
Burning of stubble News: पराली जलाने के मामले में मध्य प्रदेश देश में पहले से नंबर वन है अब यहां मिट्टी की उपजाऊ ताकत भी तेजी से कम हो रही है. आलम ये है कि कई जगहों पर मिट्टी की उर्वरा शक्ति 44% तक घट चुकी है. इस बात की तस्दीक खुद कृषि मंत्रालय की रिपोर्ट कर रही है. इसी के मद्देनजर अब सरकार ने सख्ती की है. मोहन यादव सरकार ने राज्य में 1 मई से नया नियम लागू किया है. जिसके मुताबिक नरवाई जलाई तो सीएम किसान कल्याण योजना का लाभ नहीं मिलेगा और साथ ही साथ ऐसे किसानों से फसल भी नहीं खरीदी जाएगी. जाहिर है धरती हमारी मां है और जाने-अनजाने में हम अपनी मां की कोख पर ही प्रहार कर रहे हैं.
"जानते हैं प्रदूषण होता है पर मजबूर हैं"
बात को आगे बढ़ाने से पहले एक केस स्टडी को समझ लेते हैं.नर्मदापुरम जिले में केसला गांव के राजेश काजले के पास 1 एकड़ की छोटी सी जोत है. वे बताते हैं कि धान की पराली जलाना उनकी मजबूरी है. वे खुद बताते हैं कि कई बार पराली की वजह से मवेशी भी जल जाते हैं लेकिन उनके पास दूसरा कोई तरीका नहीं है.

राजेश काजले, किसान, केसला गांव: ये जानते हैं कि पराली जलाने से नुकसान हैं लेकिन इनके पास कोई दूसरा तरीका नहीं है
राजेश काजले बताते हैं कि पराली जलाने से प्रदूषण होता है तो हमें भी परेशानी होती है. हार्वेस्टर वाले आते हैं तो फिर वे नीचे से नहीं काटते हैं. पहले हम हाथ से काटते थे तो कम प्रदूषण होता था. उनका कहना है कि किसान भी जानते हैं ये हानिकारक है, तभी तो हमारे पुरखे ऐसा नहीं करते थे. देखा जाए तो अब सिर्फ़ किसान ही नहीं विज्ञान भी कह रहा है — पराली जलाना, मिट्टी की आत्मा को जलाना है. कंसोर्टियम फॉर रिसर्च ऑन एग्रोइकोसिस्टम मॉनीटरिंग एंड मॉडलिंग फ्राम स्पेस की रिपोर्ट के मुताबिक

जाहिर है राज्य में ढेरों ऐसे किसान हैं जो लगातार खेतों में पराली जला रहे हैं लेकिन अब 1 मई से नया नियम लागू हो गया है. यदि कोई किसान अपने खेत में नरवाई जलाता है तो फिर उसे मुख्यमंत्री किसान कल्याण योजना का लाभ नहीं दिया जाएगा. इतना ही नहीं अगले साल से ऐसे किसानों से न्यूनतम समर्थन मूल्य पर फसल उपार्जन भी नहीं होगा. हालांकि फैसला लागू होने के बाद भी पराली जलाने के सबसे ज्यादा मामले मध्यप्रदेश से ही आ रहे हैं.

हालांकि इस स्याह पक्ष के बीच एक सफेद पक्ष भी है. अपनी रिपोर्ट की रिसर्च के दौरान हमें मध्यप्रदेश के आदिवासी बहुल जिलों के तीन अलग-अलग किसान भी मिले. वे लोग अपने खेतों में पराली नहीं जलाते. उनसे बात करिए तो वे पराली जलाने का विकल्प भी बताते हैं. ऐसी ही एक किसान हैं ज्योति अहाके. वे बैतूल ज़िले के मल्हारापंखा गांव में रहती हैं. वे बच्चों को लेकर खेत से निकल रही थीं तो हमने बातचीत शुरू कर दी. वे बताती हैं कि हम पराली नहीं जलाते. इसके जलाने से प्रदूषण तो होता ही है साथ ही साथ चारे की भी कमी होती है. ज्योति के पास ज्यादा जमीन नहीं है वो 4-5 एकड़ में ही पारंपरिक तरीके से खेती करती हैं. वे बताती हैं कि उनके यहां के किसान पराली नहीं जलाते.
पराली जलाने के अलावा कई विकल्प हैं
इसी तरह हमें पांढुर्णा गांव के कई घरों के बाहर जानवरों का चारा रखा मिला. यहां खेतों में काम कर रहे कैलाश पराडकर बताते हैं कि हम पराली का इस्तेमाल जानवरों के चारा के तौर पर करते हैं. वे इस बात दृढ़ संकल्पित दिखे कि पराली नहीं जलाना चाहिये इससे पर्यावरण को नुकसान होता है. जो भी चारा निकलता है उसे जानवरों को खिलाना चाहिये.इसी तरह से हथनापुर के रहने वाले कुंवरलाल अपने 3 एकड़ खेत में सोयाबीन-मक्का उगाते हैं. उनके पास 7 लोगों का परिवार है और वो खेती के अलावा मजदूरी भी करते हैं. वे भी अपने खेतों में पराली नहीं जलाते. वे बताते हैं कि पराली को पशुओं के चारे के रूप में, खाद बनाने के लिए, ऊर्जा उत्पादन, मिट्टी की दीवार बनाने में और मिट्टी की उर्वरता बढ़ाने के लिए भी किया जाना चाहिए.
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