के लिए प्रदेश में कई आयोग बनाए गए जो भाजपा के कार्यकाल में 2016-17 से निष्क्रिय हो चुके हैं.

सामाजिक न्याय पर एक गहरा प्रहार : उमंग सिंघार

उमंग सिंघार ने कहा कि समाज के कमजोर वर्गों के अधिकारों की रक्षा और उनके उत्पीड़न को रोकने के लिए प्रदेश में कई आयोग बनाए गए जो 2016-17 से  भाजपा के कार्यकाल में  निष्क्रिय हो चुके हैं. यह आयोग एक कोर्ट की तरह काम करते हैं जिनके पास सिविल कोर्ट की शक्तियां होती हैं. यह शिकायतों को सुनते हैं और बिना खर्च  एवं  बिना किसी कोर्ट, पुलिस को शामिल किए उसका निपटारा करते हैं. इस आयोग में एक अध्यक्ष होता और उसके पांच सदस्य और लगभग दर्जनभर स्टाफ किसी भी शिकायत की जांच करना, शिकायतकर्ता को संबल देना और उस के निष्पादन के लिए सरकार को आदेशित  करता हैं. पर भाजपा सरकार ने इन आयोगों का भट्टा बैठा दिया है. जो सामाजिक न्याय पर एक गहरा प्रहार है.

उन्होंने अपने बयान में कहा है कि राज्य अनुसूचित जनजाति आयोग, राज्य अनुसूचित जाति आयोग, राज्य महिला आयोग, राज्य अल्पसंख्यक आयोग, बाल अधिकार संरक्षण आयोग, मानव अधिकार आयोग, सूचना आयोग आदि ऐसे आयोग हैं जो निष्क्रिय हैं. इन आयोगों में नियुक्तियां ही नहीं हो रही हैं.

नेता प्रतिपक्ष सिंघार ने कहा कि इन आयोगों की स्थिति इतनी दयनीय है कि ये न तो पीड़ितों की आवाज सुन पा रहे हैं और न ही उनके लिए कोई ठोस कार्रवाई कर पा रहे हैं. यहां तक कि राज्य के कुल आठ प्रमुख आयोगों में से केवल पिछड़ा वर्ग आयोग, सूचना आयोग और मानवाधिकार आयोग में ही अध्यक्ष नियुक्त हैं, लेकिन इनमें भी सदस्यों की भारी कमी है. शेष पांच आयोग वर्षों से बिना अध्यक्ष और सदस्यों के एवं बिना कर्मचारियों के संचालित हो रहे हैं. यह स्थिति ऐसी है जैसे बिना न्यायाधीश का न्यायालय.

न अध्यक्ष हैं न ही सदस्य

उमंग सिंघार ने कहा कि उदाहरण के लिए, राज्य महिला आयोग में पिछले पांच वर्षों से न तो अध्यक्ष नियुक्त किया गया है और न ही सदस्यों की नियुक्तियां हुई हैं, जिसके चलते लगभग 24,000 महिला उत्पीड़न से संबंधित मामले लंबित पड़े हैं. 

इसी तरह, पिछड़ा वर्ग आयोग में भले ही अध्यक्ष मौजूद हैं, लेकिन सदस्यों और कर्मचारियों के अभाव में यह पंगु हो गए हैं. हाल ही में पिछड़ा वर्ग आयोग के अध्यक्ष, जो स्वयं भाजपा के पूर्व सांसद हैं, ने मुख्यमंत्री को पत्र लिखकर खाली पदों को भरने, आयोग के लिए पृथक भवन जैसी कई मांगे की, जो सरकार की उदासीनता को स्पष्ट दर्शाता है.

उमंग सिंघार ने आगे कहा कि डिजिटल भाजपा सरकार में इन आयोगों की वेबसाइटें तक बंद कर रखी हैं. इन आयोगों की लगभग 2 लाख से ज़्यादा शिकायतें लंबित पड़ी और लोगों का विश्वास इन संस्थानों में कम हो रहा है. इन आयोगों की निष्क्रियता के बावजूद, वित्त वर्ष 2017 से 2024 तक इनके संचालन पर जनता के कर से करोड़ों रुपये खर्च किए गए. यह एक विडंबना है कि आज समाज के कमजोर वर्ग—आदिवासी, दलित, अल्पसंख्यक, पिछड़ा वर्ग और महिलाएं न्याय और संरक्षण के लिए दर-दर भटक रहे हैं.

मध्यप्रदेश के लगभग 22% आदिवासी, 17% दलित, 7% अल्पसंख्यक, 50% पिछड़ा वर्ग और महिलाओं के खिलाफ उत्पीड़न की घटनाएं लगातार सामने आ रही हैं. यही वजह है कि प्रदेश महिला अपराध, शिशु अपराध, SC/ ST और अल्पसंख्यकों पर अत्याचार, जातिगत भेदभाव, और सामाजिक हिंसा की घटनाओं में वृद्धि हुई है और उनकी शिकायतें ना पुलिस सुनती है, ना सरकार और कोर्ट जाने के पैसे नहीं होते.

मध्यप्रदेश के इन आयोगों की निष्क्रियता सामाजिक न्याय और समावेशी विकास के लिए गंभीर खतरा है. सरकार को तत्काल इन आयोगों में अध्यक्षों और सदस्यों की नियुक्ति करनी चाहिए, उनकी वेबसाइटों को शुरू करना चाहिए, और पारदर्शी व जवाबदेह कार्यप्रणाली सुनिश्चित करनी चाहिए.  साथ ही, इन आयोगों के बजट का उपयोग प्रभावी ढंग से पीड़ितों के कल्याण और उनके अधिकारों की रक्षा के लिए किया जाना चाहिए. यह स्थिति न केवल सावेधनिक मूल्यों के खिलाफ है, बल्कि सामाजिक न्याय और जनता के मोलिक अधिकारों का भी खुला उल्लंघन है.

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