लोकसभा चुनाव में 370 -400 से अधिक सीटों को जीतने का लक्ष्य लेकर चल रही भारतीय जनता पार्टी की ज़िद को इस बात से भी समझा जा सकता है कि वह उन छोटे राज्यों पर भी फोकस कर रही है जहां तुलनात्मक दृष्टि से सीटों की संख्या अत्यल्प है. 11 लोकसभाई क्षेत्रों का छत्तीसगढ भी इनमें से एक है. राजनीतिक आबोहवा के लिहाज से इनमें रायपुर सर्वाधिक महत्वपूर्ण सीट मानी जाती है. यह निर्वाचन क्षेत्र भाजपा का अभेद्य गढ़ है. अब तक हुए चारों लोकसभा चुनाव उसने जीते हैं. वर्तमान में सुनील सोनी संसद में इस क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते हैं. सवाल है क्या भाजपा आगामी चुनाव में भी रायपुर फतह के अपने कीर्तिमान को कायम रख पाएगी ? आंकड़ों के नजरिए से विचार करें तो यह मुमकिन प्रतीत होता है खासकर इस वजह से भी क्योंकि देश में राम-लहर चली हुई है जो कम से कम लोकसभा चुनाव तक जारी रहेगी जिसका जाहिर है भाजपा को फायदा होगा. दूसरी महत्वपूर्ण बात राज्य में उसकी सरकार है जो कुछ ही महीने पहले हुए विधान सभा चुनाव में कांग्रेस को हराकर एक बार पुनः सत्ता में लौटी है. इसलिए यदि रायपुर लोकसभा की सीट पुनः भाजपा के कब्जे में चली जाए तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए बशर्ते कांग्रेस जीत के विश्वास के साथ ताल ठोंककर मैदान में उतरे तथा किसी ऐसे चेहरे को मौका दें जो भले ही राजनीति के क्षेत्र में बहुत जाना-पहचाना नाम न हो किंतु जिसे उसकी सकारात्मकता,सदाशयता व सेवा भावना की वजह से समूचा समाज जानता हो , आदर करता हो. कांग्रेस के आसपास ऐसे लोगों की कमी नहीं है.
उन्होने 2004 के पहले चुनाव में श्यामाचरण शुक्ल को एक लाख से अधिक वोटों से हराया. 2009 में भूपेश बघेल को करीब 58 हजार वोटों से पीछे किया लेकिन 2014 के चुनाव में उनकी जीत अधिक चमकीली थी. इस लोकसभा क्षेत्र में कांग्रेस की गंभीर पराजय तब हुई जब उसके वरिष्ठ नेता सत्यनारायण शर्मा को रमेश बैस ने दो लाख से अधिक वोटों से हरा दिया. वोटों का यह फासला 2019 के चुनाव में और भी बढा जब भाजपा की टिकिट पर पहली बार चुनाव लड़ रहे सुनील सोनी ने पूर्व महापौर प्रमोद दुबे को लगभग साढ़े तीन लाख वोटों से पराजित किया. आंकड़ों से स्पष्ट होता कि रायपुर लोकसभा में भारतीय जनता पार्टी को कांग्रेस के मुकाबले डेढ़ गुना या इससे अधिक वोट मिलते रहे हैं. प्रतिशत की दृष्टि से देखें तो 2004 में भाजपा 54 दशमलव 54, कांग्रेस 35.75। वर्ष 2009 में भाजपा 49.19 कांग्रेस 41.39। सन 2014 में भाजपा 52.36 कांग्रेस 38.64 तथा 2019 में भाजपा को 60.01 तथा कांग्रेस को 35.07 प्रतिशत वोट हासिल हुए.
लेकिन इस सीट को लगातार जीतने का कीर्तिमान रमेश बैस के नाम है जो इस समय महाराष्ट्र के राज्यपाल हैं. उन्होंने 1989, 1996 ,1998, 1999, 2004, 2009 व 2014 अर्थात सात बार चुनाव जीते। रायपुर की लोकसभाई सीट पर सात दफे की विजेता भारतीय जनता पार्टी जिसके वोटों का ग्राफ क्रमश: ऊंचा ही होता गया है , अब तक अपराजेय है और इस सिलसिले को कायम रखना अब उसकी प्रतिष्ठा का प्रश्न है. आगामी लोकसभा चुनाव में यदि वह अपनी इस सीट को बचा नहीं पाई तो यह उसकी सबसे बड़ी हार मानी जाएगी.
इतिहास को देखें तो कांग्रेस को खोने के लिए कुछ नहीं है अलबत्ता पाने के लिए बहुत कुछ जिसमें महत्वपूर्ण है आत्मविश्वास का वह बल जो रायपुर सीट को जीतने पर मिल सकता है। किंतु भाजपा की चुनौती का माकूल जवाब देना इसलिए भी मुश्किल है क्योंकि नवंबर 2023 में हुए विधान सभा चुनाव में रायपुर संसदीय क्षेत्र की नौ विधान सभा सीटों में से केवल एक भाटापारा सीट उसने जीती है. शेष आठ आरंग, बलौदाबाजार , अभनपुर, धरसींवा, रायपुर ग्रामीण, रायपुर पश्चिम, रायपुर उत्तर तथा रायपुर दक्षिण भाजपा के कब्जे में हैं. इन आठ सीटों मे भाजपा ने कुल 2 लाख 55 हजार 989 वोटों की बढ़त हासिल की है. भाजपा की जीत के इस अंतर को पाटकर बढ़त लेना इस बात पर निर्भर है कि कांग्रेस की रणनीतिक तैयारी कैसी है और क्या राम-लहर व मोदी की गारंटी के बावजूद मतदाताओं का मन बदल सकती है ? कहना मुश्किल है. दरअसल चुनाव भी किक्रेट मैच की तरह ही है जिसमें कभी-कभी जीती हुई बाजी भी पलट जाती है.
दिवाकर मुक्तिबोध छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ पत्रकार हैं और राज्य की राजनीति की गहरी समझ रखते है.
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.