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This Article is From Oct 23, 2023

Shahi Dussehra: ग्वालियर में आज भी होता है शाही दशहरे का आयोजन, जानें कितनी पुरानी है ये परंपरा? 

Shahi Dussehra 2023: ग्वालियर में शाही दशहरे की शुरुआत लगभग ढाई सौ वर्ष पहले सिंधिया राज परिवार ने की थी. हालांकि राजतंत्र चले जाने के बाद भी सिंधिया परिवार आज भी अपनी परंपरा को उसी शाही अंदाज में मनाते चले आ रहे हैं. 

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Shahi Dussehra: ग्वालियर में आज भी होता है शाही दशहरे का आयोजन, जानें कितनी पुरानी है ये परंपरा? 
शमी वृक्ष का पूजन और और इसका वितरण क्यों होता है 

Gwalior Shahi Dussehra: देश में दशहरे (Dussehra 2023) का त्योहार पूरे धूमधाम से मनाया जा रहा है. इस त्योहार को पूरे भारत में अलग-अलग तरीके से मनाया जाता है. देश के कई जगहों पर दशहरे के त्योहार को हर्षोल्लास और भव्यता के साथ सेलिब्रेट किया जाता है, लेकिन देश में तीन ही ऐसे जगह है जहां शाही अंदाज में दशहरे का आयोजन किया जाता है और वो हैं कुल्लू ,मैसूर और ग्वालियर. दरअसल, ग्वालियर (Gwalior Shahi Dussehra) का शाही दशहरा दुनिया भर में काफी फेमस है और इसका आयोजन ढाई सौ साल से अधिक समय से हो रहा है. 

बता दें कि ग्वालियर  (Gwalior) में इसकी शुरुआत लगभग ढाई सौ वर्ष पहले सिंधिया राज परिवार (Scindia family) ने की थी. हालांकि राजतंत्र चले जाने के बाद भी सिंधिया परिवार ने आज भी अपनी परम्परा को उसी शाही अंदाज में मनाते चले आ रहे हैं. 

पहले निकलती थी महाराज की सवारी 

ग्वालियर में इस शाही दशहरे की मनाने की परम्परा ढाई सौ वर्ष पहले सिंधिया परिवार के तत्कालीन महाराज दौलत राव सिंधिया (Maharaj Daulat Rao Scindia) ने शुरू की थी. दरअसल, महाराज दौलत राव ने अपनी राजधानी मालवा से हटाकर ग्वालियर लाने की खुशी में इसकी शुरुआत की थी. यहां उन्होंने गोरखी स्थित अपने महल में अपने कुलगुरु बाबा मंसूर शाह का स्थान बनवाया और मांढरे की माता के नीचे मैदान को दशहरा मैदान के रूप में चयनित किया था. पहले जब सिंधिया राज परिवार गोरखी स्थित महल में रहता था तो दशहरा को हाथी, घोड़ा और पैदल सैनिकों के साथ महाराज का दशहरा उत्सव महाराज बाड़ा से शुरू होता था. इस दौरान सिंधिया राज्य की सैन्य शक्ति का भी प्रदर्शन किया जाता था.

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वहीं महाराज बाबा मंसूर साहब की आराधना के बाद शाही अंदाज में गोरखी महल परिसर से निकलते थे और फिर वह शहर के मुख्य मार्गों से होते हुए दशहरा मैदान पहुंचते थे और वहां शमी पूजन करते थे. बाद में सिंधिया राज परिवार नए जयविलास पैलस में रहने आया तो ये जलसा समारोह जयविलास पैलस  से शुरू होने लगा. तब रियासत से जुड़े तमाम राजे - रजबाड़ों के लोग, प्रमुख जमींदार और जागीरदारों की मौजूदगी होती थी जो दशहरे पर महाराज से जुहार करने के लिए यहां पहुंचते थे और  शाम में प्रमुख सरदारों के साथ दशहरे की भोज पार्टी का आयोजन होता था. 

स्वतंत्रता बाद बदला तरीका, लेकिन आयोजन आज भी जारी 

देश के स्वतंत्र हो जाने के बाद राज परिवार का शाही तामझाम खत्म हो गया और महल की तरफ से होने वाला आयोजन हिन्दू दशहरा समिति के नाम से आयोजित होने लगा. इसमें शमी पूजन के बाद सिंधिया परिवार के पुरुष मुखिया अपने परंपरागत शाही लिबास में भव्य चल समारोह के साथ दौलतगंज में आयोजित होने वाले दशहरा मिलान समारोह में पहुंचते थे. इतना ही नहीं माधव राव सिंधिया भी कुछ सालों तक इस आयोजन में जाते रहे और संक्षिप्त सम्बोधन भी देते थे, लेकिन बाद में ये आयोजन बंद हो गया, लेकिन सिंधिया परिवारा का शमी पूजन दशहरा समारोह आज भी पहले की तरह जारी रहा.

शमी पूजन परम्परा अभी भी जारी 

सिंधिया परिवार का परंपरागत दशहरे पर होने वाले शमी पूजन की परम्परा आज भी बदस्तूर जारी है. दशहरा पर सिंधिया परिवार के महाराज और युवराज महान आर्यमन सिंधिया सुबह मंसूर साहब की पूजा -अर्चना करने जाते हैं और शाम को परंपरागत शाही लिबास में सिंधिया महाराजा के लिए तय वस्त्र और आभूषण और तलबार लेकर मांडरे की माता के नीचे स्थित दशहरा मैदान में पहुंचते हैं. वहीं महाराष्ट्र से आये कुल पुरोहित दशहरा पूजन कराते हैं. इसके बाद सिंधिया तलवार से शमी वृक्ष की डाल को प्रतीकात्मक स्पर्श करके काटते हैं फिर इसकी पत्तियां लूटने की होड़ मचती है और फिर लोग यह पत्ती सिंधिया को भेंट कर उन्हें दशहरे की मुबारकवाद देते हैं.

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इन पत्तियों को सोना कहा जाता है. शाम को जयविलास पैलेस में दरबार का आयोजन होता है, इसमें रियासत से जुड़े पुराने सरदारों के परिजन महाराज को बधाई देने महल में पहुंचते हैं. इतना ही नहीं पहले की तरह रात में शाही डिनर भी होता है.

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ग्वालियर में कैसी शुरू हुआ शाही दशहरे का आयोजन 

सिंधिया राज परिवार के नजदीक रहे विधायक और अनेक पदों पर रहे ब्रिगेडियर नरसिंह राव पंवार के अनुसार,  सिंधिया राजवंश की ये परम्परा लगभग चार सौ साल पुरानी है. पहले इनकी राजधानी उज्जैन में थी, तब वहां ये परम्परा शुरू हुई थी, लेकिन महाराज जी सिंधिया ने पानीपत युद्ध में जीत के बाद ग्वालियर को अपना केंद्र बनाया, लेकिन मुगलों के बढ़ते प्रभाव को रोकने और देशी राजाओं के साथ होने वाले विद्रोहों को खत्म करने के लिए महाराजा दौलत राव सिंधिया ने लश्कर शहर बसाकर ग्वालियर को राजधानी के रूप में स्थापित किया और उसी समय शाही दशहरे का आयोजन उन्होंने शुरू की थी. स्वतंत्रता पूर्व तक यहां महाराज को इक्कीस तोपों की सलामी भी दी जाती थी.

शमी वृक्ष का पूजन क्यों होता है इतना खास

दशहरा पर सिंधिया परिवार का मुखिया दशहरा पूजन के बाद शमी वृक्ष की एक डाल अपनी तलवार से काटता है और फिर उसकी पत्तियां लूटी जाती है. ग्वालियर के शाही दशहरा मैदान में पहले शमी का विशाल वृक्ष होता था, लेकिन अब सारे पेड़ काट दिए गए और बड़े मैदान में भी कई भवन बन गए. हालांकि अब सिंधिया के पहुंचने से पहले कारिंदे शमी वृक्ष की पत्तियों से लदी एक बड़ी डाल को काटकर यहां पेड़ की तरह स्थापित करते हैं और पिर उसकी पूजा की है.

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महाभारत काल से जुड़ी है परंपरा

दरअसल, शमी की पत्तियों की किंवदंती महाभारत के आर्थिक सम्पन्नता काल से जुड़ी हुई है. कहा जाता है कि दशहरे के दिन ही पांडव अपना वनवास काल पूरा करके हस्तिनापुर लौटे थे और वन गमन से पूर्व अपने अस्त्र शमी वृक्ष में ही छुपाकर रख गए थे और हस्तिनापुर से लौटने के पहले पांडव उसी वृक्ष के पास सबसे पहले गए थे. लेकिन जब वो अपना राज पाठ संभालने हस्तिनापुर पहुंचे तो कौरवों ने राज सौंपने से इंकार कर दिया, लेकिन वहां की प्रजा शहर से बाहर स्थित उसी शमी वृक्ष के पास पहुंच गयी और पांडव को दशहरा पर बधाई देने लगी.

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साथ ही प्रजा पांडव के लिए कीमती उपहार बी लेकर आए थे, लेकिन पांडव के पास प्रजा को देने के लिए कुछ भी नहीं था. हालांकि अर्जुन ने पूजन के बाद शमी की पेड़ पर  तलवार से प्रहार किया. फिर प्रजा और राजा दोनों ने ही एक दूसरे को इसकी पत्तियां भेंट स्वरुप दी और तभी से इसे राज घरानों में सोना कहा जाने लगा और आज भी लोग इन पत्तियों को साल भर तक इसे अपने सोने-चांदी के आभूषणों के साथ रखते हैं. मान्यता है कि सोने के साथ इन पत्तियां को खजाने में रखने से सम्पन्नता निरंतर रहती है. 

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महल में लगता है दशहरा दरबार 

राजकाल में दशहरे के दिन जयविलास पैलेस के ऊपरी भाग में स्थित हॉल में महराज का दशहरा दरबार लगता था, इसमें आमजन की एंट्री नहीं होती थी.  इसमें सिंधिया राजतंत्र के सरदार, आसपास के महाराज, राजा और बड़े जमींदार और जागीरदारों को ही प्रवेश मिलता था. इस दौरान उपहार देने की भी परम्परा रहती थी. विशिष्ट लोगों से मिलने के बाद महाराज आमजनों से भी भेंट करते थे. 

आज शाम में किया जाएगा शमी पूजन 

आज दशहरे पर केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया और उनके बेटे महाआर्यमन सिंधिया शाही लिबास में जयविलास पैलेस से दशहरा मैदान पहुंचेंगे. यहां सिंधिया राजशाही के बैंड द्वारा परंपरागत वाद्य यंत्र और धुन बजाकर उनका स्वागत करेंगे. यहां पहुंचकर पहले राज पुरोहित मंत्रोच्चार के साथ सिंधिया राज परिवार के प्रतीकों चिन्हों का पूजन करेंगे और फिर शमी की पत्तियां तोड़कर एक-दूसरे को भेंट स्वरुप देंगे.

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