
CG Child Adoption Rules: छत्तीसगढ़ सरकार ने बड़ा कदम उठाते हुए दत्तक पुत्र अधिनियम में बड़ा बदलाव किया है. नए बदलाव के तहत अब दस्तावेजों में दत्तक पुत्र की जगह दत्तक संतान शब्द का उपयोग किया जाएगा. छत्तीसगढ़ सरकार के इस निर्णय को लैंगिक समानता और सामाजिक सुधार की दिशा में बड़ा कदम माना जा रहा है. छत्तीसगढ़ सरकार के इस बदलाव को सामाजिक सुधार व महिला सशक्तिकरण के लिए काम करने वाले लोग सराह रहे हैं. मसलन सामाजिक कार्यकर्ता वी पोलम्मा और विभा सिंह ने सरकार के इस कदम को परिवर्तनकारी करार दिया है. सरकार ने ये कदम क्यों उठाया और राज्य में इसकी जरूरत क्यों थी इस पर बात करने से पहले ये जान लेते हैं कि राज्य में संतान गोद लेने की स्थिति क्या है?

तीजनबाई और फूलबासन बाई हैं बड़े उदाहरण
जरा पीछे मुड़ कर देखें तो राज्य में पद्मविभूषण तीजन बाई और पद्मश्री फूलबासन बाई काफी पहले से ही पुरुषवादी सोच वाले समाज में महिलाओं को बराबरी का दर्जा दिलाने की दिशा में काम कर रहे हैं. सबसे पहले बात तीजन बाई की...दुर्ग जिले की रहने वाली तीजन बाई ने साल 1969 में 13 वर्ष की उम्र में जब पहली बार महाभारत की कहानियों का मंच प्रदर्शन किया तो देखने वाले हैरान रह गए. तब मंचों पर पंडवानी के प्रस्तुतिकरण की अपनी अघोषित परंपरा थी. महिला पंडवानी गायिकाएं केवल बैठकर गा सकती थीं, जिसे वेदमती शैली कहा जाता है.
इसी तरह से राजनांदगांव जिले के एक छोटे से गांव सुकुलदैहान की रहने वाली फूलबासन बाई यादव ने छोटी सी उम्र में शादी के बाद गरीबी करीब से देखी. समाज में महिलाओं की स्थिति बदलने की इच्छा हुई और कुछ महिलाओं को एकत्रित कर कर दो मुट्ठी चावल और 2 रुपये एकत्रित कर स्व सहायता समूह की स्थापना कीं. महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने की व्यवस्था करवाने वाली फूलबासन की मां बम्लेश्वरी स्व सहायता समूह में 8 लाख से अधिक महिलाएं जुड़ गई हैं. इनकी देखरेख में प्रदेशभर में 14000 से अधिक स्व सहायता समूह संचालित हो रहे हैं.
1908 में बना था अधिनियम
देखा जाए तो तीजन, फूलबासन की तरह ही अनगिनत ऐसी महिलाओं ने कई मोर्चों पर साबित किया कि वे पुरुषों से कम नहीं हैं. इसी दौरान सरकारी नारों में तो बराबरी दिखी पर सरकारी कागजों में नहीं . अब राज्य के वित्त मंत्री ओपी चौधरी के मुताबिक साल 1908 के इस अधिनियम में गोदनामा के लिए, एडॉप्शन के लिए या दत्तक के लिए केवल पुत्र का जिक्र था, पुत्री शब्द का जिक्र नहीं था. इसमें एक तरह की मानसिकता दिखाई देती थी कि उस समय यानी 1908 के दौर में पुत्री को गोद लेने का कोई चलन नहीं था. उन्होंने बताया कि अब हमने समाजिक सुधार, जेंडर इक्वेलिटी और महिलाओं के सम्मान की दृष्टि से ये बड़ा बदलाव किया है.
कई मोर्चों पर है सुधार की जरुरत
दत्तक पुत्र की जगह अधिनियम में दत्तक संतान कर छत्तीसगढ़ सरकार ने सामाजिक सुधार की दिशा में बड़ा काम जरूर किया है, लेकिन आज भी कई ऐसी प्रक्रियाएं हैं, जिसमें पुरुषवादी मानसिकता को ही बढ़ावा दे रही हैं, मसलन सरकारी-गैर सरकारी किसी भी आवेदन या शपथ पत्रों में करता/करती हूं, यानी कि स्त्री से पहले पुरुष को प्राथमिकता, बोलचाल में बेटी, को ये मेरा बेटा कहना, ऐसे तमाम उदहरण हैं जो बताते हैं कि लिंग समानता के लिए समाज में हर स्तर पर अब भी बहुत कुछ बदलने की जरूरत है.
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