
Basavaraju Encounter: देश में लाल आतंक के नक्शे से एक साया ख़त्म हो गया, जिसके पैरों से ना जाने कितने बेगुनाहों के खून की नदियां बही. देश में जो सबसे घातक बगावत हुई है उसकी आखिरी छाया था- नंबाला केशव राव. दूसरे शब्दों में कहें तो जंगल उसे बसवराजू के नाम से जानता था. लेकिन अब जंगल का ये जनरल खामोश हो चुका है. अब उसका आतंक खत्म हो चुका है और उसके साथ ही उसके 27 साथी भी मारे गए हैं. जानकार कहते हैं बसवराजू को पकड़ना कोई ऑपरेशन नहीं था बल्कि एक सपना था. उसे मारना कोई उपलब्धि नहीं है बल्कि एक इतिहास है. नियति का इंसाफ देखिए वो उसी जंगल में मारा गया जिसका वो जनरल कहा जाता था. सवाल ये है कि नक्सल आंदोलन का सबसे बड़ा जनरल बसवराजू तक सुरक्षाबल कैसे पहुंचे जो दशकों तक अबूझ बना रहा था? सवाल ढेरों हैं- मसलन- पूरा एनकाउंटर कैसे अंजाम दिया गया? नक्सल संगठनों ने अपना शीर्षस्थ नेता खो दिया है तो अब आगे क्या होगा?
ऐसे मारा गया बसवराजू
दरअसल 21 मई, 2025 को एक पुख्ता खुफिया जानकारी मिली की बसवराजू अपने कैडर के साथ अबूझमाड़ के इलाके में मौजूद है. हालांकि यहां नक्सलियों के खिलाफ ऑपरेशन बीते दो दिनों से पहले ही जारी था. इसके बाद DRG यानी डिस्ट्रिक्ट रिजर्व गार्ड के जवान 4 ज़िलों से निकले.
बताया जा रहा है कि बीते दिनों बसवराजू के एक करीब नक्सली ने सरेंडर किया था. जवान उसे ही अपने साथ ले गए थे और उसी की निशानदेही पर जवानों ने चारों तरफ से नक्सलियों को घेरा था. बहरहाल जब गोलियां थमी तो पता लगा जंगल का जनरल - श्रीकाकुलम का बसवराजू मारा गया है. अलग-अलग राज्यों के इनाम को जोड़ दें तो वो शायद देश का सबसे महँगा नक्सली नेता था. बताया जा रहा है कि उस पर कुल 10 करोड़ का इनाम था.
बसवराजू को करीब से जान लीजिए
बसवराजू 10 जुलाई 1955 को आंध्र प्रदेश के जीयनपेटा गांव में जन्मा था. उसने रीजनल इंजीनियरिंग कॉलेज,वारंगल जैसे प्रतिष्ठित संस्थान से इंजीनियरिंग की. इसी दौरान साल 1979 में आरएसएस सदस्यों के साथ कैंपस में उसकी झड़प हुई. इस झड़प में एक छात्र की मौत हो गई और बसवराजू गिरफ्तार हुआ. वो 1980 में जमानत पर छूटा और फिर अंडरग्राउंड हो गया. बताया जा रहा है कि वो राष्ट्रीय स्तर पर वॉलीबॉल भी खेल चुका था. जंगलों में लैंडमाइन प्लांट करने, प्रेशर कुकर बम और IED खुद बनाने की शुरुआत भी नक्सल संगठन में इसी ने की. उसने आंध्र-ओडिशा सीमा के आदिवासी इलाकों में भूमिगत रहते हुए क्रांतिकारी जीवन की शुरुआत की, जहाँ उसने किसान आंदोलनों को संगठित किया और सशस्त्र संघर्ष की नींव रखी, तीन देसी पिस्तौल और 'रायथु कूली संघम' के गठन के मिशन के साथ माओवादी आंदोलन में सक्रिय भागीदारी शुरू की.

बसवराजू करीब छह फीट लंबा था और हमेशा फिट रहता था. ज्यादातर वो अबूझमाड़ और एओबी जोनल कमेटी इलाके में रहता था. वो हमेशा ‘कंपनी 7' नाम की अपनी विशिष्ट सशस्त्र टीम के साथ रहता था. खुद उसके पास AK-47 होता था. वो तेलुगू,हिंदी,अंग्रेज़ी के अलावा गोंडी भी धाराप्रवाह बोलता था. खुफिया एजेंसियों का कहना है कि वो अंतरराष्ट्रीय चरमपंथी संगठनों से संपर्क में था और तुर्किये, पेरू और जर्मनी की यात्राएं कर विदेशों में बैठी चरमपंथियों से संबंध बना रहा था. बसवराजू की पत्नी शारदा, जो खुद माओवादी कमांडर थीं, उसने 2010 में आत्महत्या कर ली थी. चौंकाने वाली बात ये है कि उसके परिवार के दूसरे लोग मुख्यधारा की ज़िंदगी जी रहे हैं — एक भाई विशाखापट्टनम पोर्ट ट्रस्ट में सतर्कता अधिकारी है तो दूसरा डॉक्टर, शिक्षक और स्थानीय राजनेता है.
इस तरह सीढ़ियां चढ़ता रहा गणपति
नक्सल संगठन में बसवराजू बगावत का दिमाग बन गया था. पहले वो सेंट्रल मिलिट्री कमीशन का मुखिया बना . इसके उसने साल 2017 में पूर्व महासचिव मुपल्ला लक्ष्मण राव उर्फ गणपति के अस्वस्थ होने के बाद उसकी जगह ले ली, हालांकि इसका आधिकारिक ऐलान 2018 में हुआ.बताते हैं कि गणपति ही उसे सालों से शीर्ष नेतृत्व के लिए तैयार कर रहा था और साल 2013 में झारखंड के गिरिडीह में पारसनाथ हिल्स में एक बैठक में उसे साथ भी ले गया था.
बता दें कि गणपति को पार्टी का वैचारिक और राजनीतिक दिमाग माना जाता था, एक हद तक व्यवहारिक भी जिसने पीपुल्स वार के संस्थापक कोंडापल्ली सीतारमैया के अधीन काम किया और 1992 में महासचिव बने, गणपति ने ही पीपुल्स वार और एमसीसी के विलय की निगरानी की थी. गौरतलब है कि 14 साल में ये पहली बार था जब माओवादी नेतृत्व में कोई बदलाव हुआ था. गणपति 25 सालों तक माओवादियों के सर्वोच्च नेता रहा — पहले 12 साल सीपीआई (एमएल) पीपुल्स वार के प्रमुख के तौर पर और फिर पीपुल्स वार और माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर (एमसीसी) के विलय के बाद सीपीआई (माओवादी) के महासचिव के रूप में.
वैचारिक संघर्ष को खूनी युद्ध में बदला बसवराजू ने
उसके नेतृत्व में माओवादी आंदोलन वैचारिक संघर्ष से खूनी जंगल युद्ध में बदल गया. नागरिकों की मौत सामान्य बात बन गई. हर हमले में उसकी हस्ताक्षर थी — मौत. बसवराजू को आईईडी विशेषज्ञ और मास्टर सैन्य रणनीतिकार माना जाता था, लेकिन वो इतना क्रूर था कि 2013 के लातेहार हमले में मृत सीआरपीएफ जवान के शरीर में फोटो-सेंसिटिव आईईडी रखने की योजना तक बनाई ताकि ताकि बचाव दल को भी नुकसान पहुंचे. हाल के दिनों में ये घटनाए उसकी ही प्लानिंग थी...

अब नक्सलियों के नेतृत्व का क्या होगा?
करेगुट्टा ऑपरेशन के बाद कुख्यात माओवादी कमांडर हिडमा बैकफुट पर चला गया है. कर्रेगुट्टा के तबाह होने के बाद अबूझमाड़ माओवादियों के लिए एकमात्र आपूर्ति और पहुंच का मार्ग था. और अब बसवा की मौत ने संगठन को इस हद तक पंगु कर दिया है कि अब इसका पुनर्जीवन संभव नहीं दिखता.
इस सवाल के जवाब में दो नाम सामने हैं - 69 साल का वेणुगोपाल उर्फ सोनू जो रणनीतिकार और विचारक है और 60 साल का थिप्परी तिरूपति जो बसवराजू की तरह फिलहाल नक्सलियों की सेंट्रल मिलिट्री कमीशन का सर्वेसर्वा है.
ये कहा जा सकता है कि बसवराजू की मौत के बाद माओवादी संगठन दिशाहीन है. बस्तर में उनका सबसे बड़ा कमांडर हिडमा, करेगुट्टा के बाद भागा हुआ है. गणपति, वैचारिक गुरू जरूर है लेकिन अब वो बूढ़ा और बीमार है. खुफिया एजेंसियों को अब बस्तर, गढ़चिरौली और ओडिशा के जंगलों में आत्मसमर्पण की लहर की उम्मीद है. जो कभी बच्चों के सामने गांववालों की हत्या करते थे… अब बातचीत की भीख मांग रहे हैं. ये कहना गलत नहीं होगा कि विचारधारा नहीं बर्बरता ने क्रांति को मार डाला, जंगल जिसने उन्हें शरण दी थी… उसी ने उन्हें धोखा दिया. लोग जिनके लिए लड़ने का दावा था… वही मुंह मोड़ गए और जिस बंदूक को वो पूजते थे वो बारिश में जाम हो गई है.
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