Ankur Warikoo in Vishwarang Bhopal: विश्वरंग टैगोर अंतरराष्ट्रीय साहित्य महोत्सव के दूसरे दिन नए दौर के नए कौशल सत्र में स्टार्टअप गुरु, मोटिवेशनल स्पीकर, कंटेंट क्रिएटर और छह पुस्तकों के लेखक अंकुर वारिकू मंच पर पहुंचे. सिद्धार्थ चतुर्वेदी के साथ हुए इस 40–45 मिनट के संवाद ने हंसध्वनि सभागार को ऊर्जा से भर दिया. वारिकू को नए कौशल पर बोलने के लिए बुलाया गया था, लेकिन मंच संभालते ही उन्होंने अपनी शैली में भोपाल और मध्यप्रदेश की गर्मजोशी की तारीफ के साथ शुरुआत की. उन्होंने मुस्कराते हुए कहा- 'पोहा-जलेबी खाकर ही मंच पर आया हूं, और भोपाल हर बार मुझे घर जैसा लगता है.' उन्होंने बताया कि पिछले साल वे 15 दिन परिवार के साथ मध्यप्रदेश घूमते रहे- इंदौर, सतपुड़ा, ओरछा, पचमढ़ी, भोपाल और ये प्रदेश वाकई देश के दिल जैसा है. यहां के लोग आपको बाहरी होने का अहसास नहीं होने देते हैं.
युवाओं को दी टिप्स
अंकुर वारिकू ने सभागार में बैठे युवाओं से पूछा- यहां 20 साल वाले कितने हैं? 30? 40? 50? यह सवाल महज़ उम्र पता करने के लिए नहीं था, बल्कि इस बात के लिए था कि हर उम्र अपने साथ उसकी चुनौतियां, उम्मीदें और नई सीखें लेकर आती है. फिर उन्होंने अपनी जिंदगी की कहानी सुनाना शुरू किया- एक कहानी जो कश्मीर से दिल्ली, दिल्ली से अमेरिका और फिर एक साहसी मोड़ लेकर वापस भारत लौटने तक जाती है. उन्होंने बताया कि वे कश्मीर से हैं, लेकिन बचपन में परिवार दिल्ली आ गया था. 'अब मैं पूरी तरह डेल्ही बॉय हूं.' मिडिल क्लास परिवार, पिता की छोटी-सी नौकरी, एक पुराना स्कूटर और पैसों की तंगी इन हालात ने उन्हें संवेदनशील बनाया. उन्होंने कहा- 'पैसे से नफरत हो गई थी, क्योंकि उससे जुड़ी मुश्किलें रोज़ हमारे घर में दिखती थीं.
ऐसा रहा सफर
दिल्ली यूनिवर्सिटी में प्रवेश लेने के बाद उन्होंने तीन बड़े सपने बुने- पीएचडी करना, स्पेस साइंटिस्ट बनकर नासा पहुंचना और सबसे पहले चांद पर कदम रखने वाला व्यक्ति बनना. अपने पिता को जब ये बात कही तो उन्हें विश्वास नहीं हुआ, लेकिन इसी सपने ने उन्हें अमेरिका पहुंचा दिया. लेकिन वहां, मिशिगन स्टेट यूनिवर्सिटी में वे कुछ दिन में खुद को 'जिंदा लाश' की तरह महसूस करने लगे. बोले- 'मैं पढ़ रहा था, टॉप कर रहा था, लेकिन खुश नहीं था. और अगर खुशी नहीं है, तो उसकी कीमत क्या है?' यहीं से उनका पहला बड़ा मोड़ आया- उन्होंने पीएचडी छोड़ने का निर्णय ले लिया.
अपने लाइव सेशन में उन्होंने बार-बार कहा कि दुनिया को जानने का सबसे खराब तरीका सिर्फ किताबें हैं- 'दुनिया को समझना है तो उसे जीना पड़ेगा, अनुभव करना पड़ेगा.' बातचीत के अंत में उन्होंने कहा कि उनकी सफ़लता के पीछे एक ही सिद्धांत है- 'मैंने कभी मम्मी-पापा की नहीं सुनी. हमेशा खुद को सुना. गलतियां कीं, कन्फ्यूज़ हुआ, पर रुका नहीं. और इसलिए आज मैं यहां हूं.'
वहीं ‘लेखक से मिलिए' कार्यक्रम में प्रतिष्ठित लेखक दिव्य प्रकाश दुबे और वार्ताकार मुदित श्रीवास्तव ने सामूहिक संवाद का समृद्ध अनुभव प्रस्तुत किया. कार्यक्रम का केंद्र रहा दिव्य प्रकाश दुबे की चर्चित कृति ‘यार पापा', जिसे युवाओं से लेकर अनुभवी पाठकों तक ने विशेष सराहना दी है. इस संवाद सत्र में लेखक ने ‘यार पापा' के सृजन-प्रक्रिया के बारे में बताते हुए कहा की किताब लिखने के लिए बच्चा बनना पड़ेगा जिससे आपकी जिज्ञासु प्रवृत्ति बनी रहती है. पात्रों की मनोभूमि और आज के सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भों पर पुस्तक की प्रासंगिकता पर विस्तार चर्चा करते हुए कहा कि लिखने की मेरी बेचैनी ही थी, जिसने यार पापा लिखने की प्रेरणा दी.
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