छत्तीसगढ़ की बस्तर लोकसभा सीट पर क्या इस बार भी कडे़ मुकाबले की उम्मीद की जा सकती है ? पिछले चुनाव में यह सीट कांग्रेस ने महज 38 हजार 982 वोटों से जीती थी किंतु यह जीत इसलिए भी मायने रखती थी क्योंकि 2019 के चुनाव के समय प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी का जलवा चरम पर था. उनकी लहर के बावजूद कांग्रेस ने बस्तर व कोरबा सीट जीतकर यह सिद्ध कर दिया था कि कोई भी लहर कितनी भी तेज गति से क्यों न चल रही हो, प्रत्येक पेड़ को जड़ से उखाड़कर बहा ले जाना संभव नहीं है. मोदी इफेक्ट का वह 2019 का चुनाव था,अब यह 2024 का है. इस मुद्दे पर मतांतर हो सकता है कि जिस मोदी लहर पर भाजपा विगत दस वर्षों से केन्द्र की सत्ता में है,क्या उसका शबाब अभी भी यथावत है ? वह कितना बढ़ा या घटा है? क्या प्रधानमंत्री की व्यक्तिगत छवि,उनकी जन-स्वीकार्यता घटी या बढ़ी है ? विपक्ष को दंतविहीन करने जैसे उनकी सरकार के कृत्यों को लोग अब किस नजरिए से देख रहे हैं ? ये संभव है कि बस्तर सहित छत्तीसगढ़ की चुनावी चर्चाओं में इनका अधिक जिक्र न होता हो किंतु यह अवश्य कहा जा सकता है कि बस्तर में पहली बार लोकसभा का चुनाव लड़ रहे भाजपा के युवा प्रत्याशी महेश कश्यप को कांग्रेस के भारी भरकम व जमीनी नेता कवासी लखमा से पार पाना बेहद मुश्किल होगा.इस बिना पर यह भी कह सकते हैं कि बस्तर का चुनाव दरअसल मोदी- लहर के लिए लिटमस टेस्ट की तरह होगा.
आदिवासी बाहुल्य इस निर्वाचन क्षेत्र में केवल जगदलपुर सामान्य सीट है. शेष अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित. बस्तर लोकसभा की 8 विधान सभा क्षेत्रों में भाजपा का दबदबा है. 2023 के विधान सभा चुनाव में भाजपा ने पांच सीटें कोंडागांव,नारायणपुर,जगदलपुर,चित्रकोट व दंतेवाडा जीती थीं. कांग्रेस के पास तीन सीटें हैं -बस्तर, बीजापुर व कोंटा. आठों विधान सभा में भाजपा व कांग्रेस को प्राप्त वोटों की तुलना करें तो भाजपा को 4 लाख 87 हजार 399वोट मिले थे जबकि कांग्रेस को 4 लाख 5 हजार 753. इस तरह कांग्रेस 81 हजार 646 वोटों से पीछे रही. कांग्रेस के प्रत्याशी कवासी लखमा कोंटा से विधायक हैं. उन्होंने भाजपा के सोयम मुका के खिलाफ यह चुनाव मात्र 1981 वोटों से जीता था.
1952 में स्थापित बस्तर लोकसभा सीट कभी कांग्रेस की परम्परागत सीट थी पर इसमें भाजपा ने 1998 में सेंध लगाई. 2014 तक लगातार छह लोकसभा चुनाव भाजपा ने जीते थे. कांग्रेस ने करीब 25 साल बाद यह सीट उससे छीनीं. 2019 के चुनाव में दीपक बैज ने यहां कांग्रेस का झंडा फहराया. उन्होंने भाजपा के बैदूराम कश्यप को 38,982 वोटों से हराया था. उन्हें 4, 02,527 तथा बैदूराम को 3, 63, 545 वोट प्राप्त हुए थे. यद्यपि इस लोकसभा में कांग्रेस व भाजपा के मध्य सीधा मुकाबला होता रहा है फिर भी भाकपा व बसपा भी दम दिखाती रही है. पिछले चुनाव में भाकपा के रामूराम मौर्य ने 38,395 व बसपा के आयतुराम मंडावी ने 30,499 वोट हासिल किए थे. यहां नोटा ने भी असर दिखाया था. इस लोकसभाई क्षेत्र के 41हजार 667 मतदाताओं ने किसी भी प्रत्याशी को स्वीकार नहीं किया तधा नोटा पर मुहर लगाई. बस्तर जैसे अति पिछडे इलाके के आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र में यदि नोटा पर कुल मतदान का 4.56 प्रतिशत वोट पड़े तो समझा जा सकता है कि जागरूकता के मामले में बस्तर के गरीब ग्रामवासी शहरियों से कम नहीं है. 2014 के चुनाव में भी नोटा में 38 हजार 772 वोट पड़े थे.
आदिवासी नेता कवासी लखमा बस्तर संभाग में ही नहीं समूचे छत्तीसगढ़ की राजनीति में जाना पहचाना नाम है. घनघोर नक्सल प्रभावित क्षेत्र कोंटा से वे 6 बार विधायक चुने जा चुके हैं. 25 मई 2013 को झीरम घाटी में कांग्रेस के काफिले पर जो नक्सली हमला हुआ था उसमें विद्याचरण शुक्ल, नंद कुमार पटेल, महेंद्र कर्मा जैसे दिग्गज सहित 29 कांग्रेसी नेता मारे गए थे, लेकिन कवासी लखमा को बख्श दिया गया था. इस घटना के बाद नक्सलियों से उनके कथित संबंधों को लेकर काफी आरोप-प्रत्यारोप का दौर चलता रहा.
बस्तर में कांग्रेस प्रत्याशी के रूप में उनका चयन भी तुरत-फुरत नहीं, पर्याप्त समय लेकर, दीर्घ विचार-विमर्श के बाद किया गया था. उन्हें प्रदेश अध्यक्ष दीपक बैज के स्थान पर रिप्लेस किया गया। इसके पूर्व 2011 के बस्तर लोकसभा उपचुनाव में भी पार्टी ने लखमा को टिकिट दी थी पर वे हार गए थे. यह सीट भाजपा के दिग्गज नेता बलिराम कश्यप के निधन से रिक्त हुई थी. उनके बेटे दिनेश कश्यप ने लखमा को 88 हजार 884 वोटों से हराया था. आंकड़ों के नजरिए से देखें तो बीते तीन चुनावों में भाजपा के वोटों का ग्राफ बढ़ता-घटता रहा है. 2011 के उपचुनाव में भाजपा को 47.45 , कांग्रेस को 32.75 , 2014 के चुनाव में भाजपा को 50.11 कांग्रेस को 33.76 तथा 2019 के चुनाव में भाजपा को 39.83 तो कांग्रेस को 44.10 प्रतिशत वोट मिले थे. इन आंकड़ों पर गौर करें तो कहा जा सकता है किसी की भी जीत आसान नहीं है. यानी जो कोई जीतेगा वो ही सिकंदर कहलाएगा.
इसमें क्या शक है कि अनुसूचित जनजाति बाहुल्य बस्तर व सरगुजा संभाग छत्तीसगढ़ की राजनीति की दिशा तय करते है. इसकी प्रामाणिकता स्वंय सिद्ध है. लेकिन बीते दशकों में राजनीति में जो बदलाव आया है, उसे देखते हुए यह नहीं कहा जा सकता कि आदिवासी मतदाता किसी दल विशेष के प्रति प्रतिबद्ध है.
2018 में सभी 11 सीटें कांग्रेस को जीता दी तो 2023 में उससे सात सीटें वापस ले ली. अतः लोकसभा चुनाव में आदिवासी वोटों का क्या रूख रहेगा, कहना मुश्किल है. फिर भी कतिपय ऐसे कारण हो सकते हैं जो जीत का आधार तैयार करेंगे. मसलन भाजपा सरकार , विधान सभा चुनाव के दौरान किए गए वायदों पर मोदी की गारंटी का ठप्पा लगाकर चुनाव प्रचार कर रही है. खुद मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय बस्तर पर विशेष ध्यान दे रहे हैं. क्षेत्र के पांचों भाजपा विथायक भी जमीन-आसमान एक कर रहे हैं . पार्टी ने जनता के सामने भी महेश कश्यप के रूप में नया चेहरा पेश किया है जो राजनीति में बहुत जाना पहचाना नाम नहीं है लेकिन सांस्कृतिक व सामाजिक क्षेत्र में उनकी गाढ़ी पहचान है. खासकर बस्तर में धर्मांतरण के विरोध में उनकी सक्रियता चर्चा में रही है. चूंकि राज्य में भाजपा की सरकार बने अभी चार-पांच महीने ही हुए हैं इसलिए सत्ता विरोधी लहर भी लगभग शून्य है. इस पर मोदी इफेक्ट के साथ ही राम की महिमा तथा धर्मांतरण भी भाजपा का प्रमुख चुनावी एजेंडा है. इन तथ्यों के आधार पर बीजेपी के पक्ष में सकारात्मक राय कायम की जा सकती है. इसके जवाब में कांग्रेस प्रत्याशी की जमीनी पकड, आम लोगों से सीधा संवाद , राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा, कांग्रेस के नये वायदें जो सार्वजनिक हो चुके हैं तथा कांग्रेस सरकार के पांच वर्षों के शासनकाल में किए गए विकास कार्यों का ब्यौरा पब्लिक के सामने हैं हालांकि विधान सभा चुनाव में मतदाताओं ने इस पर ध्यान नहीं दिया था. इसके बावजूद यदि मतदाताओं के बीच प्रत्याशी की व्यक्तिगत छवि तथा दलीय पैठ को आधार मान लिया जाए तो इस बार भी बस्तर में कांग्रेस का पलड़ा भारी नज़र आता है.
दिवाकर मुक्तिबोध छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ पत्रकार हैं और राज्य की राजनीति की गहरी समझ रखते है.
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