Narayanpur Police Camp News: छत्तीसगढ़ का अबूझमाड़ (Abujhmad) एक ऐसा इलाका जिसकी पहेली को सुलझाना नामुमकिन माना जाता था. लेकिन साल 2025 की एक तस्वीर बता रही है कि अब 'माड़' बदल रहा है. नारायणपुर (Narayanpur) के कोड़नार (Kodnar Police Camp) में 24वें जन सुरक्षा एवं सुविधा कैंप की स्थापना ने केवल नक्सलियों के पैर नहीं उखाड़े, बल्कि उन रिश्तों को भी जोड़ दिया है जो खौफ की वजह से दशकों से टूटे हुए थे. NDTV की विशेष ग्राउंड रिपोर्ट उस बदलाव पर है, जहां सिर्फ सड़कें नहीं बनीं, बल्कि 16 साल से निर्वासित परिवार वापस लौटे हैं और बेटियां सालों बाद अपने मायके की दहलीज पर पहुँची हैं. साथ ही कैसे 108 एंबुलेंस अब अबूझमाड़ के उन कोनों तक पहुँच रही है, जहां कभी नक्सल साम्राज्य के इजाजद के बगैर परिंदा भी पर नहीं मारता था.
ऐसी है बदलाव कहानी
नारायणपुर जिला मुख्यालय से 50 किलोमीटर दूर, नक्सलियों की राजधानी रहे 'कुतुल' के आगे बसा कोड़नार गांव. यहाँ स्थापित नया सुरक्षा पुलिस कैंप सुरक्षा के साथ-साथ भरोसे का मिशाल बन गया है. "नक्सल उन्मूलन – माड़ बचाओ अभियान" के तहत यहाँ न सिर्फ बिजली-पानी की व्यवस्था सुनिश्चित हो रही है, बल्कि पहली बार मोबाइल नेटवर्क की गूँज सुनाई दी है.
नक्सलियों के काले कानून और 'शासकीय नौकरी वालों को दुश्मन' मानने के खौफ ने उन्हें अपनी ही जड़ों से दूर रखा था. लक्ष्मी के पति श्यामलाल, जो बीएसएफ (BSF) में जवान हैं, शादी के 9 साल बाद पहली बार अपने ससुराल कदम रख पाए. सड़क और सुरक्षा कैंप ने उन्हें यह हिम्मत दी कि वे बेखौफ होकर अपनी मिट्टी पर लौट सकें. यह मिलन सिर्फ एक परिवार का नहीं, बल्कि दहशत पर जीत का प्रतीक है. ऐसी ही एक कहानी फगनी बढ़दा की है. जो 16 साल पहले नक्सलियों ने इनके परिवार को गाँव से निकाल दिया था.
कोड़नार का यह कैंप अब केवल बंदूकधारियों का ठिकाना नहीं, बल्कि बेटियों के मायके पहुँचने का जरिया और बीमारों के लिए जीवन का रास्ता बन गया है. अबूझमाड़ अब 'अबूझ' नहीं रहा, वह अब विकास, सुरक्षा और अपनों के मिलन की नई रोशनी से जगमगा रहा है.
आगे का क्या है प्लान?
शहर के शोर में 16 साल काटने के बाद, कैंप की स्थापना की खबर सुनते ही फगनी अपने घर लौट आई हैं. अब वो अपने बच्चों को आदिम आदिवासी संस्कृति और अपनी खेती-किसानी से दोबारा जोड़ना चाहती हैं. कोड़नार कैंप ने इन निर्वासित परिवारों को वो सुरक्षा दी है, जिसका सपना इन्होंने दशकों से देखा था. बदलाव की इस इबारत में 'संजीवनी 108' एंबुलेंस का जिक्र करना भी जरूरी है.
अगर कोड़नार में कैंप न होता, तो शायद चैते बाई को अस्पताल ले जाने के लिए सड़क ही नहीं मिलती.
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