Indore News: इंदौर तकरीबन 30 किलोमीटर दूर महू कैंट की ओर चले जाएं..आपको एक पहाड़ मिलेगा...जिसे देखने के बाद आप इसे बरबस ही हरियाली का पहाड़ कह देंगे. यहां आपको कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत में उगने वाले सभी तरह के पेड़-पौधे मिल जाएंगे. यही नहीं विदेशी फल-फूल भी आपको मिल जाएंगे. मसलन- थाईलैंड के ड्रैगन फ्रूट आदि. लेकिन इसके पीछे की कहानी जान कर आपको और भी आश्चर्य हो सकता है..क्योंकि 22 एकड़ में फैला ये इलाका साल 2007 के पहले पथरीला और बंजर था. यहां सदियों ने पेड़-पौधे तो छोड़िए घास-फूस भी नहीं उगे थे. लेकिन एक रिटायर हो चुके एक शख्स के जुनून ने इस इलाके की तस्वीर ही बदल दी. आज यहां 40 हजार से ज्यादा पौधे लहलहा रहे हैं...कौन है वो शख्स और कैसे बदली इस इलाके की तस्वीर पढ़िए इस रिपोर्ट में
8 साल में लगा दिए 40 हजार पौधे
दरअसल इस इलाके को अब केसर पर्वत कहा जाता है. साल 2007 में इसे पूर्व प्राचार्य प्रोफेसर शंकर लाल गर्ग ने खरीदा. अब 75 साल के हो चुके शंकर लाल बताते हैं कि जब उन्होंने इसे खरीदा था तब ये पहाड़ी पूरी तरह से बंजर और पथरीली थी. साल 2015 में जब वे रिटायर हुए तब उन्होंने इस पथरीली जमीन को एक गुलिस्तान का स्वरूप देने का संकल्प लिया. सितंबर 2016 में उन्होंने यहां पेड़ लगाना शुरू किया. तब आसपास रहने वाले गांव वालों ने इसका विरोध किया. उनका कहना था कि आज तक यहां कोई पेड़ नहीं उगा और वे भी यहां पेड़ लगाने का विचार त्याग दें. लेकिन प्रोफेसर शंकर लाल का जुनून कहां हार मानने वाला था. शुरुआती दौर में शंकर लाल गर्ग ने यहां नीम, पीपल,नींबू आदि के पेड़ लगाना शुरू किए. धीरे-धीरे यहां पेड़ों की संख्या बढ़ने लगी. आज 8 साल बाद यहां कुल 40 हजार से ज्यादा पौधे हैं. प्रोफेसर साहब का लक्ष्य यहां 50 हजार पौधे लगाने का है.
40 डिग्री तापमान में लहलहा दिया केसर
इस पहाड़ को केसर पर्वत नाम कैसे मिला...इसके जवाब में प्रोफेसर साहब बताते हैं- वे यहां कश्मीर में ही उगाए जाने वाले केसर को भी उगाते हैं. इसी से इसका नाम केसर पर्वत पड़ा. प्रोफेसर ने बताया कि हले साल उन्हें इसके लिए कई प्रयत्न करने पड़े. शुरुआत में इसके बीज कश्मीर से मंगाए गए और अगस्त में इन्हें लगाए गया. पहले साल में कुल पांच फूलों को उगाने में सफलता मिली. इसी के अगले साल से गर्मियों में फ्रिज में पानी रख ठंडा किया जाता था और वही पानी पौधों को दिया जाता था. केसर की खेती के लिए यहां छायादार स्थिति बनाई और दिन में करीब 18 डिग्री और रात में 5डिग्री के करीब तापमान मेंटन किया जाता है. इसके लिए इन पौधों पर फ्रिज में रखे पानी का स्प्रे किया जाता है. ये कमाल इसलिए है क्योंकि आम तौर पर मालवा में गर्मियों में तापमान 40 डिग्री से भी ऊपर रहता है.
मुश्किलें बहुत आईं पर मेहनत से हासिल की जीत
प्रोफेसर शंकर लाल गर्ग बताते हैं कि पथरीली जमीन होने के कारण उन्हें कई मुश्किलों का भी सामना करना पड़ा. शुरू में जमीन पर गड्ढे खोदने से लेकर पानी पहुंचाना तक असंभव था. 3 से 4 बार बोरिंग और कुंए की खुदाई करने के बावजूद पानी नहीं निकाला जा सका. इसके बाद उन्होंने यहां लगे पौधों को पानी देने के लिए पानी खरीदने का फैसला किया. इस पानी को इकट्ठा करने के लिए तालाब बनाया. इसके बाद यहां इकट्ठा हुए पानी को ऊपर मौजूद टंकी में भेजा गया. वहां से ड्रिप इरीगेशन के जरिए वैज्ञानिक तरीके से पौधों को पानी पहुंचाया गया. 22 एकड़ की इस पथरीली पहाड़ी पर फिलहाल 40000 पौधे जीवित है और इनके 500 अलग प्रजातियां मौजूद है. प्रोफेसर के मुताबिक यहां मौजूद एक पौधे को बड़ा करने में ₹7000 तक का खर्च आता है.
खाद या गोबर का उपयोग भी नहीं करते खेती में
प्रोफेसर गर्ग बताते हैं कि यहां खेती में उन्होंने किसी प्रकार का खाद या गोबर खाद उपयोग नहीं किया गया है. ऐसे में सवाल उठता है की इन पौधों को पोषक तत्व कैसे प्रदान किए जाते हैं. इस पर डॉ गर्ग ने बताया बारिश के दौरान पानी में नाइट्रोजन सल्फर मौजूद होता है और वह पौधों के लिए साल भर पर्याप्त होता है. अब इस पथरीली पहाड़ी पर सेब, केसर, मौसंबी, संतरा, अनार, रामफल, एवोकाडो, ओलिव,पाइनएप्पल और कई तरह के फूल-फल और पौधे मौजूद हैं.
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