
मंच पर जब पहला दृश्य खुलता है ... अंधेरे में टिमटिमाती लौ, और उसके बीच एक काल्पनिक गांव. यह गांव मानो लोककथा से निकला प्रतीत होता है, परंतु इसकी हकीकत कहीं अधिक भयावह है. यानी यहां युद्ध थोप दिया गया है.
"ज़मीन लाल थी, आसमान काला..." यह उद्घोष नाटक की आत्मा है, जो युद्ध और आक्रमण की क्रूरता को उजागर करता है. आम नागरिकों की टूटी रोटियां, उजड़े घर, और नेताओं की साजिशें . नाटककार मोहन जोशी की लेखनी इन्हें इतने जीवंत रूप में प्रस्तुत करती है कि दर्शक अपने ही भीतर की बेचैनी से टकराने लगते हैं. यह नाटक याद दिलाता है कि युद्ध कभी सीमाओं तक सीमित नहीं रहता; उसकी सबसे गहरी चोट उन पर होती है, जो सबसे कमजोर हैं.

निर्देशक जॉय मैसनम ने इस प्रस्तुति को रंगमंच की एक महाकाव्यात्मक काया दी है. उनकी शैली में योग और मार्शल आर्ट का सम्मिश्रण अभिनय को देह, गति और स्पंदन में बदल देता है. कभी पूरा मंच एक जंग का मैदान बन जाता है, तो कभी सिर्फ एक टूटा हुआ चूल्हा जो पूरे युद्ध का प्रतीक हो उठता है.

कलाकारों की ऊर्जा अभिभूत करती है. पूरे सवा घंटे तक मंच पर कोई क्षण रिक्त नहीं होता. दीये से लेकर बारूद तक, हर प्रतीक अपनी पूरी शक्ति से बोलता है. कई दृश्य ऐसे हैं, जो दर्शकों को भीतर तक भेद देते हैं, चेहरे पर आंसू रोक पाना कठिन हो जाता है. यही इस प्रस्तुति की सबसे बड़ी सफलता है.

प्रकाश संयोजन में अनूप जोशी के प्रयोगों ने शीर्षक को जीवित कर दिया है. एक क्षण मंच पर धधकती आग का आभास होता है और अगले ही क्षण गहरा अंधकार, कहीं हम टॉर्च की रोशनी में खुद को टटोलते हैं. वहीं मणिमाला दास की सेट डिज़ाइन मंच को निरंतर रूपांतरित करती रहती है. कभी गांव, कभी कब्रिस्तान, कभी युद्धभूमि.

हां, एक बिंदु जो खलता है, वह है ध्वनि संयोजन. आगे बैठे दर्शक तो संवादों की तीव्रता महसूस करते हैं, परंतु पीछे बैठे श्रोताओं के लिए कई बार डायलॉग स्पष्ट सुनाई नहीं देते. यदि ध्वनि संयोजन को थोड़ा और परिष्कृत किया जाए, तो यह प्रस्तुति और भी सशक्त हो सकती है.

यह प्रस्तुति हमें याद दिलाती है कि युद्ध के विरोध में सबसे प्रखर स्वर भाषणों से नहीं, बल्कि टूटे हुए घरों और गूंगी चीखों से उठता है. इस प्रस्तुति में सबसे बड़ा योगदान वही है, जो किसी भी महान नाटक को अमर करता है. सामूहिक पीड़ा की सामूहिक स्मृति. यहां युद्ध का विरोध भाषणों से नहीं, बल्कि टूटे हुए घरों, गूंगी चीखों और मिट्टी में सने चेहरों से होता है.

और जब अंतिम दृश्य में मिट्टी से उठती कराह और सफेद बारूद के प्रतीक के साथ लाल साथ मंच अंधेरे में डूब जाता है, तो लगता है मानो पूरा सभागार मौन शोकसभा में बदल गया हो. दर्शक चुप हैं, पर भीतर बहुत कुछ टूट रहा है. यही तो रंगमंच की सबसे बड़ी विजय है कि वह हमें बाहर से नहीं, भीतर से बदलता है.

"ज़मीन लाल थी, आसमान काला..." केवल शीर्षक नहीं, बल्कि एक प्रश्न है, एक पुकार है, जो दर्शकों के साथ घर तक जाती है. शायद यही इस नाटक की नियति है मंच से उठकर हमारे जीवन का हिस्सा बन जाना.
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टैगोर राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, 2021 में स्थापित ये संस्थान आधुनिक नाट्य प्रयोगों को जोड़ते हुए रंगकर्म की एक नई परंपरा गढ़ रहा है. रंगश्री लिटिल बैले ट्रूप के ऑडिटोरियम में इस अद्भुत नाट्य प्रस्तुति को रविवार को भी शाम सात बजे देखा जा सकता है.
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