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MP में अस्पताल सरकारी,जांच निजी हाथों में ! NABL सर्टिफिकेशन के बिना कैसे दे दिए 200 करोड़ ?

मध्यप्रदेश में स्वास्थ्य सुविधाएं निजी हाथों में जा रही हैं ... यहां तक की 10 सरकारी अस्पतालों को भी निजी हाथों में देने की योजना है ... सवाल ये है कि क्या निजी हाथों में देने से स्वास्थ्य सुविधाएं बेहतर हुई हैं या इसमें भ्रष्टाचार की बू है ... फिलहाल सवाल सरकारी अस्पतालों की लैब्स पर हैं ... इन लैब्स को चलाने वाली कंपनी कहती हैं कि उन्होंने सिर्फ़ सरकार की शर्तों के हिसाब से काम किया है

MP में अस्पताल सरकारी,जांच निजी हाथों में ! NABL सर्टिफिकेशन के बिना कैसे दे दिए 200 करोड़ ?

MP Government hospitals: मध्य प्रदेश में सरकारी स्वास्थ्य सेवाएँ धीरे-धीरे प्राइवेट कंपनियों को सौंपी जा रही हैं। सरकार ने 10 सरकारी अस्पतालों को भी प्राइवेट हाथों में देने की योजना बनाई है। लेकिन सवाल यह है कि क्या इस कदम से लोगों को बेहतर सुविधाएं मिल रही हैं, या इसमें कुछ गड़बड़ है? फिलहाल, सवाल सरकारी अस्पतालों में चल रही लैब को लेकर है. इन लैब को चलाने वाली कंपनी का कहना है कि उन्होंने सिर्फ सरकार की शर्तों के हिसाब से काम किया है.

सरकारी अस्पतालों में प्राइवेट लैब का खेल

मध्य प्रदेश के 85 सरकारी अस्पतालों में खून और दूसरी जाँच का काम एक प्राइवेट कंपनी के पास है.यहां रोज़ाना हज़ारों टेस्ट होते हैं. जानकारी के मुताबिक साल 2019 में, इन लैब को चलाने के लिए एक टेंडर निकाला गया. यह टेंडर साइंस हाउस मेडिकल्स प्राइवेट लिमिटेड और पीओसीटी को मिला. टेंडर की एक बड़ी शर्त यह थी कि लैब एनएबीएल (NABL) मानकों के हिसाब से होनी चाहिए. बता दें कि एनएबीएल (National Accreditation Board for Testing and Calibration Laboratories) एक संस्था है जो लैब की क्वालिटी को जांचती है. लेकिन, हैरानी की बात यह है कि उस समय पूरे प्रदेश में एक भी ऐसी सरकारी लैब नहीं थी, जिसके पास यह सर्टिफिकेट हो.

जब सर्टिफाइड लैब थी ही नहीं, तो पेमेंट कैसे हुई?

इस टेंडर के बाद, यह सवाल उठ रहे हैं कि जब शुरुआत में कोई भी लैब एनएबीएल से प्रमाणित नहीं थी, तो सरकार ने उन्हें एनएबीएल की दरों पर बिल का भुगतान कैसे किया? सूत्रों के मुताबिक, हर साल इस काम के लिए कंपनी को लगभग 200 करोड़ रुपए दिए गए. उपमुख्यमंत्री राजेंद्र शुक्ल ने इस मामले पर कहा कि इस टेंडर की शर्तों के हिसाब से क्या हुआ, इसकी जांच के बाद ही कुछ कहना ठीक होगा. जब उनसे पूछा गया कि क्या इस पर कोई कार्रवाई होगी, तो उन्होंने साफ़ कहा, "बिल्कुल, इसमें कोई सवाल ही नहीं उठता. टेंडर की जो शर्तें हैं और जो लैब बनाई गई हैं, उनका पालन हो रहा है या नहीं, हम यह ज़रूर देखेंगे."

कंपनी और अधिकारियों का अपना तर्क

जिस कंपनी को यह काम मिला है, उसके सीईओ पुनीत दुबे का कहना है कि उन्होंने टेंडर की शर्तों के हिसाब से ही काम किया है. उनका दावा है कि मध्य प्रदेश में जो लैब चल रही हैं, वे दुनिया के सबसे अच्छे मानकों वाली हैं. उनकी सारी मशीनें यूएस-एफडीए (US-FDA)से मंज़ूर हैं. हालांकि स्वास्थ्य विभाग के अफसरों ने कैमरे पर तो कुछ नहीं कहा, लेकिन उन्होंने बताया कि उनका मकसद लोगों को बाकी दुनिया जैसी अच्छी सेवाएं देना है. उनका दावा है कि इन लैब की वजह से रिपोर्ट जल्दी और बेहतर मिलने लगी हैं.

जाँच की दरों में अंतर क्यों?

जाँच के दौरान, यह भी पता चला कि सरकारी अस्पतालों में अलग-अलग जगहों पर जांच की दरों में बड़ा फ़र्क है. जैसे, कुछ खास टेस्ट के लिए जिला अस्पताल, सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र (CHC) और मेडिकल कॉलेज में अलग-अलग रेट हैं.

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कंपनी का कहना है कि मेडिकल कॉलेजों में पहले से ही बहुत सारी सुविधाएँ और मशीनें मौजूद थीं, इसलिए वहां उनका निवेश कम था. लेकिन जिला अस्पतालों में उन्हें सब कुछ नया लगाना पड़ा, जिस पर करीब 1 करोड़ रुपए का खर्च आया, इसलिए वहां दरें ज़्यादा हैं.

एनएबीएल सर्टिफिकेशन की धीमी रफ्तार

इन सभी सवालों के बीच एक और बड़ा मुद्दा है—लैब को एनएबीएल प्रमाणित करने की धीमी रफ्तार. इस टेंडर के 6 साल बाद भी, अब तक सिर्फ 34 सरकारी अस्पतालों में चल रही लैब को ही यह सर्टिफिकेट मिल पाया है. यह दिखाता है कि इस पूरी प्रक्रिया में देरी हो रही है, जिससे सवाल उठना लाज़मी है कि क्या सरकार का लक्ष्य पूरा हो पा रहा है या नहीं.

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