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This Article is From Dec 15, 2023

बड़ी जीत भी काम न आई

Diwakar Muktibodh
  • विचार,
  • Updated:
    December 15, 2023 15:10 IST
    • Published On December 15, 2023 15:10 IST
    • Last Updated On December 15, 2023 15:10 IST

छत्तीसगढ़ में भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता बृजमोहन अग्रवाल इस बार भी न तो  मुख्यमंत्री चुने जा सकें और न ही डिप्टी सीएम का पद उन्हें नसीब हुआ, जबकि वे आशान्वित थे कि उनकी वरिष्ठता,आक्रामकता,पार्टी के प्रति अटूट निष्ठा व बेहतर रणनीतिकार होने के नाते उन्हें नया दायित्व मिलेगा, किंतु यह उनका दिवास्वप्न ही था जिसके हकीकत में तब्दील होने की कोई संभावना नहीं थी.अंततः ऐसा ही हुआ.दस दिसंबर को भाजपा विधायक दल की बैठक में कुनकुरी विधानसभा क्षेत्र से निर्वाचित विष्णु देव साय को विधायक दल का नेता चुन लिया गया. वर्ष 1989 से प्रारंभ विष्णु देव का राजनीतिक सफर बृजमोहन के मुकाबले अधिक प्रभावशाली है.आदिवासी समाज के प्रतिनिधि होने के साथ ही वे चार बार के सांसद, तीन कार्यकाल के विधायक, दो बार के प्रदेशाध्यक्ष तथा नरेंद्र मोदी सरकार में केन्द्रीय मंत्री रह चुके हैं. अ

तः भाजपा की परिवर्तनकारी राजनीति में मुख्यमंत्री के रूप में उनका चयन अप्रत्याशित अथवा अचंभित करने वाली घटना नहीं है. जैसा कि प्रमाणित है , प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी व गृहमंत्री अमित शाह की राजनीतिक जुगलबंदी राज्यों में नये नेतृत्व के मामले में कुछ ऐसा कर गुज़रती है कि आश्चर्य होता है लेकिन छत्तीसगढ़ में ऐसा कुछ नहीं हुआ.

अलबत्ता मध्यप्रदेश व राजस्थान में मुख्यमंत्री के रूप में उन नामों को चुन लिया गया जो चर्चा में नहीं थे और जिनके बारे में कल्पना भी नहीं की जा सकती थी कि वे राज्य सरकार के मुखिया बना दिये जाएंगे. दो डिप्टी सीएम के साथ मध्यप्रदेश में मोहन यादव व राजस्थान में भजनलाल शर्मा मुख्यमंत्री बनाए गए हैं.

बहरहाल यहां मुख्यतः चर्चा बृजमोहन अग्रवाल की है. रायपुर दक्षिण से 67,719 रिकॉर्ड मतों से विजयी हुए बृजमोहन लगातार आठवीं दफा विधानसभा में पहुंचे हैं. अविभाजित मध्यप्रदेश में वर्ष 1990-92 में सुंदर लाल पटवा मंत्रिमंडल में राज्य मंत्री स्वतंत्र प्रभार रहे बृजमोहन नये राज्य छत्तीसगढ़ में रमन सरकार के तीनों कार्यकाल में विभिन्न विभागों के मंत्री थे.उनकी प्रशासनिक क्षमता व कूटनीतिक समझ को इस तथ्य से समझा जा सकता है कि भाजपा शासन के दौरान जितने भी उपचुनाव हुए , पार्टी के संचालन की बागडोर बृजमोहन अग्रवाल को सौंपी गई जिसमें उन्होंने पार्टी के पक्ष में शत प्रतिशत नतीजे दिए. प्रगाढ़ राजनीतिक अनुभव के साथ-साथ यदि प्रदेश भर में लोगों के बीच जनप्रियता को कोई मापदंड मानें तो बृजमोहन प्रथम पंक्ति पर खड़े नज़र आते हैं.

वे रमन सरकार के ट्रबल शूटर रहे हैं. फिर भी उन्हें मंत्रिमंडल में नंबर दो की पोजिशन कभी नहीं मिली. उन्हें प्रतिस्पर्धी मानते हुए भरपूर उपेक्षा के साथ रमन सिंह दूर धकेलने की कोशिश करते रहे.

उन्होंने उनकी काट के रूप में राजेश मूणत को आगे बढ़ाया था. अघोषित रूप से सरकार में नंबर दो राजेश मूणत बन गए थे. फिर भी तमाम अवरोधों के बावजूद बृजमोहन प्रदेश की दलीय राजनीति में अपनी विशिष्ट पहचान बनाए रखने में कामयाब रहे हैं.

कह सकते हैं कि बृजमोहन भाजपा की आंतरिक राजनीति के शिकार हैं. उनकी प्रतिभा बहुतों को आतंकित करती है. इस वजह से उनका राजनीतिक करियर एक सीमा तक पहुंचने के बाद ठहर सा गया है. उनके संदर्भ में उस दौर को याद करें जब प्रदेश भाजपा को बनियों की पार्टी कहा जाता था. दिग्गज नेता स्वर्गीय लखीराम अग्रवाल के कार्यकाल में संगठन व सरकार में अग्रवालों का वर्चस्व था लिहाज़ा इस तथ्य ने भी बृजमोहन को आगे बढ़ने से रोक रखा था. खुद लखीराम अग्रवाल भी उनके खिलाफ थे. वर्ष 2000 के अंत में नेता प्रतिपक्ष के चयन के दौरान पार्टी कार्यालय के भीतर व बाहर बृजमोहन समर्थकों के हंगामे के संबंध में लखीराम अग्रवाल द्वारा हाई कमान को भेजी गई एक रिपोर्ट भी उनके खिलाफ रही है. तब इस रिपोर्ट ने उनका बड़ा नुकसान किया. चूंकि 2003 का चुनाव तत्कालीन प्रदेशाध्यक्ष रमन सिंह के नेतृत्व में लडा़ गया था अतः वे मुख्यमंत्री पद के स्वाभाविक दावेदार थे. फिर 2008 व 2013 के चुनाव में भी बृजमोहन के लिए कोई गुंजाइश नहीं थी.

रमन सिंह तीसरी बार मुख्यमंत्री बन गए. लेकिन उनके नेतृत्व में  2018 का चुनाव हारने के बाद संभावना बन गई थी कि यदि 2023 का चुनाव पार्टी जीत जाती है तो मुख्यमंत्री का पद खुला रहेगा और कोई भी इस पद पर चुना जा सकता है. बृजमोहन यही उम्मीद पाले हुए थे. इत्तेफाक से भाजपा को अप्रत्याशित जीत हासिल हो गई लेकिन इस बार भाजपा विधायक दल के नेता चयन के मामले में जातीय समीकरण आड़े आ गया.

भाजपा ने विधानसभा चुनाव हिंदुत्व की जमीन पर आदिवासियों, दलितों व पिछड़े वर्ग को रिझाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. मोदी की गारंटी का उपाय कारगर रहा तथा चुनाव में उसे जीत मिली. सोशल इंजीनियरिंग के इस फार्मूले से तय हो गया कि सरकार के मुखिया के तौर पर किसी आदिवासी अथवा पिछड़े वर्ग को मौका मिलेगा. कुछ नामों की मीडिया में चर्चा शुरू हो गई लेकिन बृजमोहन का नाम नहीं चला जबकि पूर्व मुख्यमंत्री रमन सिंह सहित एसटी, एससी व ओबीओ के करीब आधा दर्जन नाम उपर-नीचे होते रहे. बावजूद इसके बृजमोहन आशान्वित थे कि उनकी वरिष्ठता की कदर होगी तथा केबिनेट मंत्री से कोई ऊंचा पद उन्हें मिलेगा. पर डिप्टी सीएम भी उन्हें नहीं विजय शर्मा को बनाया गया जो सामान्य वर्ग से आते है. 

दरअसल भाजपा परिवर्तन के दौर से गुज़र रही है. परिवर्तन पीढ़ी के बदलाव के रूप में हैं. यानी पुरानों के स्थान पर नयी व युवा पीढ़ी को आगे लाया जा रहा है. छत्तीसगढ़ में मुख्य मंत्री विष्णु देव 59 के हैं, डिप्टी सीएम द्वय अरूण साव 55 एवं विजय शर्मा 50 के. विजय शर्मा तो सिर्फ एक बार के विधायक हैं. इस हिंदूवादी चेहरे ने कवर्धा में कांग्रेस के वरिष्ठ मंत्री मोहम्मद अकबर को हराया था. चेहरे की इस विशेषता ने उन्हें सीधे डिप्टी सीएम के पद पर पहुंचा दिया. जीते हुए विधायकों में भी अधिकांश अपेक्षाकृत युवा हैं.

इसलिए इस बात की संभावना है कि 2028 के राज्य विधानसभा चुनाव के निकट आते-आते रमन, बृजमोहन सहित अनेक वरिष्ठों को मुख्य धारा से बाहर कर दिया जाएगा.  इस स्थिति में बृजमोहन के लिए भविष्य में कोई विशेष संभावना नज़र नहीं आती. वैसे भी काफी पहले , 2018 के चुनाव के बाद उन्हें संगठन में भेजने की बात चली थी. इसकी पेशकश भी की गई किंतु बृजमोहन ने पारिवारिक कारणों का हवाला देते हुए इसे स्वीकार नहीं किया था.

विष्णु देव साय मंत्रिमंडल का विस्तार होना अभी शेष है. 13 दिसम्बर को उन्होंने तथा दोनों उप मुख्यमंत्रियों ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी , गृहमंत्री अमित शाह व अन्य की मौजूदगी में पद एवं गोपनीयता की शपथ ली. भाजपा के केन्द्रीय नेतृत्व ने आगामी लोकसभा चुनाव को ध्यान में रखते हुए तीनों राज्यों छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश व राजस्थान में इन पदों के जरिए जातीय समीकरण को साधने की कोशिश की है ताकि इसका संदेश दूर तक जाए तथा आगामी चुनावों में पार्टी को इसका लाभ मिले. छत्तीसगढ़ में जिस तरह ये नियुक्तियां की गई हैं, उससे स्पष्ट है कि मंत्रिमंडल में भी नियुक्ति के मामले में जातीय संतुलन कायम रखा जाएगा जिसमें अनुभवी विधायकों के साथ-साथ नयों को भी मौका मिलेगा. नयी सरकार में अनुसूचित जाति, जनजाति व पिछड़े वर्ग को अधिक प्रतिनिधित्व मिलने की संभावना है. सामान्य वर्ग से पूर्व मंत्री त्रयी बृजमोहन अग्रवाल, अमर अग्रवाल तथा राजेश मूणत दावेदार हैं. यदि ये मंत्रिमंडल में ले भी लिए जाते हैं तो भी इनमें से भी किसी को भी लोकसभा चुनाव में उतारा जा सकता है. अधिक संभावना बृजमोहन अग्रवाल की है. अगर ऐसा हुआ तो यह मानकर चलना चाहिए कि छत्तीसगढ़ की राजनीति में बृजमोहन अग्रवाल का सक्रिय हस्तक्षेप नहीं रह पाएगा. लोकसभा के चुनाव अगले वर्ष अप्रैल-मई में संभावित है.

छत्तीसगढ़ का यह कद्दावर नेता अभी 64 का है. राजनीति में यह उम्र प्रौढ़ता की सूचक है, बुढापे की नहीं. चूंकि राजनीति में भी चमत्कार होते रहते हैं अतः यदि आगे कभी बृजमोहन की किस्मत खुल जाए तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए.

दिवाकर मुक्तिबोध छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ पत्रकार हैं और राज्य की राजनीति की गहरी समझ रखते है.

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.

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