कल ही श्रीनगर के नेता एस. ए. शमीम के उनचास साल पहले कहे को कहीं हमने पढ़ा, जो उन्होंने दिल्ली दंगे के बाद संसद में बोला था- “अगर आज का फसाद इस मुल्क का आखिरी फसाद होता, तो मुझे कोई ऐतराज नहीं था...लेकिन बदकिस्मती यह है कि अभी और भी फसाद आगे होते रहेंगे..हमें उनके बारे में सोचना चाहिए...”. क्या पांच दशक बाद भी किसी भी दल का कोई राजनेता यह दावा कर सकता है कि आगे और सांप्रदायिक फसाद नहीं होंगे? शायद ऐसा दावा कोई नहीं कर सकता! मतलब फसादों की संभावनाएं आगे भी है. यह सच डरावना बहुत डरावना है. हम दुनिया के आगे भी अहिंसक रहने की संभावनाओं के प्रति आश्वस्त नहीं है. “मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर करना”- यह कितना सच है यह हमें आजतक समझ में नहीं आ पाया है.
विशेषज्ञों ने मजहबी फसादों पर बहुत कुछ लिखा है और अनगिनत कारणों का हवाला दिया है जैसे- संसाधनों के लिए संघर्ष, मजहबी कट्टरता, आधुनिक शिक्षा की कमी, आंतरिक और अंतर्राष्ट्रीय राजनीति, युद्ध और उससे उपजी अराजकता का प्रभाव आदि. इन कारणों के अतिरिक्त मजहबों के प्रिस्टली-क्लास की भूमिका पर भी दुनिया में काफी लिखा गया. माना गया कि ये वो वर्ग है जो समाज के मन में मतान्धता के बीज नियमित रूप से बोता रहता है. लेकिन भारत में इसपर एक व्यापक जन विमर्श का अभाव दिखता है.
हम सबने अक्सर साम्प्रदायिक फसादों के समय सामाजिक सौहार्द को बढ़ाने के लिए तमाम मजहबों के प्रिस्टली-क्लास को एकसाथ आगे बढ़कर शांति का आह्वान करते भी देखा है, और हम सबने इसे सराहा भी है- लेकिन दूसरा पक्ष यह भी है कि इन फसादों की जड़ों में इस वर्ग की भूमिका राजनीतिक वर्गों के बराबर या कई बार अधिक दिखती प्रतीत होती है. इन फसादों के लिए केवल राजनेताओं को ही कोसना सही नहीं माना जाना चाहिए. ऐसा इन प्रिस्टली-क्लासों की तीन महत्वपूर्ण भूमिकाओं के आधार पर कहा जा सकता है जिसके कारण जनमानस गंभीर रूप से प्रभावित होते हैं. वे अपनी इन भूमिकाओं के द्वारा समाज के अंतर्मन को गहरे तक प्रभावित करते हैं.
मजहबी श्रेष्ठता के भाव को पैदा करना: मजहबों के हम मर्मज्ञ नहीं हैं, लेकिन मजहबों का मर्मज्ञ ये प्रिस्टली-क्लास अनिवार्य रूप से होते ही हैं यह भी संदिग्ध माना जा सकता है. लेकिन जितना हमने जाना-समझा है उतने से एक बात तो समझ में आती है कि मजहब की अपनी सीमाएं हैं और उन्हें उन सीमाओं में ही स्वीकारा जाना चाहिए- मजहबों के भी अपने गुण और दोष है. उन सीमाओं से मनाही ही मजहबी उन्माद है. इनके गुण के साथ-साथ दोषों को भी सार्वजानिक तौर पर स्वीकारा जाना चाहिए.
यह भाव आम लोगों के मन में अन्यों के प्रति भीतर ही भीतर घृणा के बीज बो देती है जो सामाजिक या राजनीतिक उपद्रव के समय हिंसक रूप में प्रकट होता है. ‘मुझे हिन्दू होने पर गर्व है', ‘मुझे मुस्लिम या ईसाई होने पर गर्व है'- यह भाव भयानक है. गर्व का भाव ही विभेद और श्रेष्ठ होने का भाव है. ऐसे में बाहर भले प्रेम और भाईचारे के नारे लग रहें होते हैं, लेकिन भीतर ही भीतर श्रेष्ठता का अहंकार बना रहता है. यह भाव सामाजिक-राजनीतिक उपद्रवों के समय सांगठनिक तौर पर उभर कर सामने आता है.
सामाजिक दूरी को बढ़ावा देना: संवाद और सामाजिक अंतर्क्रिया एक लोकतान्त्रिक प्रक्रिया है जो समाज को भिन्नताओं के बावजूद जोड़े रखता है. उनके बीच अगर संवाद ठहर गया है या फिर सामाजिक अंतर्क्रिया रुक गयी है, तो फिर समाज अपना सामुदायिक स्वरूप खो देता है. साथ-साथ होना, रहना, रीति-रिवाजों त्योहारों में साथ आनंद मनाना, एक दूसरे के विश्वासों को स्वीकारना ही नहीं कभी-कभी उसका हिस्सा बनना भी अनिवार्य होता है समाज को जीवंत बनाये रखने के लिए. लेकिन दुर्भाग्य से प्रिस्टली-क्लास ऐसे सामाजिक अंतर्क्रिया में अक्सर एक अवरोधक की भूमिका में नजर आते हैं. उन्होंने पाप, पुण्य, हलाल, हराम का पूरा एक ब्यौरा तैयार कर रखा होता है. और इन मजहबी ब्योरे का प्रभाव इतना होता है कि लोगों के बीच सामाजिक अंतर्क्रिया के बीच एक ऊँची दीवार पैदा हो जाती है.
अक्सर हम सुनते हैं- “उनका मजहब उनको मुबारक मेरा मजहब मुझे मुबारक”- यह नारा वस्तुतः एक नकारात्मक नारा है जो सामाजिक दूरी को बढ़ावा देता है. होना तो यह चाहिए था- “तुम्हारा मजहब मेरा मजहब और मेरा मजहब तेरा मजहब”. लेकिन मजहबी शुद्धता की भावना जो इन प्रिस्टली-क्लास के द्वारा विकसित की जाती है ऐसे अंतर्क्रिया को रोक देती है और समाज के बीच कभी स्वस्थ संवाद हो नहीं पाता. मजहबों के साथ जीना जरूरी है, लेकिन मजहब को केंद्र में रखकर जीना आत्मघाती.
वैज्ञानिकता के निषेध का प्रचार: एक तरह से देखें, तो समाज में दो बातें विरोधाभाषी तरीके से कार्य कर रही होती है और दोनों को ही राज्य और समाज द्वारा वैधानिकता भी प्राप्त होती है. एक तरफ राज्य अपने आधुनिकीकरण के एजेंडे के साथ तार्किक मूल्यों की स्थापना करने का प्रयास करता रहती है, तो दूसरी तरफ ये प्रिस्टली-क्लास उससे अधिक प्रभावी तरीके से आधुनिक और सार्वभौमिक मूल्यों के विपरीत अवैज्ञानिकता का प्रसार कर रहें होते हैं. सरकारें शिक्षा के पाठ्यक्रमों, वैज्ञानिक शोधों, सेमिनारों, सांस्कृतिक कार्यक्रमों, राजनीतिक और दार्शनिक विमर्शों के द्वारा एक वैज्ञानिक और समावेशी समाज के निर्माण का प्रयास कर रही होती है, तो दूसरी तरफ ये समाज में जोरदार रूप से इसके उलट पारलौकिक दुनिया के सुन्दर सपनों को दिखाते रहते हैं.
ऐसे में समाज तय नहीं कर पाता है कि आखिर किधर जाए- फिर राज्य की कतिपय कारणों से नीतिगत असफलता की स्थिति उन्हें प्रेरित करती है कि वे मजहबी मौलानाओं और बाबाओं के चमत्कारिक दावों में अपना भविष्य तलाशें और उनके बहकावे में आयें. विज्ञान एक अंतहीन अन्वेषण है, जबकि मजहब एक स्थिर विश्वास. और प्रिस्टली-क्लास अन्वेषण की इस धारा को रोकने वाली एक दीवार है. मजहबों के साथ दिक्कत है कि यह एक प्राचीन विश्वास पद्धति होने के बावजूद दूसरे प्रकार के विश्वास को नकारता है, लेकिन वैज्ञानिकता की सबसे बड़ी मजबूती ही यही है कि यह अन्यों के अस्तित्व को भी ख़ारिज नहीं करता. विज्ञान अंतिम सत्य की बात नहीं करता जबकि सभी मजहब अपना-अपना सत्य लेकर बैठा हुआ है.
आश्चर्य होता है कि कि भारत में विभिन्न मजहबी नेताओं को बुलाकर सामूहिक प्रदर्शन के द्वारा सौहार्द्र को बनाने का एक असफल प्रयास किया जाता है, जबकि अपने मूल दर्शन में ही ये एक दूसरे के मूल्यों के विरुद्ध होते हैं. अधिकांशतः मजहबों के साथ दिक्कत ही यही है कि इसका दूसरे को स्वीकारने का मूल चरित्र ही नहीं होता. ऐसे में इसमें कोई दो राय नहीं कि ये प्रिस्टली-क्लास फसादों के अनगिनत मूल कारणों में से एक हैं- राजनीतिक दल इनके द्वारा बीजारोपित सोच की फसल काटते हैं.
दुर्भाग्य से इन प्रिस्टली क्लासों की सामाजिक पकड़ गहरी होती है, जिस कारण राजनेता भी इनके पास “आशीर्वाद” लेने पहुँचते रहते हैं जिससे दोनों को ही व्यापक वैधता मिल जाती है. जरूरी है कि इन प्रिस्टली क्लासों के सामाजिक और राजनीतिक प्रभावों को सीमित किया जाए ताकि फसादों के वैचारिक श्रोत पर नियंत्रण लगाया जा सके. समाज की चेतना अगर तर्क और वैज्ञानिकता के मूल्यों से संचालित होगी तो राजनेता चाहकर भी अधिक समय तक मजहब की राजनीति नहीं कर पाएंगे. अगर मजहब की राजनीति होती भी है तो अधिक सम्भावना है कि यह आधुनिक संविधानिक और न्यायिक प्रक्रिया के अंतर्गत ही होगा न कि हिंसक फसादों के द्वारा मजहबी मुद्दों को सुलझाया जायेगा.
केयूर पाठक हैदराबाद के CSD से पोस्ट डॉक्टरेट करने के बाद इलाहाबाद विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं, तथा चितरंजन सुबुद्धि तमिलनाडु केंद्रीय विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं...
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.