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Ganesh Utsav 2025: देवी अहिल्याबाई के दरबार से आज तक ये परिवार बना रहा भगवान गणेश की मूर्तियां

Indore News in Hindi: इंदौर में एक ऐसा खास मूर्तिकार परिवार है जो होलकर राज परिवार के समय से आज तक भगवान गणेश की मूर्ति बनाता है. आज भी इनकी बनाई मूर्ति ही गणेश उत्सव के दौरान राजवाड़ा में लगाई जाती है. आइए आपको इनके बारे में विस्तार से जानकारी देते हैं.

Ganesh Utsav 2025: देवी अहिल्याबाई के दरबार से आज तक ये परिवार बना रहा भगवान गणेश की मूर्तियां
इंदौर के राज परिवार का 300 साल से एक ही मूर्तिकार

Holkar Rajvansh Indore: मध्य प्रदेश (Madhya Pradesh) के इंदौर में एक ऐसा परिवार है, जो 300 सालों से होलकर राज परिवार के लिए गणेश की मूर्तियां बनाने का काम करते आ रहे हैं. हर साल 10 दिन चलने वाले गणेश उत्सव के लिए इंदौर के प्रसिद्ध राजवाड़ा (Indore Rajwada) में इनके द्वारा बनाई गई मूर्ति को स्थापित किया जाता है. होलकर शासनकाल में देवी अहिल्याबाई (Devi Ahilyabai) के दरबार में मोरोपंत खरगोनकर एक कलाकार थे. महल में बनाई जाने वाली रंगोलियां या किसी प्रकार की चित्रकला या कला का काम यही करते थे. इस समय जब गणेश चतुर्थी मनाने की प्रथा शुरू की गई, तब होलकर युग की तत्कालीन शासक देवी अहिल्याबाई ने मोरोपंत खरगोनकर को होलकर परंपराओं के अनुसार गणेश प्रतिमा बनाने का काम दिया था.

इंदौर के राज परिवार के लिए ये बनाते हैं खास मूर्तियां

इंदौर के राज परिवार के लिए ये बनाते हैं खास मूर्तियां

सातवीं पीढ़ी भी कर रही मूर्ति का काम

अभी मोरोपंत खरगोनकर की सातवीं पीढ़ी इस काम में लगी हुई है. एनडीटीवी से बातचीत में श्याम खरगोनकर बताते हैं कि जिस वर्ष गणेश स्थापना का निर्णय लिया गया, उस समय अहिल्या माता द्वारा मोरोपंत, उनके पूर्वज जो खुद राज दरबार में कलाकार थे उन्हें यह जिम्मा सौंपा गया. इसी के साथ प्रतिमाओं का स्वरूप राजशाही रखने की बात कही गई. इसमें पगड़ी राजा-महाराजाओं की तरह बनाई गई, सूंड गजमुख आकार की और इसे राजशाही ठाठ को ध्यान में रखते हुए बनाया जाए.

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राजवाड़ा परिवार की परंपरा का पालन

गणपति के नीचे दिख रहा पटला राजवाड़े से आता है और सागवान का बनाया हुआ है. यह परंपरा 300 सालों से चली आ रही हैं. यह मूर्ति पीली मिट्टी से बनाई जाती हैं, जो पूरी तरीके से हाथ की कारीगरी रहती है. यह मूर्तियां काफी अलग होती हैं. बाहर मिलने वाली मूर्ति मानव मुख की होती हैं और जो खारगोनकर निर्मित करते हैं, वो गज मुख होती हैं. बैंड-बाजा के साथ पालकी आकर पूजा पाठ होने के बाद ठाठ के साथ मूर्तियों को ले जाया जाता है. सालों से चली आ रही प्रथा आज भी खारगोनकर परिवार निभाते आ रहें हैं.

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