
MP Buffalo Scam: आपने बिहार के चर्चित चारा घोटाले के बारे में सुना होगा...अब मिलिए मध्यप्रदेश के भैंस घोटाले से, जो राज्य में पगुराते हुए आया है. दरअसल यहां सरकार ने बैगा-सहरिया आदिवासियों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए भैंस दी, लेकिन वो इतनी आत्मनिर्भर हो गई कि सीधा गांव में रसूखदारों के घर जाकर दूध देना शुरू कर दिया.मतलब आदिवासी सिर्फ नाम के लिए उन भैंसों के मालिक हैं और उनकों मिलने वाली भैसों पर दबंगो-रसूखदार लोगों ने कब्जा कर लिया और इससे मिलने वाली दूध और मलाई डकार रहे हैं. NDTV ने इस घोटाले को लेकर कई गांवों में जाकर पड़ताल की तो हैरान करने वाली तस्वीरें सामने आईं. हमने शिवपुरी और आसपास के इलाकों में पड़ताल की....जहां भैसों को लेकर बड़ा घोटाला करने की आशंका है. आगे बढ़ने से पहले ये जान लेते हैं कि ये योजना है क्या?

पड़ताल के लिए हमने सबसे पहले भैंस प्राप्त करने वाले लाभार्थियों की सूची सरकार से हासिल की. इसके बाद हम पहुंचे शिवपुरी जिले की कोटा ग्राम पंचायत. यहां हम लाभार्थी आदिवासी महिला कुसुमला के घर पहुंचे तो वो घर में नहीं थी. लेकिन उनकी दो बहुएं वहां मौजूद थीं. उन्होंने बताया कि उनके परिवार को दो भैंसे मिली थी. एक तो यहीं है लेकिन दूसरी का पता नहीं वो कहां है.
घरवालों से हमने पूछा - सरकारी भैंस कैसी है?
जवाब मिला - भैंस तो है, पर खाती बहुत है और देती उतना ही जितना सरकार वादा करती है – यानी उम्मीद ...जानकारी मिला कि ये 7-8 किलो काचारा खाती है लेकन दूध डेढ़ लीटर भी नहीं देती. सच्चाई ये है कि सरकार से मिली दो भैसों में से एक तो उनके घर पर बंधी थी और दूसरी किसी रसूखदार के पास. पूछने पर उन लोगों ने बताय- ये भैंसे खाती बहुत ज्यादा हैं और दूध भी उस हिसाब से नहीं देती. इसलिए वे अपनी इन भैंसों को रखने की बजाय दूसरों को देना पसंद करते हैं.

भैसों को लेकर कागजों में लाभार्थियों की पूरी लिस्ट अपडेट है लेकिन जमीन पर ये आपको शायद ही किसी लाभार्थी के पास मिले.
सरकार ने दो भैंसे दी...दोनों सरदार के पास!
बहरहाल हमारे पास पशुपालन विभाग से द्वारा जारी सूची के 75 नाम मौजूद थे. लिहाजा हम दूसरे आदिवासी बहुल गांव बस्ती काकर पहुंचे. यहां जसवीर आदिवासी लाभार्थी थे. जब जसवीर के घर पहुंचे तो वहां एक भी भैंस मौजूद नहीं मिली. जब हमने उनसे पूछा- भैंसे कहां है तो उन्होंने बताया- फॉर्म पर है. फिर हमने पूछा फॉर्म कहां है और किसका है तो जवाब मिला- सरदार का है. मतलब जसवीर को दो भैंसे मिली थीं लेकिन उन्होंने उसे सरदार को दे दिया. पूछने पर कहते हैं- मेरे पास जगह नहीं थी इसलिए दे दिया.
60 लाभार्थियों के यहां भैंसे नहीं मिलीं, अब होगी जांच
हम जब प्रशासन का पक्ष लेने पहुंचे तो आनन-फानन में जांच टीम बना दी गई. हमने प्रशासन को बताया कि हममारे पास 60 लाभार्थियों की सूची है जिसकी हमने जांच की है. एक की भी भैंस खूंटे से बंधी नहीं मिली है. हमने दो गावों में विश्राम, कुसुमला, जसवीर, बीरबल, बालकिशन, राधेश्याम और मिथुन जैसे कई नाम ढूंढ निकाले जिनके पास भैंस नहीं हैं. इस पर पशु पालन विभाग के संयुक्त संचालक डॉ बीपी यादव ने बताया कि जांच की जा रही है. जिन दबंगों ने ऐसा किया है उन पर कार्रवाई भी होगी. डॉ यादव के मुताबिक पहले भी इस तरह की शिकायत आई थी तो कार्रवाई की गई थी. हम एक-एक हितग्राही की जांच करेंगे.
ऐसे कैसे आत्मनिर्भर बनेंगे आदिवासी?
बहरहाल हमारी जांच में सामने आया है कि गांव के रसूखदारों ने आदिवासियों से फार्म भरवाए, दस्तावेज़ लिए, और अंशदान के पैसे खुद जमा कर दिए. मतलब सरकारी योजना में भैंस आदिवासी के नाम, लेकिन बंधी मिली दबंगों के बाड़े में है. कहीं-कहीं तो हमें दोनों भैंसे दबंगों के पास मिली. सरकार कहती है कि आदिवासियों को आत्मनिर्भर बनाना है लेकिन अब सवाल ये है कि आत्मनिर्भर कौन हो रहा है?
आदिवासी या वो भैंस जो खुद तय करती है किसका आँगन उसे पसंद है? हम तो यही कहेंगे कि शायद सरकारी योजनाओं में अब जानवर भी पहचानने लगे हैं – किसके घर जाना है और किसके नाम पर काग़ज़ बनवाना है.
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