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रीवा में निभाई गई 167 साल पुरानी परंपरा, मोहर्रम के दिन निकाली गई ताजिया, जानें इन दिन का इतिहास

Muharram Month: रीवा में पिछले 167 साल से चली आ रही परंपरा को निभाते हुए इस साल भी मोहर्रम की ताजिया निकाली गई. इस दौरान सभी धर्म के लोगों ने इसमें सहयोग किया.

रीवा में निभाई गई 167 साल पुरानी परंपरा, मोहर्रम के दिन निकाली गई ताजिया, जानें इन दिन का इतिहास

Muharram 2024: मध्य प्रदेश (Madhya Pradesh) के रीवा (Rewa) में 167 सालों से चली आ रही परंपरा एक बार फिर निभाई गई. गमे हुसैन यानी मोहर्रम, इस्लाम धर्म (Islam Religion) का मातमी पर्व पूरे देश के साथ रीवा में भी मनाया गया. हर साल की तरह इस साल भी रीवा किला (Rewa Fort) से ताजिया निकाली गई, जो पूरे शहर में गई. इस दौरान ढोल ताशे भी बजाए गए. ताजिया (Tajia) में सभी धर्म के लोगों ने बढ़-चढ़कर अपनी हिस्सेदारी निभाई. बता दें कि लगभग 1385 साल पहले मोहर्रम माह की 10 तारीख को यौमे आशूरा के दिन मोहर्रम मोहम्मद साहब के नवासे व हजरत अली के पुत्र हजरत इमाम हुसैन और उनके 72 साथियों को कर्बला के मैदान में शहीद कर दिया गया था. इस्लामिक कैलेंडर (Islamic Calender) के हिसाब से यह साल 1446 हिजरी का है.

Muharram in Rewa

ताजिया निकालते समय सभी धर्म के लोगों इसमें हिस्सा लिया.

इस्लाम धर्म में नए साल की शुरुआत मोहर्रम महीने से ही होती है. रीवा में यह परंपरा पिछले 167 सालों से निभाई जा रही है. इस बार भी रीवा के किले में सुबह ताजिया इकट्ठा हुईं. इसके बाद ताजिया पूरे शहर में निकली. यह सिलसिला देर रात तक चलता रहा. इस्लाम के हिसाब से मोहर्रम नए साल का पहला महीना होता है. इसी महीने की 10 तारीख को कर्बला के मैदान में इस्लाम धर्म के पैगंबर हजरत मोहम्मद के नवासे हुसैन को शहीद कर दिया गया था. उन्हीं की याद में इस्लाम धर्म को मानने वाले इस दिन हजरत हुसैन की शहादत को याद करते हैं.

हजरत हुसैन कौन थे?

हजरत हुसैन इस्लाम धर्म के आखिरी पैगंबर हजरत मोहम्मद के नवासे थे, जो उनकी एकमात्र बेटी फातिमा के बेटे थे. हजरत अली के लाल थे. जिसके चलते उस दौर में उनका बेहद सम्मान था, उन्हें कर्बला के मैदान में उस समय शहीद किया गया, जब वह अपने 72 साथियों के साथ थे. युद्ध के दौरान नमाज पढ़ने के लिए वे अपने घोड़े से उतरे थे. इस्लाम धर्म को मानने वाले मानते हैं कि हजरत हुसैन ने सजदे में सर कटा कर इस्लाम धर्म को जिंदा कर दिया. जिसके चलते मोहर्रम माह की 10 तारीख को हजरत हुसैन को याद किया जाता है. इस्लाम धर्म को मानने वाले उन्हें अलग-अलग अंदाज में याद करते हैं.

Muharram in Rewa

शहर भर में ताजिया को घुमाया गया.

कर्बला के मैदान में क्या हुआ था?

आज से लगभग 1385 साल पहले सन् 61 हिजरी में कर्बला के मैदान में इस्लाम धर्म के पैगंबर हजरत मोहम्मद के नवासे हजरत हुसैन को शहीद कर दिया गया था. दरअसल, उस समय खलीफा राबिया का इंतकाल हुआ था. उनका बेटा यजीद खलीफा बन गया था. इस्लाम धर्म में खलीफा जल्दी किसी को नहीं बनाया जाता था. खलीफा बनने के कड़े नियम थे. पिता के बाद पुत्र की प्रथा नहीं थी. जिसके चलते हुसैन और कई लोग इसका विरोध कर रहे थे. हुसैन उस समय मदीने में थे. कूफा से संदेशा आया आप कूफा आ जाएं, हम लोग आपके साथ हैं. अपने साथियों के साथ विचार विमर्श करके हजरत हुसैन ने कूफा जाने का फैसला किया, जब वह वर्तमान इराक की राजधानी बगदाद से 120 किलोमीटर दूर कर्बला नामक जगह पर पहुंचे, यजीद के सैनिकों ने उनको घेर लिया. हजरत हुसैन के साथ 72 लोगों का काफिला था. जिसमें 6 माह के अली असगर सहित महिलाएं भी थीं.

Muharram in Rewa

रीवा में मोहर्रम के मौके पर ताजिया निकालने की परंपरा कई सालों पुरानी है.

बगल में नदी थी, फिर भी पानी नहीं मिला

हजरत हुसैन के काफिले में पानी खत्म हो गया था. यजीद के सैनिकों ने नदी को चारों ओर से घेर के रखा था. पानी नहीं दिया, शर्त थी यजीद को खलीफा मानो. हुसैन गलत काम के लिए झुकने के लिए तैयार नहीं हुए. जिसके चलते एक-एक करके हुसैन के काफिले के लोग जिसमें परिवार के लोग ज्यादा थे, शहीद होते चले गए. उन्होंने यजीद की शर्त नहीं मानी. 6 माह के अली असगर को भी यजीद के सैनिकों ने प्यासा मार दिया और महिलाओं को कैद कर लिया. तभी से हर साल हजरत हुसैन की याद में मुस्लिम धर्म को मानने वाले उनको अपने ही अंदाज में याद करते हैं.

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