
Medical studies in Hindi: पूरे देश में पहली बार मध्यप्रदेश में हिंदी में मेडिकल की पढ़ाई शुरू हुई थी. खुद केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह इसका उद्घाटन करने आए. इसके लिए 10 करोड़ रुपये की हिंदी मेडिकल किताबें भी छप गईं और प्रदेश में जहां-जहां मेडिकल की पढ़ाई हो रही थी वहां-वहां की लाइब्रेरी में इन्हें सजा भी दिया गया. सरकार ने दावा किया कि अब डॉक्टर हिंदी में भी पढ़ सकते हैं, इलाज भी कर सकते हैं. लेकिन सच्चाई ये है कि इन हिंदी किताबों से पढ़ाई करने वाले मेडिकल स्टूडेंट्स परीक्षा की कॉपी आज भी अंग्रेज़ी में लिख रहे हैं. ये बातें NDTV की पड़ताल में सामने आईं हैं. ऐसे में सवाल उठता है कि क्या सचमुच डॉक्टर अब हिंदी में पढ़ाई कर पा रहे हैं? या ये भी एक सरकारी प्रयोग बनकर रह गया है, जिसमें ‘भाषा' से ज़्यादा 'छवि' का इलाज किया जा रहा है?
तब सपना था- गांव का बेटा भी अपनी भाषा में डॉक्टर बनेगा
तीन साल पहले साल 2022 में मध्यप्रदेश सरकार ने ऐलान किया कि अब मेडिकल की पढ़ाई हिंदी में भी संभव होगी. केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने खुद एमबीबीएस की हिंदी किताबों का विमोचन करते हुए कहा था – "अब गांव का बेटा भी अपनी भाषा में डॉक्टर बन सकेगा." तब इसे एक क्रांतिकारी कदम माना गया था. NDTV ने तीन साल जमीनी हकीकत जानने के लिए जो पड़ताल की उसमें चौंकाने वाली बातें सामने आई. हिंदी माध्यम से पढ़ाई कर रहे कई छात्रों से हम मिले. हमें गांधी मेडिकल कॉलेज भोपाल के छात्र अंकित पांडे जो बातें बताई वो आपको भी जाननी चाहिए. उन्होंने बताया- “मैंने शुरुआत में हिंदी में पढ़ाई की थी, लेकिन परीक्षा इंग्लिश में दी. डर था कि अगर हिंदी में लिखूंगा तो नंबर कम न आ जाएं. अब इंग्लिश ठीक से आती है, तो एग्जाम भी उसी में देता हूं.”
"‘फ्रॉग इन द वेल' बनना नहीं चाहते"
दरअसल अंकित जैसे कई छात्र हिंदी माध्यम से आते हैं जो गांव-कस्बों से निकलकर डॉक्टर बनने का सपना लिए हुए होते हैं. लेकिन जब उन्हें मेडिकल की क्लासरूम में टेक्निकल टर्म्स सुनने को मिलती हैं — ‘फिजियोलॉजी', ‘एनाटॉमी', ‘पैथोलॉजी' — तो उनकी मातृभाषा की ज़मीन डगमगाने लगती है. गांधी मेडिकल कॉलेज में ही पढ़ने वाले दक्ष बताते हैं- “टेक्निकल टर्म्स को हिंदी में समझाना मुश्किल है. अगर हम सुपर स्पेशलाइजेशन या विदेश में पढ़ाई करना चाहें तो इंग्लिश ज़रूरी है. हिंदी में पढ़ने वाले डॉक्टर ‘फ्रॉग इन द वेल' बन सकते हैं, जिन्हें बाहर की दुनिया स्वीकार नहीं करेगी.” तकरीबन यही दुविधा छात्रा दर्शना सूर्यवंशी की बातों में भी दिखती है. वो बताती हैं कि किताबें हिंदी में मौजूद हैं, लाइब्रेरी में भी हैं, लेकिन अब तक किसी सीनियर ने हिंदी में एग्जाम नहीं दिया.यानी किताबें तो हैं, लेकिन उनका ‘इस्तेमाल' अब भी अधूरा है.
किताब छपी, पर कॉपी इंग्लिश में
राज्य सरकार ने अब तक हिंदी मेडिकल किताबों पर 10 करोड़ रुपए खर्च किए हैं.फिजियोलॉजी, एनाटॉमी, बायोकेमिस्ट्री जैसी विषयों की पुस्तकें अनुवादित होकर छप चुकी हैं.लेकिन गांधी मेडिकल कॉलेज के फिजियोलॉजी विभाग के प्रमुख डॉ. राकेश मालवीय इसकी एक कड़वी हकीकत से हमारे सामने रखते हैं- “अब तक एक भी स्टूडेंट ने हिंदी में फिजियोलॉजी का एग्जाम नहीं दिया है. हां, ये छूट ज़रूर है कि अगर कोई चाहे तो हिंदी में लिख सकता है. लेकिन ज़्यादातर छात्र हिंदी से समझते हैं, और अंग्रेज़ी में लिखते हैं – ताकि उनका इंग्लिश भी सुधरे और करियर में दिक्कत न आए.” जाहिर है यानि किताबों की भाषा और कॉपी की भाषा के बीच अब भी एक खाई है, जो छात्रों के आत्मविश्वास को तोड़ती है.
हिंदी में इलाज मुमकिन, पर पढ़ाई में उलझन
गांधी मेडिकल कॉलेज भोपाल की डीन कविता एन सिंह कहती हैं कि सरकारी पहल के बाद हिंदी मीडियम से आए छात्रों की पढ़ाई आसान हुई है, लेकिन अंग्रेज़ी की ज़रूरत अब भी बनी हुई है. वे बताती हैं- “अब वो बच्चे कंफर्टेबल हैं, जिन्हें शुरुआत में इंग्लिश से डर लगता था पर परीक्षा किस भाषा में दें, इसका निर्णय अभी तक छात्रों की सुरक्षा भावना से जुड़ा है – वे रिस्क नहीं लेते।” दूसरी तरफ राज्य स्तर पर हिंदी मेडिकल एजुकेशन को लागू करवाने वाले डॉक्टर लोकेन्द्र दावे मानते हैं कि हिंदी किताबें ‘फैसिलिटेटर' का काम कर रही हैं. वो कहते हैं- “हमने फॉर्म में हिंदी और इंग्लिश अलग-अलग मीडियम नहीं बनाए. लेकिन अगर कोई छात्र हिंदी में एग्जाम देना चाहता है, तो उसे नंबर देने में कोई भेदभाव नहीं किया जाता है.” हालांकि ज़मीनी आंकड़े बताते हैं कि हिंदी को लेकर छात्रों में झिझक अब भी बनी हुई है. वजह? रिजल्ट का डर.
भोपाल के बाहर बदल रही है तस्वीर?
भोपाल के बाहर कुछ मेडिकल कॉलेजों में धीरे-धीरे बदलाव की बयार ज़रूर दिखती है. नेताजी सुभाष मेडिकल कॉलेज की छात्रा चेतना झारिया ने 2022-23 में हिंदी मीडियम से परीक्षा दी.उनका कहना है-
“पहले रिजल्ट अच्छा नहीं आया, लेकिन फिर फैकल्टी ने गाइड किया तो हिंदी में दोबारा एग्जाम दिया, और बेहतर नंबर आए.”. इसी तरह हितकारिणी डेंटल कॉलेज की शीतल कोरी भी मानती हैं कि हिंदी में सवाल मिलने से आत्मविश्वास बढ़ा है. वे बताती हैं- “पहले इंग्लिश मीडियम वाले हमसे आगे निकल जाते थे, अब हम भी कंपीट कर पा रहे हैं. ” इसी तरह सुखसागर मेडिकल कॉलेज के अभिषेक धरवी ने मिक्स लैंग्वेज में एग्जाम दिया और बेहतर प्रदर्शन किया.
आंकड़े क्या कहते हैं?
जब NDTV ने प्रदेश की इकलौती मेडिकल यूनिवर्सिटी — मध्यप्रदेश मेडिकल साइंस यूनिवर्सिटी — से हिंदी में परीक्षा देने वाले छात्रों के आंकड़े मांगे, तो कुलगुरु डॉ. अशोक खंडेलवाल ने बताया- “अब तक हमारे पास थ्योरी के कोई स्पष्ट आंकड़े नहीं हैं. कुछ कॉलेजों ने बताया कि प्रैक्टिकल में 50% ने मिक्स लैंग्वेज, 25% ने हिंदी और 25% ने इंग्लिश में एग्जाम दिया...लेकिन थ्योरी के आंकड़े नहीं हैं.” जाहिर है नीतियों का एलान हो चुका है, किताबें भी छप गईं, लेकिन अब तक इस प्रयोग का कोई सिस्टमैटिक मूल्यांकन नहीं हुआ है.
‘भाषा' नहीं, भरोसे की परीक्षा
राज्य के चिकित्सा शिक्षा मंत्री राजेन्द्र शुक्ल़ का दावा है कि हिंदी में मेडिकल शिक्षा भाषा की अस्मिता से जुड़ा सवाल नहीं, बल्कि भरोसे का विषय है. लेकिन ग्राउंड पर दिख रहा है कि न तो छात्रों को पूरा भरोसा है, न ही सिस्टम ने उनके डर को दूर करने की ठोस कोशिश की है. डॉक्टरों की दुनिया में मातृभाषा के लिए जगह हो- ये सपना आकर्षक ज़रूर है, लेकिन जब परीक्षा की घड़ी आती है, तो सवाल वही पुराना होता है- “अगर मैंने हिंदी में लिखा… तो नंबर मिलेंगे या नहीं?” कुल मिलाकर हिंदी में डॉक्टर बनना अब भी एक अधूरा प्रयोग है- जिसमें भाषा की नहीं, सोच की सर्जरी बाकी है.
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