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This Article is From Dec 25, 2023

ग्वालियर: 450 साल पुराने चर्च में बसी है ब्रिटिश सोल्जर्स की यादें, इंग्लैंड से आज भी आते हैं उनके वंशज

Christmas 2023: ग्वालियर के 450 साल पुराने क्राइस्ट चर्च में आज भी ब्रिटिश सैनिक की यादें बसी है. दरअसल, 1857 की क्रांति के दौरान मारे गए सैनिक का शव इसी जगह दफनाया गया था. बता दें कि आज भी इनके वंशज अपने पूर्वजों की यादें सहेजने के लिए इंग्लैंड से यहां आते हैं.

ग्वालियर: 450 साल पुराने चर्च में बसी है ब्रिटिश सोल्जर्स की यादें, इंग्लैंड से आज भी आते हैं उनके वंशज
ग्वालियर के 450 साल पुराने क्राइस्ट चर्च में बसी है ब्रिटिश सोल्जर्स की यादें

Christmas 2023: सोमवार, 25 दिसंबर को क्रिसमस है और पूरी दुनियां में स्थित चर्च सजे हुए हैं. इन चर्चों में खास प्रार्थनाएं आयोजित की जा रही है और लोग यहां प्रार्थना करने पहुंचे रहे हैं, लेकिन ग्वालियर में स्थित एक चर्च ऐसा भी जो सबसे खास है. साढ़े चार सौ वर्ष पुराने इस क्राइस्ट चर्च से आज भी ब्रिटिशर्स को बहुत लगाव है. इसमें उनके पूर्वजों की यादें जुड़ी हुई है. 1857 में हुए भारतीय स्वतंत्रता की पहली क्रांति जिसे रानी लक्ष्मीबाई के नेतृत्व में हुई थी उस युद्ध में जो अंग्रेज सैनिक मारे गए थे उनको यहीं दफनाया गया था और आज भी उनके वंशज अपने पूर्वजों की यादें ताजा करने के लिए ग्वालियर के इस चर्च में पहुंचते हैं.

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जानें इस चर्च का इतिहास

ये चर्च ग्वालियर के मुरार उप नगर में स्थित है जिसे अंग्रेजों ने अपनी छावनी बनाया था. इन्हीं अंग्रेज अफसरों  ने अपनी पूजा प्रार्थना के लिए एकदम ब्रिटिश वास्तु शैली में इसे बनवाया. इसकी केयर टेकर साक्षी मसीह बताती है कि उनका परिवार लंबे अरसे से पीढ़ी दर पीढ़ी इसकी देखरेख करता आ रहा है. वो वहां लगे शिलालेखों और मौजूद दस्तावेजों के आधार पर बतातीं है कि ग्वालियर के मुरार क्षेत्र में लगभग 450 वर्ष पूर्व ब्रिटिश आर्किटेक्चर में ये चर्च तैयार किया गया था जिसे पूरी दुनिया में क्राइस्ट चर्च (Christ Church) के नाम से जाना जाता है. 

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पहले चर्च ऑफ इंग्लैंड के पास था स्वामित्व 

मुरार अंग्रेजी आर्मी का कैंटोनमेंट एरिया था. भारत में अपने सत्ता विस्तार के लिए अंग्रजों ने देश भर में जगह जगह अपनी सैनिक छावनी बनाई थी, ताकि युद्ध और विद्रोह के तहत सेना का डिप्लॉयमेंट आसानी से किया जा सके. इसी योजना के तहत मुरार आर्मी का केंटोमेंट एरिया था. जिसमें रहने वाले अफसर इसी चर्च में प्रार्थना करने के लिए जाया करते थे.

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ये चर्च ब्रिटिश आर्किटेक्चर का बेहद नायाब नमूना है जो की बलुआ पत्थर से निर्मित किया गया था.

बताया जाता है कि इस चर्चा का स्वामित्व पहले चर्च ऑफ इंग्लैंड के हाथों में था, लेकिन बाद में चर्च एक्ट 1927 के तहत चर्च ऑफ इंडिया (सीआईपीबीसी) और इंडियन चर्च एक्ट के तहत डाइस ऑफ नागपुर को हस्तांतरित कर दिया गया.

अन्य चर्च से अलग है क्राइस्ट चर्च

सबसे खास बात ये है कि सिर्फ ये चर्च नहीं बल्कि विश्व में सभी क्राइस्ट चर्च एक जैसे ही होते हैं जिनकी लेफ्ट में डाइस और राइट में वेबटिज्म (बबिस्तां) करने का स्थान होता है और ये जमीन से सीधे बनाए जाते हैं. जिनमें कोई बालकनी नहीं होती है, लेकिन इसमें सब कुछ एकदम अलग है.

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चर्च को प्रॉपर्टी ऑफिसर साक्षी मसीह बताती हैं कि इस चर्च का नाम क्राइस्ट चर्च है. सीआईपीबीसी और ये चर्च 480 साल पुराना है. इसे सैनिक के लिए ब्रिटिश जमाने में बनाया गया था जो यहां वरशिप करते थे. हालांकि वॉर के दौरान सभी  सैनिक मारे गए. जिनमें से कुछ इसी में वारिद हैं और कुछ ग्रेवियाद में हैं और तभी से ये संस्था चलाई जा रही है. मुझसे पहले मेरे फादर विसभ एचएन मसीह ये जिम्मेदारी निभाते थे, लेकिन दो साल पहले उनका डेथ हो गया. उसके बाद मेरी मॉम जिम्मेदारी निभाई जो प्रॉपर्टी ऑफिसर थी. हालांकि मॉम की भी दो महीने पहले डेथ हो गई. अब उनकी जगह पर ये जिम्मेदारी मुझे दी गई है. 

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1857 की क्रांति का भी गवाह 

ये चर्च 1857 में पेशवा और फिर रानी झांसी लक्ष्मी बाई के नेतृत्व में हुई क्रांति का भी साक्षी है जिसे भारत की आजादी की लड़ाई की शुरुआत मानी जाती है. इस युद्ध में बलिदान के पहले रानी और उसकी सेना ने अंग्रेजी सेना के अनेक सैन्य अफसरों को मौत के घाट उतारा था जिनका उल्लेख यहां के शिलालेखों में आज भी अंकित है. 

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आज भी ब्रिटिशर्स अपने पूर्वजों को तलाशने यहां आते हैं

साक्षी बताती है कि कुछ ब्रिटिशर्स की यहां प्रार्थना करते समय ही अचानक शुरू हुए हमले में मौत हो गई थी. जिन्हें इसी जगह पर दफनाया गया था.  इससे थोड़ी ही दूर पर अंग्रेजों का एक कब्रिस्तान भी है, जहां युद्ध में मारे गए अंग्रेज सैनिक को दफनाए गए थे. उनकी कब्र आज भी शिलालेखों के साथ सुरक्षित है.

साक्षी आगे बताती है कि उन लोगों की पांचवी-छठवीं पीढ़ी के ग्रान्ड सन और ग्रांड डॉटर इंग्लैंड और अन्य यूरोपियन देशों से आते हैं. वो चर्च में आकर उनके अंकित नाम के साथ यादें संजोते हैं और फिर कब्रिस्तान जाकर उनकी कब्र पर कैंडल जलाकर उन्हें  याद करते हैं. यहां हर दिन प्रार्थना होती है, लेकिन क्रिसमस के दिन खास आयोजन किए जाते हैं, जिसमें बड़ी संख्या में जवान और रिटायर जवान पहुंचते हैं.

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