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This Article is From Mar 07, 2024

रीवा लोकसभा सीट का दिलचस्प सियासी इतिहास, 17 चुनाव में 11 बार ब्राह्मण चेहरों ने मारी बाजी

Rewa Lok Sabha Seat: रीवा लोकसभा सीट का सियासी इतिहास बेहद दिलचस्प रहा है. अब तक यहां कुल 17 बार आम चुनाव हुए हैं, जिनमें से 11 बार ब्राह्मण चेहरों को जीत मिली है. इस लेख में आजादी के बाद से अभी तक के लोकसभा चुनाव में रीवा सीट का इतिहास बताया गया है.

रीवा लोकसभा सीट का दिलचस्प सियासी इतिहास, 17 चुनाव में 11 बार ब्राह्मण चेहरों ने मारी बाजी
वर्तमान में रीवा से सांसद जनार्दन मिश्र (BJP) हैं. (फोटो-फेसबुक)

Rewa Lok Sabha Seat Political History: मध्य प्रदेश की सियासत विंध्य क्षेत्र के बिना अधूरी रही है. इस क्षेत्र ने सूबे को मुख्यमंत्री, उपमुख्यमंत्री, विधानसभा अध्यक्ष और कई मंत्री दिए हैं. विंध्य की सियासत का गढ़ रीवा माना जाता है. ये वही रीवा है जो सफेद शेर के लिए प्रसिद्ध है, ये वही रीवा है जो सुपारी के खिलौनों के लिए प्रसिद्ध है, ये वही रीवा है जिसके विश्व प्रसिद्ध दशहरी आम को जीआई टैग प्राप्त है, ये वही रीवा है जो अकबर के नवरत्नों में शामिल तानसेन और बीरबल की जन्मभूमि है. इन सब उपलब्धियों के साथ रीवा अपने अभूतपूर्व विरासत के लिए भी जाना जाता है. 

लेकिन क्या आपको पता है? मध्य प्रदेश की सियासत का इतना महत्वपूर्ण क्षेत्र कभी प्रदेश से अलग हुआ करता था. बात आजादी के दिनों की है. जब, मध्य प्रदेश का कोई अस्तित्व ही नहीं था. आजादी के बाद 4 अप्रैल 1948 को विंध्य प्रदेश की स्थापना हुई, जिसकी राजधानी रीवा हुआ करती थी और इसके राजप्रमुख रीवा रियासत के राजा मार्तण्ड सिंह बने. 1956 में राज्यों के पुनर्गठन के समय विंध्य प्रदेश, भोपाल, मध्य भारत और सीपी एंड बरार यानी कि सेंट्रल प्रोविंसेस एंड बरार. इन चारों का विलय किया गया, जिसके बाद एक नया राज्य मध्य प्रदेश अस्तित्व में आया.

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अब बात करते हैं रीवा की. बीहर और बिछिया नदी के आंचल में बसा हुआ रीवा शहर बघेल वंश के शासकों की राजधानी के साथ-साथ विंध्य प्रदेश की भी राजधानी रहा है. विंध्य को बघेलखंड के रूप में भी जाना जाता है. एक समय ऐसा भी रहा कि रीवा रियासत पूरब में उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर से लेकर पश्चिम में झांसी तक फैली रही, वहीं उत्तर में बांदा से लेकर दक्षिण में वर्तमान छत्तीसगढ़ के कोरिया जिले तक फैली थी. ऐतिहासिक शहर रीवा विश्व में सफेद शेरों की धरती के रूप में भी जाना जाता है. रीवा शहर का नाम रेवा नदी के नाम पर पड़ा जो कि नर्मदा नदी का पौराणिक नाम कहलाता है.

अपने अभूतपूर्व विरासत को समेटे हुए रीवा की राजनीति भी दिलचस्प रही है. अनरिजर्वड रही इस सीट पर हुए अभी तक के चुनावों में यहां की जनता ने किसी भी पार्टी को लंबे समय तक टिकने नहीं दिया. 1952 से 67 तक लगातार चार आम चुनाव में रीवा की जनता ने कांग्रेस के उम्मीदवार को विजयी बनाया. इसके बाद 1971 में रीवा के राजा मार्तण्ड सिंह पहली बार निर्दलीय के रूप में यहां से लोकसभा पहुंचे. रीवा की धरती से वे पहले गैर कांग्रेसी सांसद थे. इमरजेंसी के बाद 1977 के आम चुनाव में यहां की जनता ने पहली बार जनता पार्टी के उम्मीदवार यमुना प्रसाद शास्त्री को जीत का सेहरा पहनाया. इसके बाद 80 और 84 में लगातार दो बार राजा मार्तण्ड सिंह निर्दलीय और कांग्रेस प्रत्याशी के रूप में लोअर हाउस पहुंचे.

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1989 के चुनाव में यमुना प्रसाद शास्त्री एक बार फिर जीते, लेकिन इस बार उनकी पार्टी जनता दल रही. इसके बाद 1991 और 96 के चुनाव में बहुजन समाज पार्टी के प्रत्याशी भीम सिंह पटेल और बुद्धसेन पटेल जीते. 98 के चुनाव में पहली बार भारतीय जनता पार्टी रीवा में अपना परचम फहराने में सफल रही. इस बार पार्टी के प्रत्याशी चंद्रमणि त्रिपाठी चुनाव जीतकर लोकसभा पहुंचे. करीब 14 साल बाद 1999 में एक बार फिर कांग्रेस ने वापसी की और सुंदरलाल तिवारी रीवा के सांसद बने. 2004 के चुनाव में बीजेपी के उम्मीदवार चंद्रमणि त्रिपाठी एक बार फिर चुनाव जीते और सांसद बने. 2009 के लोकसभा चुनाव में बीएसपी के उम्मीदवार देवराज सिंह पटेल रीवा से जीतकर संसद पहुंचे. इसके बाद 2014 और 2019 में लगातार दो बार बीजेपी प्रत्याशी जनार्दन मिश्र यहां से जीतकर सांसद बने. और अब एक बार फिर बीजेपी ने उन्हीं पर भरोसा जताते हुए जनार्दन मिश्र को रीवा से लोकसभा प्रत्याशी बनाया है.

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