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This Article is From Sep 18, 2023

घर-घर में 'रिवॉल्वर': वो अपराधी हैं या सिस्टम के शिकार ? क्या है सिकलीगरों का पूरा सच

वो समुदाय जिन्होंने गुरू गोविंद सिंह की सेना के लिये हथियार बनाए...आज़ादी की लड़ाई में क्रांतिकारियों की मदद की...आज भी उन्हें छूरी,चाकू,लोहे के हथियार बनाने में महारथ हासिल है. एक दूसरा और कड़वा सच ये भी है कि देशभर में हुई कई बड़ी वारदातों में सिकलीगरों के बनाए हथियारों का ही इस्तेमाल हुआ है. ऐसे में सवाल उठता है कि क्या सिर्फ हथियार ही इनकी ज़िंदगी का पूरा सच है...ग्राउंड रिपोर्ट में हमारे स्थानीय संपादक अनुराग द्वारी ने इसे समझने और समझाने की कोशिश की.

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घर-घर में 'रिवॉल्वर': वो अपराधी हैं या सिस्टम के शिकार ? क्या है सिकलीगरों का पूरा सच

मध्यप्रदेश में महाराष्ट्र की सीमा से सटे मालवा-निमाड़ के 4 ज़िलों खरगोन,धार,बड़वानी और बुरहानपुर में लगभग 20,000 से 25000 सिकलीगर रहते हैं.उनके कई गांवों में अवैध हथियार कुटीर उद्योग की तरह बनता है. कट्टा से लेकर माऊजर तक बनाना इनकी दिनचर्या का हिस्सा है. देश में होने वाली बड़ी वारदातों में से कई का कनेक्शन सिकलीगरों से होता है...पुलिस अक्सर छापे मारती है लेकिन हथियार बनाने का धंधा बंद नहीं होता. इनके कुटीर उद्योग पर कार्रवाई भी लगातार होती है, कुछ दिनों पहले ही धार पुलिस ने एक खास ऑपरेशन में 125 देसी कट्टे, 06 पिस्तौर और 2 रिवॉल्वर सिकलीगरों से जब्त की,कुछ लोग गिरफ्तार भी हुए. उनसे बरामद हथियार आधुनिक भी है. धार के एसपी मनोज सिंह का कहना है कि इस समुदाय के बनाए हथियार बाहर भी सप्लाई होते हैं. उनका कहना है कि पुलिस इस मामले में पूछताछ कर रही है. इस समुदाय का पूरा सच जानने से पहले हम उन बड़ी वारदातों को भी जान लेते हैं जिसमें सिकलीगरों का कनेक्शन सामने आया है. 

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ऊपर दी गई जानकारियों से आपको लग रहा होगा ये समुदाय बेहद खतरनाक होगा लेकिन सच्चाई ये नहीं है. हमारे स्थानीय संपादक अनुराग द्वारी ने इनका सच जानने की कोशिश की.इसके लिए उन्हें भोपाल से करीब 400 किलोमीटर की दूरी तय करनी पड़ी. इन तक पहुंचना आसान नहीं. लिहाजा सफर कभी गाड़ी, कभी बाइक तो कभी पैदल तय करना पड़ा. बहरहाल NDTV की टीम बड़वानी जिले के पलसूद के करीब एक छोटे से गांव पहुंचने में सफल रही. जहां हम कई चौंकाने वाले लम्हों के गवाह बने. 

पांच-सात हजार में बिकता है कट्टा

वहां एक छोटे सी झोपड़ी में दो सिकलीगरों ने हमें बताया कि वे जो कट्टा बनाते हैं,वो 5 से 7000 रु.में बिक जाता है.वे 10-12 रोज में एक कट्टा या माऊजर बना देते हैं. रोजगार का कोई दूसरा जरिया नहीं है,बच्चे भूखे रहते हैं इसलिये वे हथियार बनाते हैं.उन दोनों ने बताया कि वे भंगार में 25-30 रु.किलो लोहा लेकर आते हैं.इसके अलावा कानस 50-100 रुपये में मिलता है,आरी पत्ती मिलती है उनकी सहायता से ये कट्टा बना देते हैं.हमने पूछा ये फटेगी तो नहीं तो उसने कहा ये देसी फट जाए तो हमारी गारंटी नहीं है. इसके बाद हमारी टीम चौपाल पर लोगों से समझऩे की कोशिश कर रही थी तभी उनके बीच झगड़ा हो गया, गांववालों को लगा हमारी मौजूदगी उन्हें मुश्किल में डाल सकती है.माहौल तनावपूर्ण हो गया. हम निकलने वाले ही थे कि कमर में पिस्तौल खोंसे एक युवक ने हमें धमकाने की कोशिश की. बहरहाल हम वहां से किसी तरह निकले. ये थी सिकलीगरों से हमारी पहली मुलाकात. 

सिकलीगरों के गांवों में जाने से पता चलता है कि वे हथियार कैसे बनाते हैं. हमारे स्थानीय संपादक अनुराग द्वारी ने इसे करीब से जाना

सिकलीगरों के गांवों में जाने से पता चलता है कि वे हथियार कैसे बनाते हैं. हमारे स्थानीय संपादक अनुराग द्वारी ने इसे करीब से जाना

कट्टा से लेकर माउजर तक सब उपलब्ध है

इसके बाद हम पहुंचे धार जिले के दूसरे गांव में.पहले गांव में घूमे तो लोगों ने हमें शक़ की नज़रों से देखा.किसी तरह कुछ संपर्कों को खंगाला.लोगों को समझाया फिर एक घर में पहुंचे तो  वहां भी घर में भट्ठी सुलगाकर देसी कट्टा बनाया जा रहा था.बनाने वाले से जब हमने बात की तो उसने हमें पूरा प्रोसेस बताया.जिसके मुताबिक वे साइकिल के पुराने फ्रेम,ट्रक की कमानी और पट्‌टे कबाड़ आदि से लोहे को गलाकर आकार देते हैं.इसके बाद 2 इंच से लेकर 5 इंच तक की आरियों से इन्हें तराशा जाता है.कनास से घिसकर चमकाया जाता है. इसके बाद पटटे को पीटकर बंदूक का हत्था बनता है और पाइप से बंदूक की नाल.

वे कुछ देसी तो कुछ मेड इन यूएसए टाइप टैगिंग वाले हथियार भी बना देते हैं.एक रिवॉल्वर दिखाते हुए उसने कहा ये आधा तैयार है, जब हमने पूछा राउंड कहां से भरेंगे तो उसने कहा अभी लोड नहीं हो सकता अभी खटका नहीं है.काम बाकी है.

दूसरी बंदूक दिखाते हुए उसने कहा ये 10 परसेंट ही बनी है. तीसरी दिखाते हुए कहा है कि ये 50 परसेंट बनी है. इसमें हत्था लगेगा, खटका लगेगा. जब हमने पूछा कि क्या इसके लिए कच्चा माल मिलना मुश्किल होता है तो उसने ना में सिर हिलाया और बताय दुकानों पर आसानी से कच्चा माल मिल जाता है. उसने बताया कि माउजर 5000 में बिकता है लेकिन कोई गारंटी नहीं है. इसको बनाने में 8-10 रोज लगते हैं. 

जो आता है दे देते हैं हथियार 

इसके बाद हमने उससे पूछा कि जब उसे पता चलता है कि उसके बनाए बंदूक से किसी की हत्या हुई है तो उसे बुरा लगता है क्या? तब उसने तपाक से जवाब दिया- हमारे पास जो आता है हम उसे हथियार दे देते हैं, हमको नहीं पता इसका कहां इस्तेमाल हुआ. हमने उससे पूछा कि ये अवैध काम छोड़ क्यों नहीं देते? तो उसका कहना है कि ये हमारा खानदानी धंधा है. हम देख कर सीख जाते हैं,बच्चे भी देखते हैं तो वे भी इसे बनाने की सोचते हैं.

20 फीसदी लोग ही इस धंधे में शामिल

      सिकलीगर खुद भी मानते हैं कि उनके समाज से कुछ लोग अवैध हथियार बनाते हैं. लेकिन साथ ही वे आरोप भी लगाते हैं कि कई बार पुलिस बेगुनाहों को भी परेशान करती है. खालसा नगर में रहने वाले अजय सिंह चावला कहते हैं 10-20 लड़के जुड़े हैं, लेकिन उनके लिये कोई रोजगार नहीं है इस कारण वे मजबूर हैं. इसी गांव के प्रेम सिंह बताते हैं कि हम तलवार से लेकर भाला-बरछा सब बनाकर देते थे. लेकिन बाद में ये अवैध होता गया. अब इस धंधे में समुदाय के 20 प्रतिशत लोग ही शामिल हैं. वो भी पेट पालने के लिये. प्रेम सिंह का कहना है कि लेकिन पुलिस नाजायज बोलकर निर्दोषों को भी उठाकर ले जाती है. सिकलीगर समाज के राष्ट्रीय अध्यक्ष मगन सिंह भाटिया का कहना है कि समाज में सभी दूध के धुले नहीं है लेकिन पुलिस सभी को एक ही नजर से देखती है. हमारे समाज में 50-60 फीसदी लोग इस धंधे को छोड़ चुके हैं. 

सिकलीगर समुदाय में अधिकांश लोगों ने अवैध हथियार बनाना बंद कर दिया है लेकिन अब भी पुलिस उन्हें परेशान करती है. सरकारी योजनाओं का भी लाभ नहीं मिलता

सिकलीगर समुदाय में अधिकांश लोगों ने अवैध हथियार बनाना बंद कर दिया है लेकिन अब भी पुलिस उन्हें परेशान करती है. सरकारी योजनाओं का भी लाभ नहीं मिलता

       वैसे एक सच ये भी है कि हथियार तो सिकलीगर बनाते हैं लेकिन हत्या हथियार नहीं गोली से होती है. ये गोलियां कहां से आती हैं? रतलाम रेंज के डीआईजी मनोज सिंह जिन्होंने सरकार को गोलियां पर बारकोड का प्रस्ताव भेजा है वे कहते हैं गोलियां की पहचान दर्ज होने से कई समस्याएं खत्म हो जाएंगी. बार कोड होने से गन वायलेंस को भी रोका जा सकेगा. कुल मिलाकर सिकलीगरों की पहचान हथियारों की वजह से सुर्खियां में है. लेकिन इससे परे एक सच और भी है. 

किसी सरकारी योजना का लाभ नहीं

बड़वानी ज़िले में इस समुदाय की हालत दूसरा सच भी बयां करती है. मसलना बड़वानी जिले के खालसा नगर का पहला घर. यहां पहले स्कूल की इमारत थी जो अब टूट चुकी है. यहीं पर रहते हैं 85 साल के धूल सिंह. उनकी आंखों की रोशनी जा चुकी है लेकिन सरकारी उपेक्षा का आलम ये है कि उन्हें प्रधानमंत्री आवास से कोई घर नहीं मिला. उन्हें दया करके कोई खाना दे देता है तो वे खा लेते हैं.

इसी गांव में बब्बू भी देख नहीं सकते लेकिन वो 29 साल के ही हैं . दोनों में लोगों में समानता ये है कि दोनों को ही दिव्यांग पेंशन नहीं मिलता. बब्बू के भाई माता-पिता, उनके बच्चे हैं. कुल 20 लोगों का परिवार 2 कमरों के प्रधानमंत्री आवास में रहता है लेकिन उज्जवला जैसी योजना का भी कोई लाभ नहीं मिला. 


      कुछ ऐसा ही हाल पलसूद के सिकलीगरफल्या का भी है.यहां 50-60 घर हैं. जिसमें 300 से ज्यादा लोग रहते हैं. लेकिन यहां न तो सड़क है और न ही पक्का मकान. 5वीं तक आंगनबाड़ी का स्कूल है. इसके बाद बच्चों का स्कूल छूट ही जाता है. गांव के युवा सतनाम सिंह कहते हैं हमारे साथी तो लोहे का सामान तक बनाना बंद कर देंगे. पुलिस परेशान करती है तो हमको बीवी बच्चों से दूर रहना पड़ता है.सिकलीगरों के बच्चे पढ़ नहीं पा रहे हैं, गांव तक पहुंचते विकास रास्ता भटक जाता है.नौकरी नहीं है, रोजगार के लिए लोन मिलना मुश्किल है. वो अवैध रिवॉल्वर बनाने छोड़ें इसके लिये जरूर है कि शासन-प्रशासन भी उनके लिये रवैया बदले.
हालांकि धार जिले में खाट चौपाल और भी कई तरीकों से जिला पुलिस सिकलीगरों का भरोसा जीतने की कोशिश कर रही है जिससे वो मुख्यधारा में लौट सकें. 

धार ज़िले के एसपी मनोज सिंह कहते हैं मैं जहां भी रहा कॉम्यूनिटी पुलिस को दायित्व समझा. अलीराजपुर के गांव-गांव में गया.सिकलीगरों पर पुरानी हिस्ट्री बनवाई है आपका कहना सही है इनके पास तो लोग पहुंचे नहीं है कुछ लोगों को मालूम भी नहीं है सरकारी योजनाओं के बारे में

. एसपी ने बताया कि उन्होंने जेल में जाकर सिकलीगरों से बात की है उनकी समस्याओं को समझा है. जाहिर है संगीन सिकलीगरों का आधा सच है, सरकारी उपेक्षा भी आधा और जब दोनों सच को पूरा जोड़कर देखा जाएगा तो ही सिकलीगरों की समस्या का समाधान निकल पाएगा. 

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