
Prayagraj Maha Kumbh Stampede Case : एक ओर जहां प्रयागराज महाकुंभ में करोड़ों श्रद्धालु आस्था की डुबकी लगाकर पुण्य अर्जित कर रहे थे. वहीं, इस धार्मिक आयोजन के दौरान मची भगदड़ ने रायसेन जिले के एक परिवार की खुशियां छीन लीं. गैरतगंज तहसील के ग्राम जैतपुर निवासी मोहनलाल अहिरवार, जो अपने परिवार के साथ शाही स्नान के लिए प्रयागराज पहुंचे थे, भीड़ के दबाव में दम तोड़ बैठे. लेकिन त्रासदी यहीं खत्म नहीं हुई. तीन महीने बीतने के बावजूद उनके परिजनों को अब तक मृत्यु प्रमाण पत्र तक नहीं मिल सका है. तस्वीर में उनके माता-पिता, पत्नी, बेटा और बेटी हाथ में तस्वीर लिए हुए दिख रहे हैं. ये तस्वीर बेहद ही भावुक करने वाली है. मोहनलाल के न होने का दर्द साफ तौर पर उनके परिजनों के चेहरे पर झलक रहा है. ये कैसा सिस्टम है जहां अपनों को खोने के बाद मौत के दस्तावेज के लिए इतना संघर्ष करना पड़ रहा है...
28 जनवरी की वह काली सुबह
शाही स्नान के दिन प्रयागराज में अचानक मची भगदड़ ने कई परिवारों को झकझोर दिया. मोहनलाल, जो अपने परिवार के लिए आर्थिक सहारा थे, भगदड़ की चपेट में आ गए. घटनास्थल पर ही उनकी मौत हो गई. पोस्टमार्टम प्रयागराज के सरकारी अस्पताल में हुआ, लेकिन उसके बाद से उनका परिवार सरकारी दफ्तरों के चक्कर लगाने को मजबूर है.
सरकारी दफ्तरों में सिर्फ आश्वासन
मृतक की पत्नी रामकली जब अपनी पीड़ा साझा करती हैं तो उनकी आंखें भर आती हैं. वह बताती हैं, “हमें वहां कहा गया कि कोई घर का सदस्य ही आकर शव की शिनाख्त करे. मेरे बेटे ने दो दिन तक भूखा-प्यासा रहकर इधर-उधर भटक कर यह प्रक्रिया पूरी की, लेकिन आज तक कोई प्रमाण पत्र नहीं मिला.”
बेटे के खुलासे और दर्द भरी जद्दोजहद
मोहनलाल के बेटे छगनलाल ने प्रयागराज जाकर शव की पहचान की. उन्होंने बताया कि पोस्टमार्टम से लेकर प्रमाण पत्र तक की प्रक्रिया में उन्हें बार-बार परेशान किया गया. “हर काम के लिए पैसा देना पड़ा. तीन बार प्रयागराज के चक्कर लगा चुके हैं लेकिन न आर्थिक मदद मिली, न ही प्रमाण पत्र. अस्पताल प्रबंधक और नगर निगम दोनों ही टालमटोल कर रहे हैं,” छगनलाल की आवाज में पीड़ा साफ झलकती है.
प्रशासन से उम्मीदें और निराशा
परिवार ने रायसेन जिला प्रशासन से गुहार लगाई है. जिला कलेक्टर अरुण कुमार विश्वकर्मा ने आश्वासन दिया है कि परिवार को हरसंभव मदद दी जाएगी और दस्तावेज़ संबंधित कार्रवाई में तेजी लाई जाएगी. वहीं, मृतक के पिता खुमान सिंह, जिनकी आंखों की रोशनी अब कम हो चुकी है, बताते हैं, “बेटा मिस्त्री का काम करता था. यह घर उसी के हाथों बना था. अब वही हाथ नहीं रहे. हम तो अब बस उसके नाम को याद करते हैं.”
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क्या यह सिर्फ हादसा था या सिस्टम की बेरुखी?
मोहनलाल की मौत एक हादसा जरूर थी, लेकिन इसके बाद शुरू हुआ संघर्ष कहीं ज्यादा त्रासद है. सवाल यह है कि क्या महाकुंभ जैसे आयोजनों में शामिल लाखों लोगों की सुरक्षा और उनके अधिकारों को लेकर प्रशासन अब भी उतना ही गंभीर है जितना आयोजन के दिखावे को लेकर? क्या मोहनलाल जैसे पीड़ितों को न्याय मिलेगा, या वे सिर्फ एक आंकड़ा बनकर रह जाएंगे?
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