छठ पर्व सनातन के आज के स्वरूप का सबसे बड़ा पर्व है. जिसमें दान-कुदान, वर्ण-जाति, मंत्र-जाप, विधि-अनुष्ठान, विवाद-विवेचना का भेद नहीं है. न इसमें पुरोहित से आहूत कराने की विधि है, न ही इसमें पाखंड है. यह पर्व शुद्ध है, शुद्धता की पराकाष्ठा है. यह गहरा ध्यान है, यह ऊंची तपस्या है. इसमें मानवता है, सामाजिकता है, सहभागिता है. इसमें व्यक्तिगत आकांक्षा के साथ ही प्रकृति का कण-कण सिंदूरी हो उठे, इसकी कामना है. छठ सनातन के शाक्त,शैव,गाणपत्य,वैष्णव तथा सौर नामक पांच पन्थो में से सौर यानी सूर्य के उपासकों का महापर्व है. भारत के विभिन्न हिस्सों में सूर्य के उपासकों के बावजूद पूर्वांचल में इनकी बहुतायता है और बिहार इसका प्रमुख गढ़ है.
छठ पर्व अपने आप में अनूठा पर्व है. होली दशहरा, दिवाली,दुर्गा पूजा या सनातन का कोई अन्य पर्व हो, सभी रूढ़ियों और परम्परा द्वारा संचालित होते हैं जबकि छठ में रूढ़ि और परम्परा के साथ प्रचलन का भी समावेश है.
यह पर्व सनातन के आज के स्वरूप का सबसे बड़ा पर्व है. यही कारण है कि सौर के उपासक जब रूढ़ि, प्रचलन और परम्परा की दउरा में अपनी संस्कृति, सभ्यता और आज के दौर को सर पर उठाने हेतु आबद्ध होकर पूरी सादगी और स्वच्छता के साथ खड़ा हो जाता है, तब छठ हो होता है.
उल्लेखनीय है कि चार दिनों तक चलने इस पर्व में व्रतियों को जितनी जतन के साथ पूरे विधान को पूरा करना होता है उस लिहाज से यह संसार के सबसे कठिन पर्वों में से भी एक है. चार दिनों तक चलने वाले इस पर्व में व्रतियों को तीन दिनों तक उपवास रखकर सूर्य की आराधना करनी होती है और इनकी आराधना में न तो किसी वैदिक, न दैवीय, न ही किसी अन्य मंत्रों का उच्चारण होता है. जबकि अपने ईष्ट देव से व्रतियों का सीधा संवाद अपने लोक गीत में होता है. असल में छठ पर्व का लोक-मर्म इसके लोकगीतों में ही छिपा हुआ है. यह लोक-मर्म ही लोक-विवेक रचता है और प्रतिकूल स्थितियों में भी जीवन जीने का हठ सौंपता है.
तथा हर छठ व्रत के साथ इन लोकगीतों या जिसे आप छठ मंत्र भी कह सकते हैं की संख्या बढ़ जाती है. यहां कुछ मंत्र एक पर्व तक ही चलते हैं तो कुछ कालजई हो जाते हैं. विंध्यवासिनी देवी, शारदा सिन्हा, अनुराधा पौडवाल ने जो छठ गीत गाए हैं, वह वर्षों लोगों की जुबान पर है तो वहीं पवन सिंह,कल्पना व मैथिली ठाकुर के कर्णप्रिय नये गीत भी छठ के दौरान प्रचिलत हो चला है. विशेष बात यह कि छठ पर्व के गीतों में व्रतियों द्वारा राग देते समय वक्त किसी विशेष वाद्य-यंत्र का प्रयोग नहीं होता है बावजूद महिलाओं सामूहिक स्वर की एकरसता जो भाव पैदा करता है वैसा उदाहरण अन्यत्र नहीं मिलता है.
उदाहरण के तौर पर:
रिमझिम बूंदवा बरसि गइल,
ओरियन मोती चूवे अब छठी होईं ना सहाय....
होत पराते पह फाटल, कोयली कुहुकि बोले
पूरूबि ही आदित उदित भइलें, चिरई चुरूंग बोले
जल बीचे ठाड़ बरतिया त अब छठी होईं ना सहाय.
वस्तुतः छठ का पूरा दर्शन इन्हीं लोकगीतों में है. बिहार के सभी बोलियों में छठ गीत गाने कर परंपरा है. भोजपुरी, मैथिली, अंगिका, वज्जिका आदि जन भाषाओं के छठ गीतों में बिहार के हर पक्ष मुखरित होता है. छठ के लोकगीतों में सामाजिक ताने-बाने का वृहत स्वरूप देखने को मिलता है. छठ गीतों में भी कई कथाओं के माध्यम से जीवन का हर पक्ष अभिव्यक्त होता है. इन लोकगीतों में जीवन के सुख का पक्ष भी है तो दुःख की व्यथा भी, संवेदना है तो कामना भी, अगर श्याम पक्ष है तो श्वेत भी. छठ के लोकगीतों में जीवन के तमाम पक्षों की अनगिनत छायाएं साथ-साथ चलती हैं जो वैचारिक दृष्टिकोण से विलक्षण सौंदर्य-संस्कृति से परिचय करवाता है. ग्रामीण भारतीय समाज में प्रायः हर लोक पर्व में बेटे की कामना की जाती है लेकिन छठ के एक गीत में बेटी की भी कामना है. यह एक मात्र पर्व है जिसमें प्रकृति के कण-कण को स्थान प्राप्त होता है.
प्रियदर्शी आई.ओ.पी.एफ.फाउंडेशन के निदेशक तथा सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक मामलों के मौलिक चिंतक हैं
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