
Nandna Block Print: मध्यप्रदेश के अंतिम छोर पर राजस्थान की सीमा से सटे नीमच जिले की यू तो कई वजहों से पहचान है. नीमच को अफीम की खेती, सबसे बड़ी मसाला ओर औषधि उपज मंडी, सीआरपीएफ की जन्मभूमि, आरोग्य की देवी महामाया भादवा माता मन्दिर से भी जाना जाता है. मगर कला संस्कृति के क्षेत्र में भी इसकी अलग पहचान है. आज से करीब 400 वर्ष से अधिक पहले एक कला का जन्म हुआ था. जिसे नांदना प्रिंट (छपाई) का नाम दिया गया. यह कला देश मे केवल जिले जावद तहसील के तारापुर ओर उमेदपुरा गांव में की जाती थी. नांदना प्रिंट, मध्य प्रदेश की पुरानी पारंपरिक ब्लॉक प्रिंटिंग कला है. यह कला मुख्य रूप से भील जनजाति की महिलाओं द्वारा पहनी जाने वाली पारंपरिक कपड़ों पर देखी जाती है. इसे बनाने में शतप्रतिशत प्राकृतिक रंगों और शुद्ध सूती, सिल्क कपड़ों का उपयोग किया जाता है.

Nandna Block Print: नीमच की छपाई कला
कला के अस्तित्व पर खतरा
करीब 3 दशक पहले इस कला के जुड़े दोनो गांव के लगभग 400 परिवार के सैकड़ों लोगों को रोजगार मिलता था. मगर टेक्सटाइल इंडस्ट्री, सस्ते कपड़ों ने इस परंपरागत कला को गर्त में पहुंचाने का काम किया है. वर्तमान में उमेदपुरा गांव में एक मात्र झरिया परिवार ही बचा है जो इस कला को संरक्षण देने का काम कर रहा है. बाकी दोनों गांवों के लोगों ने अधिक परिश्रम और मार्केट न मिलने के चलते इस कला को छोड़ दिया है. आज यह कल अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही है.
Neemuch, Madhya Pradesh: In Ummedpura village, the 400-year-old Nandna Print craft continues to thrive, with artisans Banwari and Pawan Jariya leading the tradition. Known for using 100% natural dyes, the craft was once worn by tribal women across Madhya Pradesh, Gujarat,… pic.twitter.com/h6hxHGeXiG
— IANS (@ians_india) April 29, 2025
राज्य व राष्ट्रीय स्तर पर सम्मान
झरिया परिवार के कई सदस्यों को राज्य व राष्ट्रीय स्तर पर सम्मानित किया जा चुका है. इस परिवार की 6 पीढ़ियां नांदना प्रिंट की संरक्षित करने ओर आगे बढ़ाने का काम कर रही है. विज्ञान भवन दिल्ली में आयोजित हैंडीक्राफ्ट अवार्ड सेरेमनी कार्यक्रम में तारापुर उम्मेदपुरा के ठप्पा छपाई में उत्कृष्ट कलाकृति नांदना प्रिंट के शिल्पी पवन पिता पुरुषोत्तम झरिया और अनुसुइया पति प्रदीप झरिया को राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित किया गया. प्रदीप झरिया के निधन हो जाने से उनकी पत्नी अनुसूइया को ये पुरस्कार दिया. केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल ने सम्मान दिया. कार्यक्रम में विशेष अतिथि उपराष्ट्रपति जगदीश धनगढ़ मौजूद थे. इसके साथ ही परिवार के बनवारी लाल और उनके स्वर्गीय पिता पुरुषोत्तम झरिया भी राज्य स्तर पर सम्मानित किए गए हैं.

Nandna Block Print: नीमच में इस कला का काम करता झारिया परिवार
45 दिन में तैयार होता नांदना प्रिंट
नांदना प्रिंट में बनी साड़ी, चद्दर आदि को तैयार होने में 30 से 45 दिन तक का समय लगता है. इस दौरान कपड़े को 18 स्टेप में अलग अलग प्रक्रियाओं से होकर गुजरना पड़ता है. इस दौरान रंगाई छपाई के लिए जड़ी बूटियों, वनस्पतियों और प्राकृतिक वस्तुओं से बने कलर का उपयोग किया जाता है. मिट्टी व अन्य पदार्थो से बने लेप में लकड़ी के अलग-अलग ब्लॉक से तैयार की गई डिजाइन में डुबोकर प्रिंट किया जाता हैं.
नांदना प्रिंट के लिए इस तरह से तैयार करते प्राकृतिक कलर
नांदना प्रिंट में प्रयोग आने वाले प्राकृतिक कलर पानी में सोड़ा, अरंडी का तेल, फिटकरी, हरड़ा पावडर, इमली बीज, अलीजरीन, धावड़ा फूल, गोंद, गोंद चूरी, मंजिष्ठा, राजना बेरजा, नील, चुना अनार के छिलके आदि से तैयार किये जाते हैं. लोहे के बर्तन में गुड़ ओर लोहे की चुरी को सड़ाकर जंग से काला रंग, अनार के छिलकों से पीला व अन्य रंग, हरड़ के पावडर से पीले और हल्के रंग, फिटकरी और इंडिगो पौधे से नीला रंग, धावड़े के फूल से लाल और उससे मिलते-जुलते रंग तैयार किए जाते हैं.
कहां से आता है कपड़ा?
नांदना प्रिंट में तैयार की जाने वाली साड़ी, बेडशीट, ड्रेस मटेरियल के लिए कपड़ा देश के अलग अलग स्थानों से लाया जाता है. जिससे महेश्वर, सूरत, इंदौर, बुरहानपुर और चंदेरी मुख्य रूप से शामिल है. इसमे सिल्क, शिफॉन और क्वाटन आदि के हाथ से बुने कपड़े का उपयोग किया जाता हैं. इन्हें भी कई दिनों तक पानी में गलाकर छपाई के लिए तैयार किया जाता है.
आदिवासी लोग करते थे पसंद, महंगी होने से कम होती गई खरीदी
स्वास्थ्य और पर्यावरण के लिए ये कपड़े अनुकूल होते है. प्राकृतिक रूप (ईको फ्रेंडली) और लम्बी जटिल प्रक्रिया से गुजर कर तैयार होने वाले यह कपडे काफी महंगे होते है. इससे आम लोग इससे नहीं खरीद पाते है. एक समय आदिवासी समाज का नांदना मुख्य परिधान था. मगर परंपरागत परिधान की जगह आज सस्ते व बाजार में मिलने वाले अन्य कपड़ों ने ले लिया है. इससे बनी बेड सीट और साड़ी की कीमत काफी अधिक होती है. हालांकि कला प्रेमियों और देश-विदेश के संभ्रांत वर्ग में आज भी इसकी मांग है.
आदिवासी संस्कृति की पहचान
नांदना प्रिंट में 5 डिजाइन बरसों से चलन में आ रहे हैं. इन डिजाइन के नाम झालम बूटा, ढोला मारू, अम्बा, चम्पाकली, मिर्ची है. जिनका अपना अलग महत्व और पहचान है. बताया जाता है इन डिजाइन से पारिधानों के आधार पर लोग यह पहचान लेते थे कि कौन सी महिला विवाहित है या विधवा, कुँवारी है या ब्याहता. इसलिए इस कला को आदिवासी संस्कृति की पहचान के रूप में भी जाना जाता है.
G20 व अन्य प्रदर्शनी
इस कला से जुड़े शिल्पियों को राज्य और केन्द्र सरकार द्वारा विदेश में अपनी कला का प्रदर्शन करने का अवसर समय समय पर मिला. आज भी देश मे मैजूद 2 दर्जन मृगनयनी एम्पोरियम में बिक रहे हैं. ये पारिधन देश-विदेश के अलग-अलग शहरों में आयोजित मेलों और प्रदर्शनियों में स्टॉल लगाए जाते है. गत वर्ष आयोजित दिल्ली में आयोजित G20 सम्मेलन में भी नांदना प्रिंट का प्रदर्शन करके के लिए स्टॉल उपलब्ध करवाया गया.
कलाकारों का क्या कहना है?
शिल्पी पवन झरिया बताते हैं कि इसकी देश विदेश में काफी डिमांड है. जरूर इस बात की है कि प्रचार प्रसार किया जाए. एक साड़ी 1500 से 5000 हजार रुपये तक की होती है. मूल्य कपड़े की क्वालिटी की वजह से कम ज्यादा होता है. बाकी कलर और मेहनत हर कपड़े पर एक जैसी ही की जाती है. कपड़े को सुखाने के लिए जगह की काफी जरूरत है. वह उपलब्ध होनी चाहिए.
शिल्पी बनवारीलाल झरिया बताते है कि इसकी पहचान के लिए सरकार द्वारा कोई खास प्रचार प्रसार ओर ब्रांडिंग नहीं की गई है. हम और कुछ कला प्रेमी अपने स्तर पर इस जीवित रखने का प्रयास कर रहे हैं. सरकार द्वारा योजनाएं तो अच्छी बनाई गई है मगर क्रियान्वयन सही तरीके से नहीं किया जाता. जटिलताओं और क्रियान्वयन के अभाव में शिल्पी को इसका लाभ सही से नहीं मिल पाता. कला को जीवित रखने के लिए सरकार को चाहिए कि फंडिंग करें, यहां के बेरोजगार युवाओं को इस कला का प्रशिक्षण दे, बाजार उपलब्ध करवा, ब्रांडिंग करें.
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