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NDTV से बोले कैलाश सत्यार्थी: 10 दिन युद्ध रोक दे दुनिया तो हर गरीब बच्चे को मिलेगी शिक्षा-स्वास्थ्य सुविधा

नोबेल शांति पुरस्कार विजेता और दुनियाभर में बच्चों के अधिकारों की बुलंद आवाज कैलाश सत्यार्थी ने NDTV से मौजूदा समाज और बच्चों की स्थिति पर खुल कर बात की...युद्धग्रस्त दुनिया में बच्चों के सुरक्षित भविष्य को लेकर भी नोबल विजेता ने कई अनोखी बातें हमसे साझा की...

NDTV से बोले कैलाश सत्यार्थी: 10 दिन युद्ध रोक दे दुनिया तो हर गरीब बच्चे को मिलेगी शिक्षा-स्वास्थ्य सुविधा

नोबेल शांति पुरस्कार विजेता, 'बचपन बचाओ आंदोलन' के जनक, और करोड़ों बच्चों के अधिकारों की आवाज़ — कैलाश सत्यार्थी. विदिशा के इस सपूत ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत को वो पहचान दिलाई है, जो हर हिंदुस्तानी को गर्व से भर देती है. लेकिन जब सत्यार्थी ने NDTV MPCG से खास मुलाकात की तो बात सिर्फ पुरस्कारों की नहीं, बल्कि समाज की आत्मा पर हुई, बच्चों के दर्द, समाज की चुप्पी और सत्ता की जिम्मेदारी पर उन्होंने खुलकर बात की.यहां पढ़िए हमारे स्थानीय संपादक अनुराग द्वारी के साथ उनका पूरा साक्षात्कार—

प्रश्न 1: आप मध्यप्रदेश से हैं, विदिशा से निकले हैं — बच्चों की स्थिति को लेकर अपने राज्य को कैसे देखते हैं? क्या कुछ बदला है?

बहुत कुछ बदला है, लेकिन बहुत कुछ अभी बाकी है. जब मैंने शुरू किया था, तब बाल मजदूरी आम बात थी. आज भी है, लेकिन जागरूकता बढ़ी है. पहले गांवों में पढ़ाई को अहमियत नहीं दी जाती थी, अब मां-बाप खुद बच्चों को स्कूल भेजना चाहते हैं. योजनाएं लागू हो रही हैं, लेकिन ज़मीनी निगरानी की कमी है.

प्रश्न 2: विदिशा के आपके बचपन ने आपको क्या सिखाया? वहां की कौन-सी बातें अब भी प्रेरणा देती हैं?

विदिशा सिर्फ मेरा जन्मस्थान नहीं, मेरी सोच का केंद्र है. सम्राट अशोक के दो बच्चों — महेन्द्र और संघमित्रा — वहीं पैदा हुए और उन्होंने अहिंसा, बुद्ध धर्म और सेवा का रास्ता चुना. ये मेरे लिए एक आदर्श है. मैं सोचता हूं कि अगर आज से 2000 साल पहले एक बच्चा इतना बड़ा काम कर सकता है, तो आज क्यों नहीं?

बचपन बचाओ आंदोलन के जनक कैलाश सत्यार्थी ने तमाम मुद्दों पर खुल कर अपनी राय रखी

'बचपन बचाओ आंदोलन' के जनक कैलाश सत्यार्थी ने तमाम मुद्दों पर खुल कर अपनी राय रखी

प्रश्न 3 :सर, जब इस तरह की खबरें सामने आती हैं—जैसे पोषण आहार से जुड़े बड़े घोटाले, जिसमें भारत के महालेखाकार की रिपोर्ट सामने एनडीटीवी लेकर आया , और उसमें कहा जाता है कि बच्चों का भोजन तक लूटा गया… स्कूटर, ऑटो से लाखों रुपये का माल ढोया गया, जो कभी हुआ ही नहीं…सर, जब दिल्ली में बैठकर आप ऐसी खबरें पढ़ते हैं, और खासकर तब जब वो राज्य कुपोषण से जूझ रहा हो… तो आपका मन कितना विचलित होता है?

जब कोई ऐसी बात आती है कि बच्चों के खाने को लेकर गड़बड़ी हुई, तो एक मां की तरह मेरा मन भी बहुत उद्वेलित हो जाता है.मैं सोचता हूं कि जिन बच्चों के पास दो वक्त की रोटी नहीं है, उनके हिस्से का खाना भी अगर घोटाले की भेंट चढ़ जाए, तो ये किसी भी समाज के लिए शर्म की बात है. मेरे अपने राज्य, अपने शहर विदिशा की बात आती है, तो लोग मुझसे पूछते हैं—कि क्या वहां के बच्चे नशे में जा रहे हैं? काला धंधा चल रहा है? लेकिन मैं आपको सच बता रहा हूं—मैं सालों में एक बार ही विदिशा जा पाता हूं. मैं पिछले 30–35 सालों से दुनिया के 140–145 देशों में बच्चों के लिए लड़ रहा हूं. अगर मुझसे कोई भारत के बारे में पूछेगा, तो एक भारतीय होने के नाते मैं उसकी अच्छाइयों को गर्व से बताऊंगा, लेकिन अगर दुनिया बच्चों से जुड़ी किसी समस्या पर सवाल उठाती है—तो मैं चुप नहीं बैठता. सरकारों तक, नेताओं तक—किसी भी दल के हों—मैं वो आवाज़ें पहुंचाता हूं"

प्रश्न 4 :सर, आपकी बात दिल को छूती है… और मैं इसलिए इतना जुड़कर यह सवाल कर रहा हूं, क्योंकि यह खबर भी मेरी ही रिपोर्ट थी.जिस पोषण आहार घोटाले का जिक्र आपने किया, वो NDTV की एक्सक्लूसिव रिपोर्ट थी. उसके बाद भारत के महालेखाकार ने जांच की, विधानसभा में रिपोर्ट पेश हुई, और सरकार ने माना कि कई स्तर पर गड़बड़ी हुई थी.

 बच्चों की आवाज़ को बुलंद करने वाले पत्रकार ही असल में बदलाव लाते हैं। आपने सच्चाई सामने रखी—यही तो पत्रकारिता की असली ताकत है।"

प्रश्न 5 : सर, आपने बच्चों में नशे की बात उठाई थी… और हम जहां बैठे हैं, यहां से थोड़ी ही दूरी पर NDTV ने एक स्टिंग किया था. 8–10 साल के बच्चे न केवल पुड़िया लेकर नशा कर रहे थे, बल्कि बेच भी रहे थे. यह देखकर मन बहुत व्यथित हुआ.हमने जिम्मेदार अफसरों को वीडियो फुटेज भी सौंपे. अब चूंकि आप एक नोबेल पुरस्कार विजेता हैं, दुनिया भर में बच्चों की आवाज़ हैं—तो मैं यह जानना चाहता हूं कि क्या आपने मध्य प्रदेश या भारत में कोई सकारात्मक बदलाव देखे हैं, विशेष रूप से तब से जब से आपको नोबेल मिला?

ज़रूर. एक तरह की नैतिक जिम्मेदारी महसूस की जाती है अब.कई बार अफसर, नेता, यहां तक कि न्यायाधीश भी मुझसे मिलते हैं, और बच्चों को लेकर गंभीरता दिखाते हैं. ये बदलाव स्वागत योग्य है, लेकिन बदलाव तभी स्थायी होगा जब समाज जागेगा. अकेले सरकार कुछ नहीं कर सकती.

प्रश्न 6 : - जैसे किसी भी साक्षात्कार में एक स्वर होता है लेकिन उसे सवार को तोड़ते हैं एक आरोह अवरोह होता है उसके बीच हम एक मध्यांतर लेते हैं और आपको भी बापू का भजन बहुत पसंद है, वैष्णव जन को साथ में गुनगुनाते हैं..सर, पीड़ पराई गाने का मकसद था -- आपने अक्सर कहा है कि करुणा ही दुनिया को जोड़ सकती है। लेकिन आज अल्पसंख्यकों पर अत्याचार की खबरें दुनियाभर में आम हो गई हैं। बांग्लादेश में नोबेल विजेता मोहम्मद युनुस हों या आप —क्या आपको नहीं लगता कि नोबेल पुरस्कार विजेताओं की जिम्मेदारी और बढ़ जाती है?

बिलकुल, जहां भी अत्याचार है, शोषण है, वहां आवाज़ उठाना हर उस व्यक्ति का नैतिक दायित्व है, जो खुद को इंसान कहता है। नोबेल मिलने के दिन से ही मेरे भीतर यह एहसास गहरा हो गया कि अब यह लड़ाई सिर्फ बच्चों की नहीं, बल्कि हर पीड़ित, हर वंचित, हर डरे हुए इंसान की है. मेरा सपना है एक ऐसी दुनिया की जहां मज़हब के नाम पर नहीं, इंसानियत के नाम पर मंदिर-मस्जिद, गिरजाघर और गुरुद्वारे खुलें.

नोबेल विजेता कैलाश सत्यार्थी के साक्षात्कार के दौरान कुछ हंसी-खुशी के पल

नोबेल विजेता कैलाश सत्यार्थी के साक्षात्कार के दौरान कुछ हंसी-खुशी के पल

प्रश्न 7: भारत में कुछ ताकतें हिंदू राष्ट्र की बात करती हैं. क्या यह हमारी साझा संस्कृति और संविधान की भावना के खिलाफ नहीं है?

देखिए यह विचारधाराओं की बात है और अलग-अलग लोगों की सोच है मैं जिस भारत की कल्पना करता हूं, जिस दुनिया का सपना देखता हूं और बनाने के लिए संघर्षरत हूं...अगर मत मजहब और धर्म की बात करूं तो मेरी दुनिया में मेरी सपने की दुनिया में मेरी संघर्ष की दुनिया में मैं देखता हूं कि हर एक मंदिर हर एक मस्जिद हर एक गुरुद्वारा हर एक चर्च उन सब बच्चों के लिए खुले रहें, चाहे वह किसी भी मजहब के हों अगर वह भूखे हों तो उन्हें खाना मिले. अगर वह डरे हुए हों तो उन्हें सुरक्षा हासिल कराई जाए. जिस दिन मंदिर का पुजारी रास्ते से चलते हुए उसे बच्चों को जो मुसलमान हो या ईसाई हो उसे अगर कष्ट में देखें तो उसे बुलाकर गले लगाए और बोले कि तुम ईश्वर की संतान हो. सबसे पहले तुम्हें सुरक्षा, प्रेम और इज्जत की जरूरत है. मैं तुम्हें बताऊंगा और यही काम मस्जिद में होना चाहिए, यही काम गिरजाघर में होना चाहिए.यह केवल मेरा सपना नहीं है मैं मानता हूं कि बिखराव और अहिंसा स्थाई नहीं है...यह सनातन नहीं है.. सनातन मनुष्यता का प्रेम है, सनातन है एक दूसरे का जुड़ाव तो इसके लिए तो नोबेल पुरस्कार होना जरूरी नहीं है.

प्रश्न 8: जब आप उस बच्ची की तस्वीर देखते हैं जो बुलडोज़र से गिरते घर से किताबें बचाने दौड़ती है, क्या महसूस होता है?
 दर्द और गुस्सा दोनों. ऐसी तस्वीरें सिर्फ भारत से नहीं, यूक्रेन, गाजा, फिलिस्तीन जैसे इलाकों से भी आती हैं. लेकिन यह सिर्फ युद्ध का मुद्दा नहीं है. हिंसा मन में जन्म लेती है, विचारों में पलती है, फिर समाज में फैलती है. हमें मूल्यों की शिक्षा देनी होगी—करुणा की शिक्षा.

प्रश्न 9 :सर,लेकिन वो युद्धग्रस्त इलाके हैं- हमारे ही देश के किसी कोने से जब बच्चे जूझते हुए दिखते हैं… भूख, हिंसा, शोषण… से सर, मैं बताता हूं—वो तस्वीरें देखकर मन पीड़ा से और कई बार गुस्से से भर उठता है.

"देखिए अनुराग जी, युद्ध भी हिंसा का एक व्यापक, एक मेनिफेस्टेशन है.पर हिंसा केवल बम या बंदूक से नहीं होती…वो पहले हमारे भीतर जन्म लेती है—हमारे मन में, हमारे विचारों में.जब मन में द्वेष होता है, लालच होता है, असहिष्णुता होती है—तो वही हिंसा बाद में व्यवहारों में आती है. कभी किसी गरीब के हिस्से का खाना लूटने में, कभी बच्चों को नशे में धकेलने में, कभी चुप्पी साध लेने में…वो अलग-अलग रूप में सामने आती है. लेकिन… हम भारत के लोग हैं—हमने वसुधैव कुटुम्बकम की भावना को जिया है. और ये कोई स्लोगन नहीं है… यह एक जीवन-दर्शन है. इसका असल भाव उस संस्कृत श्लोक में है—
'अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम्।
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्॥'

मतलब यह कि 'यह मेरा है, यह पराया है'—इस तरह की सोच छोटी मानसिकता वालों की होती है. लेकिन उदार चरित,विशाल हृदय वाले लोग पूरी दुनिया को एक परिवार की तरह देखते हैं. और जब तक हम यह नहीं मानेंगे कि हर बच्चा मेरा बच्चा है—तब तक हम हिंसा को जड़ से नहीं मिटा पाएंगे.".

प्रश्न 10: कई बार लगता है कि GDP बढ़ रही है लेकिन इंसानियत घट रही है. क्या आपकी राय में इसका हल क्या है?
 GDP बढ़ाने के लिए लोग धरती को खोदते हैं, हवा को जहरीला करते हैं, जंगल काटते हैं.इससे ग्लोबल वॉर्मिंग और क्लाइमेट जस्टिस का संकट खड़ा हुआ है. असल गरीबी करुणा की है, ईमानदारी की है, रिश्तों की है. मैंने Global Compassion Movement की शुरुआत इसी सोच के साथ की है—करुणा को पुनर्परिभाषित किया है.

प्रश्न 11: आपने कहा कि स्कूलों में करुणा की पढ़ाई होनी चाहिए, और युद्ध का खर्च शिक्षा पर लगाना चाहिए. इस विचार के पीछे की भावना?
 अगर दुनिया सिर्फ दस दिन युद्ध का खर्च रोक दे, हथियार बनाना बंद कर दे, तो हर गरीब देश के हर बच्चे को शिक्षा, सुरक्षा और स्वास्थ्य मिल सकता है. दुनिया गरीब नहीं है, उसकी सोच गरीब है. डिप्रेशन आज महामारी बन चुका है क्योंकि लोगों के पास अब कंधे नहीं बचे रोने के लिए, बाहें नहीं बची गले लगाने के लिए. अगर भारत यह नहीं करेगा, तो कौन करेगा?

प्रश्न 12 : "सर, कबीर कभी ऑक्सफोर्ड या कैम्ब्रिज में तो नहीं पढ़े, लेकिन उनकी बातों में जो गहराई है, वो पूरी दुनिया को चौंका देती है? अब थोड़ा स्वर बदलते हैं...हम दोनों के लिए एक बात कॉमन है—हम दोनों की शादी हो चुकी है. लेकिन आपकी शादी से जुड़ा एक दिलचस्प किस्सा मैंने सुना...
KBC के मंच पर भी आपने इसे साझा किया था—वो गाना कौन-सा था, जिसे गाने की हिम्मत आपने शादी के बाद जुटाई?"

कैलाश सत्यार्थी (हंसते हुए, ):
"देखिए… शादी तो आपकी भी हुई है, मेरी भी!
और शादी में थोड़ी बहुत अतिरंजना हो ही जाती है…
मेरी पत्नी दिल्ली की हैं, पत्रकारिता करती थीं।
दिल्ली से विदिशा आईं शादी करके।
एक दिन मज़ाक-मज़ाक में कहने लगीं—'सुना है, कॉलेज में गाते भी थे?'
तो मैंने कहा—‘अच्छा? तो पहले तुम गाकर सुनाओ '
वो शास्त्रीय संगीत सिखी हुई हैं, तो उन्होंने शुरू किया गाना—
‘भैया मेरे, राखी के बंधन को निभाना...'
अब मेरी बारी थी... तो मैंने भी अपने भोपाल के दिन याद किए।
यहां की गलियों में खूब घूमता था, छोले-भटूरे खाता था...
और मेरे ज़ेहन में बस एक ही गाना आया—
‘ओ माँ... तू कितनी अच्छी है, तू कितनी भोली है…'
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