तमाम आशंकाओं व अनुमानों को खारिज करते हुए कांग्रेस ने 2024 के लोकसभा चुनाव में जैसा प्रदर्शन किया है, उसे देखते हुए यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि उसके अच्छे दिन पुनः शुरू हो गए हैं. गिर-गिर कर उठने का जो हौसला इस पार्टी ने दिखाया है,कम से कम छत्तीसगढ़ कांग्रेस को इससे सबक लेने की जरूरत है कि आखिरकार बीते पच्चीस बरस से वह लोकसभा चुनावों में बेहतर नतीजे क्यों नहीं दे पा रही है.18 वें आम चुनाव के 4 जून के परिणामों ने छत्तीसगढ़ में फिर वही कहानी दुहरा दी है जो पिछले चार चुनावों में 10-1 या 9-2 के अनुपात में रही है.2019 में कांग्रेस ने राज्य की कुल 11 सीटों में से दो सीटें बस्तर व कोरबा जीती थी. इस बार बस्तर सीट भी हाथ से निकल गई, सिर्फ कोरबा रह गई जबकि उम्मीद की जा रही थी कि कांग्रेस दो से अधिक सीटें जीतने में कामयाब रहेगी. बहरहाल एक सीट के साथ छत्तीसगढ़ कांग्रेस ने लोकसभा में अपनी उपस्थिति दर्ज करा दी है किंतु मध्यप्रदेश का क्या? वहां बीजेपी ने सभी 29 सीटें जीत लीं. पिछ्ले चुनाव में एक सीट उसके पास थी, छिंदवाड़ा की, नकुलनाथ की, वह भी हाथ से निकल गई. यानी लोकसभा चुनाव के मामले में छत्तीसगढ़ व मध्यप्रदेश में कांग्रेस की स्थिति कमोबेश एक जैसी है, खस्ताहाल.
पांच वर्षों तक उन्होंने सरकार चलाई और एक अलग राजनीतिक व सामाजिक हैसियत हासिल की लेकिन इसके बावजूद वे संतोष पांडे से हार गए. जाहिर है वहां भाजपा जीती,प्रत्याशी नहीं. इस बार भी कोरबा को छोड़कर सभी दस सीटों पर भाजपा का मजबूत संगठन,उसकी आक्रामक रणनीति एवं नरेंद्र मोदी की गारंटियों ने कमाल किया. मतदाताओं ने उन पर आंख मूंदकर भरोसा किया. इसके आगे कांग्रेस की लोकहितकारी गारंटियां,उसका घोषणापत्र टिक नहीं पाया. लिहाजा भूपेश बघेल,ताम्रध्वज साहू,कवासी लखमा जैसे जमीनी व वरिष्ठ नेता भी चुनाव हार गए.
बहरहाल 2024 के लोकसभा के चुनाव में भाजपा के धार्मिक व साम्प्रदायिक कार्ड के अलावा प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता, उनकी स्वीकार्यता का कितना प्रभाव पड़ा यह देशभर के चुनाव के नतीजों से जाहिर है. भाजपा अपने दम पर केन्द्र में सरकार बनाने लायक बहुमत हासिल नहीं कर पाई. लेकिन नतीजे बताते हैं कि छत्तीसगढ़ व मध्यप्रदेश में मतदाताओं को प्रभावित करने वाले उसके प्रमुख मुद्दे खूब चले. फलतः इन दोनों राज्यों में भाजपा को आशातीत सफलता मिली. छत्तीसगढ़ में किंचित कसर रह गई किंतु मध्यप्रदेश की सभी सीटें जीतने का उसका संकल्प पूरा हुआ.
अपवादस्वरूप 2018 के विधान सभा चुनाव को छोड़ दें, उसके हाथ खाली हैं. वह अब राज्य की सत्ता से भी बेदखल है. लोकसभा चुनावों में तो उसका सूखा खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा है. प्रत्यक्ष रूप से जो कारण समझ में आते हैं वे हैं कमज़ोर नेतृत्व, संगठन में परस्पर विश्वास का अभाव, गुटीय प्रतिद्वंदिता ,जनता से निरंतर बढ़ती हुई दूरी, जमीनी कार्यकर्ताओं की उपेक्षा,संगठन के प्रत्येक स्तर पर वर्चस्व की लड़ाई,जनता के मुद्दों के प्रति बेपरवाही तथा उनका भरोसा कायम रखने के लिए यथोचित प्रयत्नों का अभाव . कांग्रेस की स्थिति यह है कि कोई भी निस्वार्थ भाव से पार्टी के लिए काम नहीं करना चाहता. विधानसभा चुनाव में बघेल सरकार का पतन इन्हीं वजहों से हुआ जबकि सरकार की नीतियां बेहतर थीं और भूपेश बघेल की लोकप्रियता भी चरम पर. हालांकि तब पराजय का एक बड़ा कारण सरकार में व्याप्त भ्रष्टाचार भी था जो चुनाव के पूर्व उजागर हो गया. विधान सभा चुनाव में विशाल बहुमत के साथ मिली सत्ता को गंवाने के बाद भी कांग्रेस ने स्वयं को दुरूस्त करने के लिए ठोस उपाय नहीं किए. हार से सबक नहीं लिया. परिणामस्वरूप लोकसभा चुनाव में उसकी एक सीट और कम हो गई. अब अगले पांच-छह महीनों में होने वाले स्थानीय निकायों के चुनाव, उसे पुनः उठने का मौका देंगे बशर्ते वह आम लोगों के बीच अपनी उपस्थिति दर्ज कराए. इस चुनाव में अच्छी बात यह हुई है कि राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस मजबूत हुई है. इससे प्रेरणा लेकर छत्तीसगढ़ व मध्यप्रदेश कांग्रेस के वरिष्ठ नेता स्वयं को बदल पाएं तो पार्टी की आगे की राह आसान आसान होगी.
दिवाकर मुक्तिबोध छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ पत्रकार हैं और राज्य की राजनीति की गहरी समझ रखते है.
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