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छत्तीसगढ़ बीजेपी के लिए 2019 की तरह ये चुनाव आसान नहीं है, जानिए कहां-कहां फंसा है पेंच?

Diwakar Muktibodh
  • विचार,
  • Updated:
    मई 02, 2024 17:58 pm IST
    • Published On मई 02, 2024 15:54 pm IST
    • Last Updated On मई 02, 2024 17:58 pm IST

छत्तीसगढ़ की विष्णुदेव साय सरकार में वरिष्ठ मंत्री बृजमोहन अग्रवाल को जब रायपुर संसदीय सीट से टिकिट दी गई तो उसकी जमकर चर्चा हुई . यद्यपि भाजपा के केन्द्रीय नेतृत्व के इस फैसले को आश्चर्य के साथ नहीं देखा गया क्योंकि इस तरह के प्रयोग पिछले कुछ चुनावों में होते रहे हैं फिर भी जब बृजमोहन को टिकिट मिलने की घोषणा हुई तब तरह-तरह की प्रतिक्रियाएं आती गईं तथा यह मुद्दा काफी समय तक गर्म रहा. लेकिन धीरे-धीरे इस हाई-प्रोफाइल सीट पर चर्चा का बाज़ार ठंडा पड़ता गया क्योंकि यह आम ख्याल था कि बृजमोहन चुनाव तो जीत ही जाएंगे, सवाल सिर्फ यही जानने का रहेगा कि वे कितने वोटों से जीतेंगे? क्या वे भाजपा की पिछली जीत के कीर्तिमान से आगे निकल जाएंगे या पीछे रह जाएंगे ? 2019 में रायपुर लोकसभा चुनाव सुनील सोनी ने तीन लाख 48 हजार वोटों से जीता था जबकि संसदीय सीट के लिए यह उनका पहला चुनाव था. और तो और उन्हें कभी विधान सभा की भी टिकिट नहीं दी गई थी.

इसके बावजूद वे भारी भरकम वोटों से जीत गये. उनकी जीत दरअसल मोदी-चेहरे की जीत थी.  इस बार बार भी  मोदी-चेहरा सामने है. उस पर तुर्रा यह कि बृजमोहन भी छत्तीसगढ भाजपा का बरसों पुराना चमकदार चेहरा है. लोकप्रियता की दृष्टि से उन्हें छत्तीसगढ़ का मोदी कह सकते हैं. जब चेहरे पर चेहरा जैसी स्थिति हो तो जाहिर सी बात है, चुनाव रिकार्ड मतों से जीतने की चुनौती और बड़ी हो जाती है. बृजमोहन, बशर्ते इसे नैतिक रूप से स्वीकार करे, उन्हें नया रिकॉर्ड बनाना होगा. यह स्पष्ट है कि वे एक अलग तरह के दबाव की स्थिति में  है जहां उन्हें अपने आप से चुनौती है. हालांकि वे लंबी जीत का कीर्तिमान बना पाए या न बना पाए, इससे उनकी छवि पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा. फिर भी दलीय राजनीति में अपने कद को और ऊंचा उठाने का मौका उनके पास है.

कांग्रेस ने बृजमोहन अग्रवाल के खिलाफ विकास उपाध्याय को उतारा है. विकास युवा हैं, पूर्व विधायक हैं, कांग्रेस के राष्ट्रीय सचिव हैं तथा भूपेश बघेल की सरकार में संसदीय सचिव रह चुके हैं. 2018 के विधान सभा चुनाव में उन्होंने रायपुर पश्चिम से तत्कालीन मंत्री राजेश मूणत को पराजित किया था पर  2023 के चुनाव में वे उनसे पराजित हो गए.

प्रदेश कांग्रेस की राजनीति में उन्हें जुझारू व प्रतिभाशाली नेता माना जाता है. कांग्रेस ने उन्हें टिकिट देकर मुकाबले को रोचक बना दिया है. हालांकि  प्रारंभ में एक अफवाह खूब चली थी कि वे रायपुर से नहीं लड़ना चाहते थे. दरअसल जब भाजपा ने रायपुर लोकसभा सीट पर  बृजमोहन अग्रवाल के नाम का एलान किया तब कांग्रेस के सामने यह प्रश्नचिन्ह खड़ा हो गया था कि भाजपा के इस  लोकप्रिय एवं संकट मोचक कहे जाने वाले नेता के खिलाफ किसे खड़ा किया जाए ? यद्यपि उनकी राजनीतिक कदकाठी  के समतुल्य अनेक नेता कांग्रेस में हैं किंतु उनके खिलाफ चुनाव लड़ने के लिए मन से तैयार रहने तथा जोखिम उठाने का साहस हर किसी में नहीं है. इसके पीछे के कारण स्पष्ट है. पहले तो बृजमोहन की रायपुर में ही नहीं समूचे प्रदेश में जमीनी पकड़, दशकों तक विधायक व मंत्री के रूप में दीर्घ संसदीय व प्रशासनिक कामकाज का अनुभव , कभी हार न मानने की प्रवृत्ति , राजनीतिक विरोधियों भी दोस्त बनाने व दोस्ती निभाने में निपुणता , मीडिया से दोस्ताना ताल्लुक़ात तथा पैसों की भरपूर ताकत जिसका उपयोग वे अपने राजनीतिक हितों को साधने में करते रहे हैं.

इसलिए ऐसी शख्सियत के खिलाफ चुनाव लड़ने का मतलब था - आ बैल मुझे मार यानी निश्चित हार को गले लगाना. इस तथ्य के अलावा उम्मीदवार के चयन में कांग्रेस के सामने दूसरा बड़ा कारण था - संगठन की मौजूदा माली हालत. पार्टी टिकिट तो दे सकती है पर चुनाव लड़ने पैसे नहीं.

ऐसी स्थिति में समझा जा सकता है कि  विकास उपाध्याय सीमित संसाधनों के साथ बृजमोहन का किस तरह मुकाबला कर रहे हैं.  किंतु यह बड़ी बात है कि उन्होंने हिम्मत नहीं हारी है. पूरी ताकत से लड़ रहे हैं, बिना इस बात की परवाह किए कि नतीजा चाहे जो भी आए. अतः यदि वे रायपुर के रण में बृजमोहन को एक सीमा तक रोक पाने सफल रहते हैं तो यह उनकी नैतिक जीत ही होगी.

रायपुर लोकसभा सहित छत्तीसगढ़ की शेष बची सात सीटों- सरगुजा, रायगढ़, जांजगीर-चांपा, कोरबा,  बिलासपुर व दुर्ग में सात मई को चुनाव होंगे. इसके पूर्व पहले चरण में 19 अप्रैल को बस्तर में व दूसरे चरण की तीन सीटों  राजनांदगांव, महासमुंद व कांकेर में  26 अप्रैल को  वोट डाले जा चुके हैं.  प्रदेश की कुल 11 में से दो सीटें बस्तर व कोरबा कांग्रेस के पास है. पहले व दूसरे चरण के चुनाव में करीब 74 प्रतिशत  मतदान हुआ था. तीसरे व प्रदेश में अंतिम चरण के चुनाव में तेज गर्मी अपना असर दिखा सकती है फिर भी अच्छा मतदान होने की संभावना हैं. कांग्रेस ने अपनी समूची ताकत दोनों सीटों को बचाने और कुछ नया हासिल करने में लगा रखी है. मोदी-शाह के धुआंधार प्रचार के बावजूद उसे उम्मीद है कि वह इस बार बेहतर प्रदर्शन करेगी. कोरबा में पार्टी की वर्तमान सांसद  ज्योत्स्ना महंत का मुकाबला भाजपा की सरोज पांडे से है जो अपना क्षेत्र दुर्ग को छोड़कर कोरबा से लड़ रही है. दरअसल सरोज पांडे को ज्योत्स्ना के अलावा उनके पति , नेता प्रतिपक्ष चरणदास महंत से भी मुकाबला करना पड़ रहा है जिन्होंने  इस सीट को बचाने का संकल्प ले रखा है और इसके लिए युद्धरत हैं. पिछला चुनाव ज्योत्स्ना ने महज 26 हजार 349 वोटों से जीता था. यह कतई बड़ा अंतर नहीं है जिसे मोदी-गारंटी के आधार पर पाटा न जा सके. इसलिए भाजपा जीत के प्रति अधिक आश्वस्त नज़र आ रही है. फिर भी मुकाबला कड़ा है लिहाज़ा किसी निष्कर्ष पर पहुंचना कठिन. यही स्थिति बिलासपुर , रायगढ़ व सरगुजा की भी है.

बिलासपुर, डिप्टी सीएम अरूण साव का कर्म क्षेत्र है. पिछला लोकसभा चुनाव उन्होंने यहीं से 1 लाख,  41 हजार 763 वोटों से जीता था. इस अर्थ में भाजपा प्रत्याशी तोखन साहू के लिए बिलासपुर उम्मीद भरी राह है. वैसे भी 1996 से यह लोकसभा क्षेत्र भाजपा का गढ़ है।  इस गढ़ को अभेद्य रखने की  जितनी  जिम्मेदारी प्रत्याशी पर है, उतनी ही  डिप्टी सीएम पर भी क्योंकि इस क्षेत्र से उनकी भी प्रतिष्ठा जुड़ी हुई है.

तोखन कांग्रेस के युवा विधायक व बिलासपुर के लिए नये देवेन्द्र यादव की चुनौती का सामना कर रहे हैं. यह सीट दरअसल पिछड़े वर्ग निर्णायक वोटों के बीच फंसी हुई.

रायगढ़ अनुसूचित जनजाति वर्ग के लिए आरक्षित सीट है. इस क्षेत्र से कांग्रेस ने नये चेहरे के रूप में  डाक्टर मेनका सिंह को उतारा है जो सारंगढ़ राजपरिवार से है. उनकी बड़ी बहन पुष्पा देवी सिंह तीन बार इसी क्षेत्र से सांसद रहीं. मजबूत पारिवारिक पृष्ठभूमि के साथ लोकप्रिय चिकित्सक के रूप में मेनका सिंह की अच्छी ख्याति हैं किंतु वे आदिवासी समाज के वोटरों को कितनी आकर्षित कर पाएंगी, कहना मुश्किल है. दरअसल भाजपा प्रत्याशी राधेश्याम राठिया उस राठिया समुदाय से हैं जिनकी धरमजयगढ़, लैलूंगा व खरसिया में बहुतायत है. चुनाव में गोंड व कंवर समाज के लोग भी  निर्णायक भूमिका में रहे हैं. इसी वोट बैंक के बलबूते पर भाजपा 1999  से लगातार यह सीट  जीतती रही है. खुद मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय 1999 से 2014 तक इस क्षेत्र का लोकसभा में प्रतिनिधित्व करते रहे है. यह उनकी प्रतिष्ठा की सीट है लिहाज़ा उनका सर्वाधिक ध्यान पार्टी के लिए रायगढ़ को पुनः जीतने पर है.

सरगुजा इसलिए महत्वपूर्ण हैं क्योंकि यह कांग्रेस के बड़े नेता व पूर्व डिप्टी सीएम टी एस सिंहदेव का क्षेत्र है. कांग्रेस की दिक्कत यह है कि संभाग की सभी 14 विधान सभा सीटें बीजेपी के पास है. 2023 के विधान सभा चुनाव में कांग्रेस की बुरी पराजय विशेषकर टीएस की राजनीतिक प्रतिष्ठा को जो धक्का पहुंचा था, उसकी टीस इस लोकसभा चुनाव में अधिक महसूस की जा रही है. इसलिए इस बार कांग्रेस इस सीट को जीतकर  अपने जख्मों पर मरहम लगाना चाहती है. किंतु  मोदी-गारंटी के इस दौर में यदि सरगुजा में कोई उलटफेर संभव हुआ तो यह किसी चमत्कार से कम न होगा.

दिक्कत यह भी है कि 2004  से यह सीट बीजेपी के आधिपत्य में है. यह मोदी सरकार में पूर्व मंत्री रेणुका सिंह का भी इलाका  है जो अब विधायक हैं. उन्होंने  2019  के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के खेलसाय सिंह को 1 लाख 57 हजार 873 वोटों से हराया था.

वर्ष 2019 की इस पूंजी के साथ, जो कि चलायमान है, भाजपा ने  चिंतामणि महाराज पर दांव लगाया है. उनके विरोध में कांग्रेस की शशि सिंह है. पूर्व मंत्री  स्वर्गीय तुलेशवर सिंह की बेटी कोई चमत्कार कर पाएगी,  संभावना कम नज़र आ रही है.

इन  सातों लोकसभा सीटों पर चुनाव के नतीजे क्या आएंगे, कहना कठिन है. पर यह यह अवश्य कहा जा सकता है कि भाजपा के लिए यह चुनाव 2019 के चुनाव की तरह आसान नहीं है. कांग्रेस को एक से अधिक सीटों का  लाभ मिल सकता है. कोरबा कांग्रेस के पास है जहां वह अपना दबदबा पुनः कायम रख सकती है, दूसरी सीट कांकेर है जहां मौजूदा कांग्रेस प्रत्याशी बीरेश ठाकुर पिछले चुनाव में मात्र 6914 से हारे थे. कांग्रेस-संभावना की तीसरी सीट अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित जांजगीर-चांपा है.  इस लोकसभा क्षेत्र के अंतर्गत विधान सभा की सभी 8 सीटें कांग्रेस के पास है. इसीलिए यहां उसकी जीत की संभावना प्रबल है.  हालांकि पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा के गुहाराम अजगले ने कांग्रेस के  रविन्द्र शेखर  भारद्वाज के खिलाफ 83 ,265 वोटों से जीत दर्ज की थी. लेकिन तब कांग्रेस की पराजय का कारण बने थे बसपा के दाऊराम रत्नाकर जिन्होंने 1 लाख 37 हजार 387 वोट हासिल किए थे जो दस प्रतिशत से अधिक थे. लेकिन इस बार बसपा व गोंडवाना गणतंत्र पार्टी का कोई जोर नज़र नहीं आ रहा है. इसलिए वोटों के विभाजन की संभावना भी काफी कम है. इन कारणों पर गौर किया जाए तो 2024 का चुनाव कांग्रेस को पूर्व की तुलना में अधिक बेहतर साबित हो सकता है.

दिवाकर मुक्तिबोध छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ पत्रकार हैं और राज्य की राजनीति की गहरी समझ रखते है.

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.

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