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This Article is From Feb 20, 2024

अब ऐसा न कहें कि गृहिणी कुछ नहीं करती!

Rakesh Kumar Malviya
  • विचार,
  • Updated:
    फ़रवरी 20, 2024 17:31 pm IST
    • Published On फ़रवरी 20, 2024 17:31 pm IST
    • Last Updated On फ़रवरी 20, 2024 17:31 pm IST

तो अब प्लीज ऐसा न कहें कि घरेलू महिला है, कुछ नहीं करती, बस घर संभालती है. इस बात पर अब सुप्रीम कोर्ट ने भी मुहर लगा दी है कि यदि एक हाउसवाइफ के काम की गणना की जाए तो उसका योगदान अनमोल है. इस बात को नारीवादी संगठन और जागरुक लोग लंबे समय से कहते रहे हैं, लेकिन समाज में घरेलू महिलाओं के काम का यह नैरेटिव सदियों से है कि वह तो बस घर संभालती है, कुछ नहीं करती. यहां तक कि यह नैरेटिव इतना ज्यादा प्रभावी है कि खुद महिलाओं को ही इस बात का आभास नहीं है कि यदि उनके श्रम को तौला जाए तो उनका योगदान कहां जाकर ठहरता है. 
न्यायाधीश सूर्यकांत और जस्टिस केवी विश्वनाथन की बैंच ने सड़क दुर्घटना में एक महिला की मौत से जुड़े केस पर सुनवाई करते हुए यह टिप्पणी दी. अदालत ने कहा कि ट्रिब्युनलों और अदालतों को मोटर दुर्घटना दावों के मामलों में गृहणियों की अनुमानित आय की गणना उनके काम, श्रम और त्याग के आधार पर करनी चाहिए. मोटर दुर्घटना दावा ट्रिब्युनल ने महिला के पति और नाबालिग बेटे को ढाई लाख का हर्जाना दिया जाने का आदेश दिया था. हाई कोर्ट में अपील की तो हाईकोर्ट ने ट्रिब्युनल का आदेश यथावत रखा जिसमें गृहिणी होने के आधार पर दावे की गणना में महिला की अनुमानित आय को एक दैनिक मजदूर से भी कम माना गया था. सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में न केवल मुआवजा राशि बढ़ाने का आदेश दिया बल्कि एक महिला के कामकाज को दैनिक मजदूर से भी कम माने जाने पर हाईकोर्ट को फटकार भी लगाई. 
यह आदेश आधी आबादी के लिए निश्चित रूप से सुखद है. 2016 में हमने घरेलू महिलाओं के श्रम पर एक विश्लेषण किया था.

इस विश्लेषण में यह निकलकर आया था कि महि‍लाओं के सारे घरेलू कामों का गणित लगाया जाए तो इसका सालाना मूल्य लगभग 16.29 लाख करोड़ रूपए होता है. यह भारत सरकार के एक साल के बजट( जो वर्ष 2013-14 के बजट का संशोधित अनुमान 15.90 लाख करोड़ रुपए था) से अधिक होता है. यह अनुमान देश की जनगणना के आंकड़ों के आधार पर था.

 देश की जनगणना में यह देखा जाता है कि देश में गैर-कार्यकारी जनसंख्या (आर्थिक योगदान के नजरिये से) की क्या स्थिति है ? महिलाओं के घरेलू कामों को कौशल पूर्ण मानते हुए आंकलन करें तो घरेलू काम के लिए एक महि‍ला को औसत न्यूनतम मजदूरी के रूप में 283 रूपए का भुगतान करना होता, (देश को पांच जोन में बांटते हुए ज़ोनवार उन राज्यों  की औसत मजदूरी निकाल ली जाये, तो यह तकरीबन 283 रुपए प्रति‍दि‍न होती है). इस हि‍साब से देश में ऐसी 15.99 करोड़ महि‍लाओं के साल भर के श्रम का मूल्य लगभग 16286 अरब रूपए होगा. यह राशि‍ साल 2013-14 के सरकार के कुल सालाना बजट 15900 अरब रूपए के बराबर पाई गई थी. 

जब हमारे देश में एक महिला का इतना अधिक योगदान है, तो फिर उसे हमेशा ही इतना उपेक्षित क्यों पाया जाता है. यह आदेश घरेलू महिलाओं के श्रम को एक बार फिर से रेखांकित करता है, हालांकि पिछले समय में ऐसे आदेश आते रहे हैं, सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश जीएस संघवी और एके गांगुली की युगलपीठ के एक आदेश में उन्होंने परि‍वार में महि‍ला के श्रम का मूल्यांकन करते हुए मुआवजा राशि‍ में बढ़ोत्तरी का आदेश दि‍या था.

लेकिन बार—बार के आदेशों के बावजूद पितृप्रधान समाज में इस नैरेटिव को बदलना एक बड़ी चुनौती है कि घर की महिलाएं कुछ भी नहीं करती हैं. 
यदि एक घरेलू महिला के कामकाज को बारीकी से देखा जाए तो सुबह सबसे पहले जागने से पहले रात में घर का सारा काम निपटाकर सबसे आखिरी में गृहिणी ही सोती है. खेती में सबसे कठिन काम महिला के हिस्से में ही होते हैं. यदि आपको कभी धान के खेतों में रुपाई करने की दृश्य देखे होंगे तो आप पाएंगे कि उनमें सबसे ज्यादा संख्या महिलाओं की है या पुरुषों की, लेकिन वही फसल को जब बेचने की बारी आती है तो उसका जिम्मा एक पुरुष ही निभाता है, और फसल से निकली राशि को किस तरह से खर्च करना है उसका निर्णय कौन लेता है, यह आप पता कर सकते हैं. 
कोर्ट का यह आदेश घरेलू महिलाओं के श्रम की गरिमा को रेखांकित करता है. हमारा संविधान समाज में लैंगिक समानता का लक्ष्य रखता है. सरकारों ने, व्यवस्थाओं ने महिलाओं को आरक्षण देकर अवसर देने की कोशिशें की हैं, लेकिन असली चुनौती समाज के स्तर पर भी है, घर के स्तर पर भी है, वहां पर कौन सी सरकार या कानून और व्यवस्था बराबरी का दर्जा देने के लिए आगे आएंगी, वह शुरुआत तो हमें खुद से ही करनी होगी. खुद महिलाओं को भी यह समझना होगा कि वह केवल घरेल महिला या गृहिणी नहीं हैं, वह इस दुनिया की होम मेकर हैं.

लेखक राकेश कुमार मालवीय पिछले 14 साल से पत्रकारिता, लेखन और संपादन से जुड़े हैं. वंचित और हाशिये के समाज के सरोकारों को करीब से महसूस करते हैं. ग्राउंड रिपोर्टिंग पर फोकस.

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.

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