Mandre ki Mata Gwalior: ग्वालियर में स्थित मांढरे वाली माता (Mandre Wali Mata) की चर्चा न केवल देश बल्कि दुनिया मे भी होती है. इसकी वजह है कि वे सिंधिया राज परिवार की कुल देवी हैं. सिंधिया परिवार (Scindia Family) की कुलदेवी (Kuldevi) के सतारा से ग्वालियर पहुंचने की कहानी अनूठी है. जानें क्यों महाराज को अपने सेनापति को सौंपनी पड़ी थी पूजापाठ की जिम्मेदारी? क्यों खास का देश का इकलौता मन्दिर जो माता नहीं बल्कि भक्त के नाम से जाना जाता है.
आइए जानिए पूरी कहानी
सिंधिया (Scindia Raj Parivar) राज परिवार लगभग डेढ़ सौ वर्ष से निरंतर यहां पूजा-अर्चना करने पहुंचता है. इसी मन्दिर की तलहटी में सिंधिया परिवार का शाही दशहरा (Shahi Dussehra) मैदान भी है, जहां पहुंचकर सिंधिया परिवार हर दशहरा (Vijayadashami) पर शमी पूजन करता है. पुजारी बताते हैं कि यह माता की प्रतिमा पहले महाराष्ट्र के सतारा में स्थापित थी और इन्हें तत्कालीन सिंधिया शासक वहां से लेकर ग्वालियर आये थे. इनके ग्वालियर पहुंचने की कहानी न केवल रोमांचित करती है बल्कि इनकी शक्ति का भी संकेत देती है. महाराजा सिंधिया को मजबूर होकर इनको न केवल सतारा से ग्वालियर लाना पड़ा बल्कि अपने सेनापति को सेना के दायित्व से मुक्त करके पुजारी बनाकर देवी की सेवा में तैनात करना पड़ा और तब से उन्ही का परिवार मां की सेवा कर रहा है.
महिषासुर मर्दिनी का है मंदिर (Mahishasura Mardini Mandir)
ग्वालियर में कम्पू इलाके में ऊंची पहाड़ी पर स्थित मांढरे की माता का प्रसिद्ध मंदिर स्थित है. जब इसकी स्थापना की गई तब यह पहाड़ी और घने वन खंड वाला इलाका था, हालांकि अब इसके आसपास जयारोग्य चिकित्सालय, आयुर्वेद महाविद्यालय और रिसर्च सेंटर, मेडिकल कॉलेज और कैंसर हॉस्पिटल और घनी आबादी स्थित है. लेकिन पहाड़ी पर स्थित इस मंदिर में महिषासुर मर्दिनी की जागृत प्रतिमा स्थित है. यहां हर नवरात्रि को विशाल मेला लगता है और देशभर से भक्त दर्शन और पूजा अर्चना करने आते हैं.
माता के नहीं भक्त के नाम पर है ये मंदिर
देशभर में मंदिरों की कमी नहीं है, लेकिन वे मंदिर वहां बिराजे भगवान के नाम से ही पहचाने जाते हैं. यह देश में संभवतः इकलौता मंदिर होगा जिसे उसके भक्त के नाम से पहचाना जाता है. ज्यादातर लोगों को यह तो यही अनुमान है कि ग्वालियर में मांढरे की माता का मंदिर है. अनेक लोग तो आज भी यही समझते हैं कि यह मांढरे नामक किन्ही देवी माता का मंदिर है, लेकिन यह सच नहीं है बल्कि सच ये है कि यह मां महिषासुर मर्दिनी देवी का मंदिर है और मांढरे परिवार के एक सदस्य की भक्ति के कारण ही बीते 199 वर्ष से मंदिर को भक्त के नाम से ही पहचाना जाता है.
कैसे सतारा से ग्वालियर पहुंची मां और क्यों मांढरे की माता कहलाईं?
मांढरे की माता मंदिर अष्टभुजा महिषासुर मर्दिनी रूपी माता की इस अद्भुत तेज वाली दिव्य देवी प्रतिमा के ग्वालियर पहुंचने की कहानी बड़ी ही रोमांचक है. ये बात लगभग 196 साल पुरानी है, महाराष्ट्र की सतारा रियासत के मांढर गांव में इन माता का एक प्राचीन मंदिर था. इस मंदिर की पूजा आनंद राव मांढरे करते थे. सिंधिया राज परिवार मूलतः सतारा का ही रहने वाला है. उस वक्त ग्वालियर के महाराज जयाजीराव सिंधिया अपनी सेना में अफसरों को भर्ती करने के सिलसिले में महाराष्ट्र गए. वहां से वह आनंद राव मांढरे को अपने साथ महल में ले आए और सेना में महत्वपूर्ण जिम्मेदारी सौंप दी, उन्हें कर्नल का ओहदा सौंपा, जो सेनापति के ही समकक्ष था.
यह बात आनंद राव मांढरे ने महाराज को बताई. महाराज भी बड़े धार्मिक व्यक्ति थे, सो उन्होंने इस बात को गंभीरता से लिया. इसके बाद मांढरे की माता को सतारा गांव से ससम्मान ग्वालियर शहर लाने और यहां भव्य मंदिर में इनकी प्राण प्रतिष्ठा करने की योजना बनाई गई. इसी के साथ मंदिर के लिए जमीन की तलाश हुई और अंतत: महाराज को कम्पू पहाड़ी पर मंदिर के लिए जगह मिल गई. इसे अभी कैंसर पहाड़ी कहा जाता है. इसके बाद संवत 2030 में महाराज द्वारा मांढर गांव से लाकर इस मंदिर में अष्टभुजा वाली महिषासुद मर्दिनी मां महाकाली की प्रतिमा को समारोह पूर्वक स्थापित किया गया.
महल से प्रतिदिन महाराज करते थे दर्शन
बताया जाता है कि इस मंदिर के लगभग आधा किलोमीटर दूर स्थित सिंधिया राज परिवार के शाही जय विलास पैलेस में महाराज ने माता के दर्शन करने के लिए अपने महल में एक खास झरोखा भी तैयार किया कि जिससे वह माता के प्रतिदिन दर्शन कर सकें. यहां से महाराज सपरिवार अपनी कुलदेवी के दर्शन किया करते थे.
सेनापति ही बने पुजारी
जयाजीराव सिंधिया ने आंनद राव मांढरे को उनकी इच्छा के मुताबिक सेना अधिकारियों की जिम्मेदारियों से मुक्त करके मांढरे की माता के मंदिर का पुजारी का जिम्मा सौंपा दिया. उनके भरण पोषण और मंदिर की देखरेख के लिए मंदिर के नाम जमीन भी कर दी गई. मांढरे परिवार तभी से इस मंदिर में माता की सेवा में जुटा हुआ है. आनंद राव मांढरे के बाद उनके पुत्र रामराव मांढरे, अमृत राव मांढरे, बाबू राव मांढरे, मनीष राव मांढरे और वर्तमान में अशोक राव मांढरे और यशवंत राव मांढरे द्वारा माता की पूजा की जा रही है.
हर दशहरे पर सिंधिया करते हैं शमी का पूजन
मंदिर के पुजारी मांढरे परिवार यशवंत राव मांढरे बताते हैं कि मन्दिर के समीप शमी के वृक्ष का प्राचीन काल से सिंधिया राजवंश दशहरे के दिन पूजन किया करता है. आज भी हर वर्ष पारंपरिक परिधान पहनकर कर सिंधिया राजवंश के पुरुष सदस्य ज्योतिरादित्य सिंधिया अपने बेटे महान आर्यमन सरदारों के साथ यहां दशहरे पर पहले कुलदेवी की पूजा करने और शाम को परंपरागत शमी का पूजन करने आते हैं.
हर मनोकामना होती है पूरी
अंचल में इस मंदिर पर पूजा करने की बड़ी मान्यता है. भक्तों को विश्वास है कि यहां जो भी श्रद्धालु मन्नत लेकर पहुंचता है, मां उसकी हर मनोकामना को पूर्ण करती है. चैत्र व क्वार के नवरात्रि महोत्सव में यहां हजारों की संख्या में श्रद्धालु पहुंचते हैं.
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