Gurunanak Jayanti 2023 : गुरु गोविंद सिंह (Guru Gobind Singh) के द्वारे सजाए गए 'पंज प्यारे' (Panj Pyarey) जो धर्म की रक्षा के लिए गुरु के एक आवाज पर अपना शीश कटाने को तैयार हो गए, अपने धर्म की रक्षा के लिए जिन्होंने अपने आपको वार दिया ऐसे थे वो वीर गुरु के प्यारे 'पंज प्यारे '. सिखों के दसवें गुरु गोविंद सिंह जी ने 1699 में बैसाखी के दिन खालसा पंथ की स्थापना की और खालसा पंथ के पांच ऐसे वीर जो पहले तो अलग-अलग जाति के थे उन्हें 'सिंह' की उपाधि देकर सिख बनाया इसके साथ ही उन्हें भाई की उपाधि भी दी गई. वह 'पंच प्यारे' भाई दया सिंह, भाई धर्म सिंह ,भाई हिम्मत सिंह, भाई मोहकम सिंह और भाई साहब सिंह के नाम से जाने जाते हैं. नगर कीर्तन के दौरान गुरु ग्रंथ साहिब की पालकी के आगे इन 'पांच प्यारों' को जगह दी जाती है.
कैसे बने ये गुरु के पंज प्यारे ?
यह बात सन 1699 की है जब केशगढ़, आनंदपुर साहिब में चारों तरफ बैसाखी की तैयारी चल रही थी. वहीं बैसाखी से एक या दो दिन पहले सिखों के दसवें गुरु गोविंद सिंह जी ने अपने अनुयायियों को बैसाखी पर एक खास दीवान सजाने का आदेश दिया. गुरु गोविंद सिंह जी ने कहा मेरी प्यारी संगत तक यह संदेश पहुंचा दिया जाए कि मैं उनसे कुछ खास बात करना चाहता हूं. उनकी संगतों में यह बात जानने की उत्सुकता पैदा हो गई कि गुरु साहब हमसे क्या बात करना चाहते हैं . देखते ही देखते बैसाखी के दिन केशगढ़ साहिब में संगतों की बड़ी संख्या गुरु साहिब के दर्शन पाने के लिए एक जगह पर एकत्रित हो गई, सभी के मन में यह सवाल भी था कि आखिरकार ऐसी कौन सी बात है जो गुरु साहिब ने इतने बड़े समारोह का आयोजन किया है?
कुछ देर बाद गुरु गोविंद सिंह जी एक तंबू से निकलकर बाहर आए और उन्हें अपनी इतनी बड़ी संगत को देखकर बहुत खुशी हुई. गुरु साहिब सांगतों की तरफ आगे बढ़ म्यान में से तलवार निकाली और मंच के बीचो-बीच जाकर बैसाखी की शुभकामनाएं देते हुए बोले मेरी संगत मेरे लिए सबसे प्यारी है, मेरी ताकत है, मेरा सब कुछ है लेकिन क्या आप सब में से ऐसा भी कोई है जो अभी इसी वक्त मेरे लिए अपना शीश कलम करवाने की ताकत रखता हो?
गुरु साहिब दयाराम की समर्पण भावना को देखकर खुश हुए और उसे अपने पास बुलाया और अपने साथ तंबू के अंदर लेकर चले गए. बाहर लोगों की धड़कनें तेज हो गई थोड़ी देर बाद गुरुजी बाहर आए लेकिन उनके साथ दयाराम नहीं था, और उनके हाथ में जो तलवार था उससे ताजा खून की बूंदें टपक रही थीं.
गुरुजी की दूसरी आवाज पर धर्मदास आगे बढ़े और उनके साथ भी यही प्रक्रिया पूरी हुई. गुरु जी के तीसरे शीश की मांग पर मोहकम चंद जो की एक साधारण दर्जी थे और द्वारका के निवासी थे. वह खड़े हुए इसके बाद चौथे और पांचवें शीश की मांग पर हिम्मत राय और साहिबचंद सामने आए और उन्होंने खुशी-खुशी अपने शीश गुरु को अर्पित करने की हामी भर दी.
गुरु गोविंद सिंह जी ने अपने हाथ में एक लोहे का कटोरा लिया जिसमें साफ पानी और कुछ पतासे डालें उसे घोलकर मीठा अमृत तैयार किया. फिर उस अमृत को 'पंज प्यारों' को बारी-बारी से पिलाया जिसे खालसा पंथ में अमृत छकना कहा जाता हैं. जिसके बाद उन्हें खालसा पंथ के' पंज प्यारे' के नाम से जाना जाने लगा.