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This Article is From Nov 03, 2023

सियासी किस्से: 'मिस्टर बंटाधार' नहीं हैं Digvijaya Singh!

राधोगढ़ के राजा साहब यानी दिग्विजय सिंह 1970 से चुनावी मैदान में हैं. वे विपरीत परिस्थितियों में भी 10 सालों तक मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री रहे लेकिन उसके बाद ऐसा क्या हुआ कि कांग्रेस 15 सालों तक सूबे की सत्ता से बाहर रही. दिग्विजय करीब आधी सदी की सियासी पारी खेल चुके हैं जिसमें कई उतार-चढ़ाव रहे हैं. जानिए सियासी किस्से में दिग्विजय की कहानी

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Madhya Pradesh Assembly Election: मध्यप्रदेश की जनता अपने नए रहनुमाओं को चुनने के लिए 17 नवंबर को EVM का बटन दबा देगी. ऐसे में जनता-जर्नादन के लिए अपने इन माननीयों का अगला-पिछला जानना जरूरी हो जाता है. इसी जरूरत के मद्देनजर NDTV ने शुरू की है सियासी किस्से की सीरीज. इस सीरीज में आप अब तक शिवराज सिंह चौहान और कमलनाथ (Shivraj Singh Chauhan and Kamal Nath) की जिंदगी में करीब से झांक चुके हैं. अब बारी है कि  एक और दिग्गज नेता की. एक ऐसा नेता जो राज्य की सत्ता में हो या न हो...चर्चा में सबसे ज्यादा वही रहता है.वो नेता जब चुनाव हारा तो उसकी पार्टी 15 सालों तक सत्ता से बाहर रही.अहम ये भी है कि उसने खुद अपने लिए 10 सालों का चुनावी वनवास चुना था. आप तो समझ ही गए होंगे कि हम किस दिग्गज की बात कर रहे हैं..फिर भी रवायत के मुताबिक आपको नाम बता देते हैं कि हम बात कर रहे हैं दिग्विजय सिंह (Digvijay singh) की. राज्य और देश की सियासत में वे दिग्गी राजा के नाम से भी  जाने जाते हैं...नमस्कार मैं हूं रविकांत ओझा और शुरू करते हैं सियासी किस्से की अगली कड़ी का सफर

वाक्या दिसंबर 1993 का है...तब ठंड का मौसम था लेकिन भोपाल से लेकर दिल्ली तक सियासी गर्मी फैली हुई थी. मौका ही ऐसा था क्योंकि 320 सीटों वाले तत्कालीन मध्य प्रदेश में कांग्रेस को 174 सीटों पर सफलता मिली थी.यह वह दौर था जब प्रदेश कांग्रेस में दिग्गजों की भरमार थी, ऐसे दिग्गज जिनका मध्य प्रदेश में ही नहीं बल्कि केंद्रीय राजनीति में भी रसूख होता था. तब प्रदेश कांग्रेस में  अर्जुन सिंह, श्यामाचरण शुक्ल, माधवराव सिंधिया, सुभाष यादव, कमलनाथ, विद्याचरण शुक्ल और मोतीलाल वोरा (Arjun Singh, Shyama Charan Shukla, Madhavrao Scindia, Subhash Yadav, Kamal Nath, Vidya Charan Shukla and Motilal Vora.) जैसे बड़े नाम मौजूद थे.

कांग्रेस की सरकार बनने के मद्देनजर ये सभी दिग्गज अपनी-अपनी गोटी सेट करने में जुट गए थे. अंतिम रेस में दो नाम रह गए. माधव राव सिंधिया और सुभाष यादव. तब सिंधिया को तो अपनी दावेदारी इतनी पुख्ता लग रही थी कि उन्होंने दिल्‍ली एयरपोर्ट पर एक प्‍लेन ही रिजर्व में रख लिया. कहा गया कि मंत्री जी कभी भी सीएम पद की शपथ लेने के लिए भोपाल की उड़ान भर सकते हैं. लेकिन अंत में ताजपोशी हुई दिग्विजय सिंह की क्योंकि उनके राजनीतिक गुरु अर्जुन सिंह (Arjun Singh) चाहते थे कि मध्यप्रदेश में उनके खेमे का ही कोई सत्तासीन हो. 

‘राजनीतिनामा-मध्य प्रदेश' पुस्तक के लेखक वरिष्ठ पत्रकार दीपक तिवारी की किताब को पढ़ें तो उस दौर का दिलचस्प वाक्या सामने आता है. चुनाव परिणाम आने के बाद कमलनाथ भोपाल में मौजूद थे. विधायक दल की बैठक में अगले नेता का चुनाव होना था. पर्यवेक्षक के तौर पर दिल्ली ने जनार्दन रेड्डी, विलासराव मुत्तेमवार और आर के धवन को भेजा था. फैसला वोटिंग से हुआ तो श्यामाचरण शुक्ल को 56 वोट और दिग्विजय को मिले 103 वोट. ये परिणाम इसलिए चौंकाता है क्योंकि श्यामाचरण शुक्ल राज्य के तीन बार के मुख्यमंत्री रह चुके थे लेकिन अर्जुन सिंह की वजह से अधिकांश विधायकों ने दिग्गी राजा को समर्थन दे दिया. बहरहाल नतीजों के बाद कमलनाथ ने दिल्ली फोन लगाया..प्रधानमंत्री नरसिंह राव जो तब कांग्रेस अध्यक्ष भी थे उन्होंने फोन पर सिर्फ इतना कहा- दिग्विजय सिंह. इसके बाद तो अगले 10 सालों तक दिग्विजय की कुर्सी को कोई भी तूफान नहीं हिला सका. 

ये तो किस्सा था दिग्विजय के पहली बार मुख्यमंत्री बनने का, लेकिन दिग्गी राजा का सियासी जीवन शुरू होता है 1970 से .तब महज 22 साल की छोटी उम्र में वे राधोगढ़ नगर परिषद् के सर्वसम्मति से निर्वाचित अध्यक्ष बने थे. इसके बाद 1977 में राधोगढ़ से बतौर कांग्रेस उम्मीदवार उन्होंने पहली बार विधायकी का चुनाव जीता. ये गुना जिले की वो सीट थी जहां से उनके पिता राजा बलभद्र सिंह हिंदू महासभा के समर्थन से निदर्लीय सांसद चुने गए थे लेकिन दिग्विजय ने जब सियासत शुरू की तो कांग्रेस का ही दामन थामा क्योंकि उनके पिता बलभद्र की दोस्ती तब के दिग्गज कांग्रेस गोविंद नारायण से थी. ये इसलिए भी अहम है क्योंकि राधोगढ़ विधानसभा गुना संसदीय सीट के तहत आती थी और वहां से सांसद थीं- राजमाता विजयाराजे सिंधिया. उन्होंने दिग्विजय को जनसंघ में आने का न्योता दिया था. उन्हें लगा राघोगढ़ रियासत ग्वालियर राज्य के अधीन रहा है तो दिग्विजय उनके प्रस्ताव को मान जाएंगे लेकिन ऐसा हुआ नहीं. दिग्गी राजा अपने 'अन्नदाता' के दरबार में जाकर सिर्फ वफादार नहीं बना रहना चाहते थे. वे अपनी अलग पहचान बनाए रखना चाहते थे. इसी सोच से वे कांग्रेस में सफलता की सीढ़ियां चढ़ते गए.

वैसे अभी मैंने 'अन्नदाता' शब्द का व्यवहार किया..तो इसके पीछे भी कहानी है. ये कहानी जाननी इसलिए भी जरूरी है क्योंकि इसकी वजह से सूबे की सियासत में कई बार बड़े बदलाव हुए हैं. ये वाक्या दो सदी से भी ज्यादा पुराना है. साल 1816 की बात है. ग्वालियर के महाराज  दौलतराव सिंधिया अपने राज्य के विस्तार में लगे थे.

इसी मुहिम के तहत उन्होंने राघोगढ़ के राजा जयसिंह को युद्ध में हरा दिया. इसके बाद से ही राघोगढ़ को ग्वालियर राज के अधीन होना पड़ा था. महाराज दौलतराव ने राधोगढ़ को अपने राज्य की एक जागीर बना दी और दिग्विजय के पूर्वजों को राजस्व वसूलने का काम सौंप दिया. तात्कालिन परंपरा के मुताबिक एक जागीरदार को अपने महाराज को अन्नदाता कहकर संबोधित करना पड़ता था.

लेकिन दिग्विजय इसके लिए तैयार नहीं थे...तभी तो पहले राजमाता सिंधिया, फिर माधवराव सिंधिया और अब ज्योतिरादित्य सिंधिया तक राधोगढ़ और ग्वालियर किले की अदावत गाहे-बगाहे सामने आ ही जाती है. जब 1993 में माधवराव सिंधिया मुख्यमंत्री बनने से चूक गए तो लोगों ने ये कहा था- राधोगढ़ ने अपना बदला ले लिया. इसके बाद जब ज्योतिरादित्य की जगह कमलनाथ मध्यप्रदेश की मुख्यमंत्री बने तब भी दो सौ साल पहले हुए इस युद्ध की चर्चा हुई थी. सियासी गलियारों में ये भी चर्चा रहती है कि दिग्विजय ही वे शख्स थे जिनकी वजह से ज्योतिरादित्य ने कांग्रेस का हाथ छोड़ दिया. 

बहरहाल दिग्विजय का सियासी सफर आगे बढ़ता रहा. हमने अब तक ये जान लिया कि वे पहली बार मुख्यमंत्री कैसे बने. अब उनकी दूसरी पारी की कहानी भी जान लेते है जो बताता है कि दिग्विजय सियासत के कितने मंझे खिलाड़ी रहे हैं. वाक्या 12 जनवरी 1998 का है. बैतूल के मुलताई तहसील के दफ्तर के बाहर किसान जुटते हैं. वे अपनी खराब हो चुकी फसल का मुआवजा मांग रहे होते हैं. मामला बिगड़ जाता है और पुलिस को फायरिंग करनी पड़ती है. इस गोलीकांड में 19 लाशें गिरती हैं. मध्यप्रदेश के इतिहास में इसे मुलताई गोलीकांड के तौर पर जाना जाता है. तब मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ही थे. ऐसा लगा दिग्विजय का दूसरी बार CM बनना मुश्किल होगा. लेकिन हुआ इसके उल्टा..

.दरअसल नवंबर 1998 में फिर मध्य प्रदेश में विधानसभा चुनाव हुए थे. तब कांग्रेस की अध्यक्ष रही सोनिया ने उन्हें फ्री हैंड दिया. दिग्विजय ने बड़े पैमाने पर सिटिंग विधायकों के टिकट काटे और जब नतीजे आए तो वह सही साबित हुए.

अरसे बाद किसी उत्तर भारतीय राज्य में कांग्रेस ने सत्ता सुरक्षित रखी. 320 सीटों में कांग्रेस को हासिल हुईं 172 सीटें. 1993 के मुकाबले सिर्फ 2 सीट कम. दिग्विजय फिर मुख्यमंत्री बन गए. ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर ऐसा क्या था राघोगढ़ के राजा की सियासत में, कि जब पूरे उत्तर भारत में कांग्रेस सिकुड़ रही थी वो मध्यप्रदेश में जमे हुए थे. 

ऐसा इसलिए था कि दिग्विजय हवा के रूख को पहचानते थे. कैलेंडर में तारीखें बदलती तो दिग्विजय भी अपने राजनीतिक आकाओं को बदल लेते थे. जब वे पहली बार CM बने तो नरसिंह राव कांग्रेस अध्यक्ष थे. दिग्विजय डेढ़ साल में ही उनके करीबियों में शुमार हो गए. इसके बाद जब सीताराम केसरी के हाथों पार्टी की कमान आई तो दिग्गी उनकी भी टीम में शामल हो गए. जब सोनिया गांधी कांग्रेस अध्यक्षा बनीं तो वे तब भी प्रासंगिक बने रहे.दिग्विजय की खासियत रही है कि वे राज्य में अपने वफादारों का पूरा कैडर ही तैयार कर लेते थे. वे विपक्ष को भ्रम में रखते. कभी सुंदरलाल पटवा के घर पहुंच जाते, कभी विक्रम वर्मा को सार्वजनिक रूप से बधाई देते. और तो और मौजूदा CM शिवराज सिंह चौहान को जब भोपाल में एक बंगला चाहिए था तो दिग्विजय ने ही उनकी मुराद पूरी की थी. तब भोपाल से लेकर दिल्ली तक दिग्गी राजा की गोटियां एकदम फीट बैठती थीं.  

लेकिन इसी दौरान उनसे बड़ी गलती हो गई.  दूसरी पारी में उन्होंने वो कर दिया जिसके लिए अब कई बार उनकी खिंचाई होती है. वो है उनका बड़बोलापन. उनकी तीसरी पारी शुरू होती इससे पहले उन्होंने बयान दिया-चुनाव सड़कें बनवाकर नहीं जीते जाते. चुनाव जीते जाते हैं राजनीतिक प्रबंधन से. वे इसी खुशफहमी में थे और बीजेपी सूबे में खस्ताहाल सड़कों, बिजली की कमी और सरकारी कर्मचारियों का मुद्दा बनाने में सफल रही है.

दिग्विजय को लग रहा था कि ये बिपासा यानी बिजली, सड़क, पानी का मुद्दा सिर्फ बीजेपी के कार्यकर्ताओं के बीच है. इसीलिए तो रिजल्ट आने से एक दिन पहले एक टीवी डिस्कशन में उन्होंने बोल दिया- यदि कांग्रेस ये चुनाव हार गई तो मैं दस सालों तक कोई चुनाव नहीं लड़ूंगा और न ही राज्य की सियासत में कोई पद लूंगा.

नतीजा आया और कांग्रेस ने 230 सीटों में से महज 38 सीटों पर जीत दर्ज की.   

दिग्विजय ने जनता के फैसले को स्वीकार किया और केन्द्र की सियासत में चले गए. जहां उनकी पारी को कहीं से भी कमजोर नहीं आंका जा सकता. यूपीए सरकार जब भी मुश्किल में होती तो दिग्विजय कोई न कोई ऐसा बयान दे डालते जिससे पूरे देश का ध्यान भटक जाता. विपक्षी उनके बयानों को लपकते और दूसरी तरफ सरकार को असल मुद्दों पर वक्त मिल जाता है. लादेन और बटला हाउस पर उनके बयान आज भी लोगों के जेहन में हैं. ये दिग्विजय की काबिलियत ही है कि पार्टी ने उन्हें  ओडिशा,उत्तराखंड,बिहार,उत्तर प्रदेश,असम,कर्नाटक,आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और गोवा में पार्टी का प्रभारी बनाया. कई बार ये भी कहा जाता है कि वे राहुल गांधी के राजनीतिक गुरु हैं. दिग्विजय की आप आलोचना कर सकते हैं लेकिन सच ये है कि मध्यप्रदेश के हर विधानसभा के कांग्रेस कार्यकर्ता उनसे जुड़े हुए हैं. वे जमीनी नेता हैं. धुन के इतने पक्के की इस उम्र में भी पश्चिम की ओर बहने वाली सबसे लंबी नदी नर्मदा की 3 हजार 300 किलोमीटर की पैदल यात्रा कर लेते हैं. मेकनिकल इंजीनियर की डिग्री रखने वाले दिग्विजय की राजनीतिक इंजीनियरिंग का ही कमाल है कि इस आध्यात्मिक यात्रा में भी राजनीतिक जुटान खूब हुआ. खुद दिग्विजय अपनी शख्सियत से भली-भांति परिचित हैं तभी तो वे खुद कहते हैं- मैं पंचिग बैग हूं...लोग मुझे निशाना बनाते ही रहते हैं. 

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