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OMG! छत्तीसगढ़ के इस लाल मटके से निकलती है शेर की दहाड़? 500 साल पुराना है इतिहास

Red Ghumara: रायपुर के ऑडिटोरियम में 3 अक्टूबर से 5 अक्टूबर तक हरित शिखर कार्यक्रम का आयोजन किया गया है. इस कार्यक्रम में छत्तीसगढ़ के लोक वाद्य यंत्रों की एक प्रदर्शनी लगाई गई है. इस प्रदर्शनी में संस्कृति और परंपरा को प्रदर्शित करने वाले करीब 200 वाद्य यंत्रों का संग्रह है,लेकिन इन वाद्य यंत्रों में सबसे ज्यादा चर्चा लाल रंग के मटके की हो रही है. ऐसे में जानते हैं इस मटके के बारे में, क्या है इसका इतिहास?

OMG! छत्तीसगढ़ के इस लाल मटके से निकलती है शेर की दहाड़? 500 साल पुराना है इतिहास

Chhattisgarh News: छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के पंडित दीनदयाल उपाध्याय ऑडिटोरियम में इन दिनों एक लाल मटका आकर्षण का केन्द्र बना हुआ है. लाल मटके से शेर की दहाड़ जैसी आवाज निकल रही है. राज्य के मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय ने भी मटके से शेर की दहाड़ सुनी. ऑडिटोरियम के हॉल में रखे इस मटके को देखने लोगों में कौतूहल नजर आ रहा है. मटके से शेर की दहाड़ जैसी आवाज सुनने के साथ ही लोग उसकी जानकारी भी ले रहे हैं.

क्यों चर्चा में लाल रंग का ये मटका?

दरअसल, छत्तीसगढ़ सरकार रायपुर के ऑडिटोरियम में 3 अक्टूबर से 5 अक्टूबर तक हरित शिखर कार्यक्रम का आयोजन कर रही है. इस कार्यक्रम में छत्तीसगढ़ के लोक वाद्य यंत्रों की एक प्रदर्शनी लगाई गई है. इस प्रदर्शनी में संस्कृति और परंपरा को प्रदर्शित करने वाले करीब 200 वाद्य यंत्रों का संग्रह है, लेकिन इन वाद्य यंत्रों में सबसे ज्यादा चर्चा लाल रंग के मटके की है. इस मटके से शेर जैसी आवाज निकल रही है. छत्तीसगढ़ी वाद्य यंत्रों का संग्रहण करने वाले रिखी क्षत्रीय बताते हैं कि इस खास वाद्य यंत्र का नाम घुमरा है. कार्यक्रम के उद्घाटन कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के रूप में राज्य के मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय पहुंचे. सीएम साय ने घुमारा बाजे की विशेष तौर पर जानकारी ली.

वाद्य यंत्रों के संग्राहक रिखी क्षत्रीय बताते हैं कि घुमरा बाजे का इतिहास करीब 500 साल पुराना है. छत्तीसगढ़ के दुर्ग जिले के अहिवारा ब्लॉक और उसके आस-पास के इलाकों में इस बाजे का उपयोग फसलों की सुरक्षा के लिए किया जाता था. फसलों को नुकसान पहुंचाने के लिए गाय, भैंस, बकरी, भालू जैसे जानवर आते थे तो ग्रामीण इस बाजे को बजाते थे, जिससे शेर की दहाड़ जैसी आवाज निकलती थी. इस आवाज को सुनकर जानवर भाग जाते थे. रिखी क्षत्रीय कहते हैं कि ये बाजा लगभग विलुप्त हो चुका है. अहिवारा क्षेत्र के लोग ही अब इस बाजे के बारे में नहीं जानते हैं.

इस तरह मिला था घुमारा

45 वर्षों से छत्तीसगढ़ी वाद्य यंत्रों का संग्रहण कर रहे रिखी बताते हैं कि बात करीब साल 2000 की है. दुर्ग में ही मेरे संग्रहित वाद्य यंत्रों की प्रदर्शनी देखने जिले के ही ढिंढोरी गांव के रहने वाले लोक कलाकार व शब्द भेदी बाण चलाने में पारंगत कोदू राम वर्मा पहुंचे थे. तब उनकी उम्र करीब 60 वर्ष हो चुकी थी. उन्होंने मुझे घुमरा बाजा के बारे में बताया. उसके बाद मैंने इसके बारे में पता कर इसका संग्रहण किया. राज्य में अब इसे बनाने वाले व उपयोग करने वालों की संख्या न के बराबर ही है.

इस तरह बनता है शेर की दहाड़ वाला बाजा

रिखी बताते हैं कि घुमरा बाजा बनाने के लिए मिट्टी का मटका, गोह की चमड़ी (Monitor lizards) और मोर के पंख और पानी का उपयोग किया जाता है. मटके के नीचले हिस्से को फोड़कर गोह की चमड़ी चिपकाई जाती है. मटके में थोड़ा पानी रखकर मोर के पंख के सहारे कंपन किया जाता है, जिससे शेर जैसी आवाज निकलती है. मोर का पंख आसानी से फिसलता है और गोह की चमड़ी मुलायम होती है, इसलिए इन दोनों वस्तुओं का उपयोग किया जाता है. मिट्टी के मटके में रखे पानी और गोह की चमड़ी पर मोर के पंख के फिसलन से निकलने वाली ध्वनि का मिश्रण शेर की आवाज जैसा होता है.

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