
Village in Kabirdham: कबीरधाम जिले में एक ऐसा गांव है जहां आजादी के 75 साल बाद भी लोगों को बिजली, पानी और सड़क की सुविधा नहीं मिल पा रही है. इस गांव ने सरकार के तमाम दावों की पोल खोल कर रख दी है. गांव के लोग आज भी मूलभूत सुविधाओं को तरस रहे हैं और सुविधाओं के अभाव के बीच अपना जीवन जी रहे हैं. यह सच्चाई है कबीरधाम जिले के घोर नक्सल प्रभावित सौरू गांव की.
राष्ट्रपति के दत्तक पुत्र हैं गांव के लोग
कबीरधाम जिला मुख्यालय से करीब 30 किलोमीटर दूर सौरू नाम का एक गांव पड़ता है जो बोड़ला ब्लॉक के पंडरीपानी ग्राम पंचायत में आता है. यहां 33 बैगा परिवार रहते हैं जिनकी जनसंख्या 206 है. ये कई दशक से यहां निवास कर रहे हैं. भारतीय संविधान के अनुच्छेद 342 के तहत विशेष पिछड़ी जनजाति के बैगा समुदाय के लोगों को राष्ट्रपति के दत्तक पुत्र का दर्जा दिया गया है और इन्हें संरक्षित करने की कई योजनाएं भी संचालित हैं. लेकिन इस गांव में रहने वाले बैगा समुदाय को शासन से मिलने वाली उन तमाम योजनाओं का लाभ नहीं मिल पा रहा है और आज भी ये लोग गरीबी व बेबसी का जीवन जी रहे हैं.

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नक्सल प्रभावित है सौरू गांव
पुलिस रिकॉर्ड और शासन की नजर में यह गांव नक्सल प्रभावित है और जंगल के बीच में स्थित है. गांव का एक छोर भोरमदेव अभ्यारण्य के कोर एरिया में आता है और दूसरा छोर घने जंगल से लगा हुआ है. गांव तक पहुंचने के लिए पक्की सड़क नहीं है. नाले और घने जंगल को पार करके गांव जाना पड़ता है.
नाले और झिरिया का पानी पीने को मजबूर
सौरू गांव में रहने वाले आंगनबाड़ी कार्यकर्ता के पति छोटे सिंह और बिराजो बाई बैगा बताते हैं कि गांव में मात्र एक पानी का स्रोत बोर है जो सौर ऊर्जा से चलता है. जिस दिन सौर ऊर्जा नहीं चलती, खास कर बरसात के दिनों में, उस दिन लोगों को जंगल के नाले और झिरिया से पानी पीना पड़ता है जिसके चलते तबियत भी खराब हो जाती है. गांव में बिजली का साधन भी नहीं है. ग्रामीणों को सौर ऊर्जा प्लेट के माध्यम से बिजली मिलती है और वह भी कुछ समय के लिए.

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पक्के आवास और उज्ज्वला योजना का नहीं मिला लाभ
गांव में 33 बैगा परिवार दशकों से निवास कर रहे हैं. गांव के कुछ ही व्यक्तियों को पक्के आवास का लाभ मिला है जिसमें कई आवास आज भी अधूरे पड़े हैं. ज्यादातर परिवार मिट्टी की कच्ची झोपड़ी में जीवन काट रहे हैं. देशभर में लोगों को उज्ज्वला योजना का लाभ मिल रहा है लेकिन यहां रहने वाले लोग आज भी जंगल की लकड़ी से खाना बनाते हैं. उन्हें चाहकर भी गैस सिलेंडर का लाभ नहीं मिल पा रहा है. गांव के लोग रोजगार चाह रहे हैं लेकिन पंचायत रोजगार नहीं दिला पा रही है.