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This Article is From Oct 09, 2023

बेहतर विकल्प हो सकते थे रमेश बैस

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Diwakar Muktibodh
  • विचार,
  • Updated:
    October 09, 2023 7:38 pm IST
    • Published On October 09, 2023 19:38 IST
    • Last Updated On October 09, 2023 19:38 IST

रमेश बैस छत्तीसगढ़ की राजनीति में बड़ा जाना-पहचान नाम है. वे अभी महाराष्ट्र के राज्यपाल हैं जिनका कार्यकाल अगस्त 2024 में समाप्त हो जाएगा. तब तक बैस 77 के हो जाएंगे. भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व की दृष्टि से वे भी दर्जनों अन्य की तरह मार्ग दर्शक मंडल के सदस्य बनाए जा सकते हैं जिनके प्रदीर्घ राजनीतिक अनुभवों की जरूरत पार्टी को नही है. भाजपा ने 75 पार नेताओं को बाहर का रास्ता दिखाने का यह बहुत अच्छा रास्ता निकाला है. उन्हें कूडेदान में फेंकने के बजाए सम्मानजनक ढंग से राजनीति से बिदाई के इस तरीक़े से दोनों पक्षों को फायदा है. पहला पक्ष आलोचना व जन-निंदा से बच जाता है तो दूसरा पक्ष कॉलर ठीक करके चुपचाप इस अघोषित स्थिति को स्वीकार कर लेता है. लेकिन सभी उम्रदराज नेताओं के मामले में ऐसा होना आवश्यक नहीं है. अपवाद कही भी ,कभी भी,किसी भी के साथ हो सकते हैं चाहे नेता राष्ट्रीय ख्याति का हो या प्रादेशिक. सवाल है कि क्या महाराष्ट्र के राज्यपाल रमेश बैस अपवाद इस श्रेणी में आएंगे ? गृह प्रदेश की राजनीति में उनकी वापसी होगी या उन्हें घर बैठा दिया जाएगा ? जवाब फिलहाल मुश्किल है.

कांग्रेस सरकार के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की तरह रमेश बैस भी खालिस छत्तीसगढ़िया. खेत खलिहान वाले नेता. वे पिछड़े वर्ग के बड़े नेता माने जाते हैं. रायपुर लोकसभा सीट से वे सात बार के सांसद रहे.

2019 के चुनाव में पार्टी ने उन्हें टिकिट नहीं दी लेकिन एवज में त्रिपुरा का राज्यपाल बना दिया. उनके इसी कार्यकाल के दरमियान थोड़ा सा कद और बढ़ाते हुए उन्हें त्रिपुरा से कुछ बड़ा राज्य झारखंड में पहुंचा दिया गया. झारखंड में अभी चंद महीने ही बीते थे कि उन्हें और बड़ा राज्य दे दिया गया. उन्हें 18 फरवरी 2023 को महाराष्ट्र जैसे बडे़ राज्य के राज्यपाल की जिम्मेदारी  सौंप दी गई.

यह संयोग ही है कि झारखंड में मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के मामले को छोड़ दें, कोई ऐसी गंभीर संवैधानिक स्थितियां पैदा नहीं हुई जिससे रमेश बैस को माथापच्ची करनी पड़ी हो. तीन राज्यों में फैला हुआ पांच साल का उनका अब तक का कार्यकाल कह सकते हैं, बहुत सम्मानजनक ढंग से गुज़रा है, गुज़र रहा है.

छत्तीसगढ़ में रमेश बैस को तकदीर का महाधनी माना जाता है. उनमें राजनीतिक चतुराई तथा काइंयापन नहीं है. स्वभाव से सरल, सौम्य व शांत यह नेता संयोग व भाग्य के दम पर अहिस्ता-अहिस्ता सीढियां चढ़ते हुए शीर्ष पर पहुंच गया. उनका राजनीतिक इतिहास अद्भुत है. पिछले 40 वर्षों से रायपुर लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र यदि भारतीय जनता पार्टी का अभेद्य गढ़ रहा है तो इसका एकमात्र श्रेय रमेश बैस को है जिन्होंने बीते चुनावों में दिग्गज कांग्रेसी नेताओं को धूल चटाई. इनमें प्रमुख हैं शुक्ल बंधु विद्याचरण शुक्ल (लोकसभा चुनाव 1998) व श्यामाचरण शुक्ल (2004). बैस से पराजित अन्य कांग्रेस प्रत्याशी रहे हैं सर्वश्री केयूर भूषण  (1989), धनेन्द्र साहू (1996 ), जुगलकिशोर साहू (1999), भूपेश बघेल (2009) व सत्यनारायण शर्मा (2014).।वीसी शुक्ल के खिलाफ बैस वर्ष 1991 का चुनाव भी लगभग जीत ही गए थे. वे यह चुनाव महज 981 वोटों से हारे हालांकि बाद के वर्षों में हाईकोर्ट ने बैस के पक्ष में फैसला दिया था.।इसके खिलाफ विद्याचरण शुक्ल सुप्रीम कोर्ट गए लेकिन अगला लोकसभा चुनाव समीप आने की वजह से रमेश बैस ने इस मामले को छोड़ दिया.

बैस में कलात्मक अभिरूचियां हैं.काष्ठकला, बागवानी व टेलरिंग उनके पसंदीदा कामों में से है. राजनीति में सक्रिय होने के बाद वे इसमें कितना समय दे पाते हैं, कहना मुश्किल है. पर यह कहा जा सकता है कि राजनीति में न रहते तो वे इसमें रमे रहते.

राजनीति में उनकी शुरुआत 1978 में नगर निगम पार्षद के रूप में हुई थी. वे 1980 में मध्यप्रदेश विधानसभा के लिए चुने गए. 84 के बाद उनका संसदीय जीवन प्रारंभ हो गया. इस दौरान वे केंद्र सरकार में वर्ष 1999, 2003, 2004 व 2009 के अलग अलग कालखंड में चार दफे विभिन्न मंत्रालयों के राज्य मंत्री तथा स्वतंत्र प्रभार मंत्री रहे. 29 जुलाई 2019 से वे राज्यपाल हैं.

बैस छत्तीसगढ़ में पिछड़े वर्ग के बड़े नेता माने जाते हैं जिसकी आबादी राज्य की कुल जनसंख्या का लगभग 52 प्रतिशत है. अपने राजनीतिक करियर को और अधिक चमकाने का उनके पास  एक नायाब मौका था जब केन्द्र में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में मंत्री रहते हुए उन्हें छत्तीसगढ़ भाजपा के अध्यक्ष की जिम्मेदारी स्वीकार करने का प्रस्ताव दिया गया था. दरअसल नये छत्तीसगढ़ राज्य का पहला विधानसभा चुनाव 2003 में होना था. लिहाज़ा पार्टी के केन्द्रीय नेताओं ने पिछड़े वर्ग के लोकप्रिय प्रतिनिधि के रूप में उन्हें प्रदेश भाजपा की कमान सौंपनी चाही लेकिन बैस ने संगठन में जिम्मेदारी स्वीकार करने के बजाय केंद्र सरकार में मंत्री रहना बेहतर समझा. सो , उन्होंने इस पेशकश को स्वीकार नहीं किया लेकिन डॉक्टर रमन सिंह इसके लिए तैयार हो गए जो उस समय अटल सरकार में उद्योग राज्य मंत्री थे. इस एक घटना से रमन सिंह की किस्मत रातोंरात बदल गई. प्रदेश भाजपा ने उनके नेतृत्व में 2003 का विधानसभा चुनाव लडा़ और जीता. डॉक्टर रमन सिंह मुख्यमंत्री बन गए. फिर उनकी कमान में पार्टी ने लगातार 2008 व 2013 का विधानसभा चुनाव जीतकर इतिहास रचा. पंद्रह वर्षों तक राज करनेवाले रमन सिंह के लिए रमेश बैस चुनौती बन सकते थे पर उन्हें प्रदेश की राजनीति से बाहर कर दिया गया था. बैस को निश्चित रूप से इस बात का मलाल होगा कि उन्होंने हाथ में आया मौका गवां दिया था अन्यथा रमन सिंह के स्थान पर वे छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रहते. अपनी व्यथा उन्होंने सार्वजनिक रूप से कभी व्यक्त नहीं की अलबत्ता बीच-बीच में वे रमन सरकार की आलोचना करते रहे.  यह कहा जा सकता है कि रमन सिंह दो कार्यकाल के बाद बदल दिए गए होते तो उनके नेतृत्व में 2018 के चुनाव में भाजपा की इतनी बुरी गत न होती. इस चुनाव में भाजपा को 90 में से कुल 15 सीटें ही मिली.

बहरहाल अब जब भाजपा का केन्द्रीय नेतृत्व छत्तीसगढ़ का 2023 का चुनाव जीतने के लिए एडी-चोटी का जोर एक कर रहा है तब राजनीतिक हलकों में यह सवाल पूछा जा रहा है कि क्या भाजपा के आला नेताओं ने  पिछड़े वर्ग का कार्ड खेलने में गलती की ?

यह सच है कि भाजपा के पास इस वर्ग से कुछ बडे़ नेता हैं जिनमें दुर्ग के सांसद विजय बघेल भी शामिल हैं. लेकिन क्या वे रमेश बैस के कद के हैं ? क्या अधिक बेहतर न होता कि रमेश बैस की राज्यपाल के पद से छुट्टी कराकर उन्हें छत्तीसगढ़ की राजनीति में सक्रिय किया जाता ? नेतृत्व संकट से दौर से गुज़र रही पार्टी के लिए यह संजीवनी रहती.

पिछड़े वर्ग के प्रतिनिधि के रूप में पक्ष-विपक्ष के दो दिग्गज नेता यानी मुख्यमंत्री भूपेश बघेल व रमेश बैस आमने-सामने होते.चुनाव में कांग्रेस के मुकाबला करने में रमेश बैस शायद अधिक सक्षम रहते.

इसी वर्ष अगस्त में रमेश बैस के जन्मदिन पर जो जलसा हुआ  उससे यह संकेत गया था कि चुनाव की दृष्टि से बैस की वापसी हो रही है किंतु दिन बीतते गए और ऐसा कुछ नहीं हुआ. चुनाव में अब बहुत कम समय शेष है अतः बैस वापसी की संभावना नहीं है.।इसका संकेत भी तभी मिल गया था जब भाजपा की 21 प्रत्याशियों की पहली अधिकृत सूची जारी हुई जिसमें भूपेश बघेल के निर्वाचन क्षेत्र पाटन से उनके मुकाबले में उनके ही भतीजे विजय बघेल का नाम सामने आया. अब पिछड़े वर्ग के नेता के रूप में विजय बघेल का कद कितना बड़ा या छोटा होगा, यह चुनाव के नतीजे से स्पष्ट हो जाएगा.

जैसी कि भाजपा की  उम्रदराज नेताओं को स्थाई आराम देने की नीति है, रमेश बैस उसमें फिट बैठते हैं किंतु अपवाद से इंकार कैसा ? संवैधानिक पद से निवृत्ति के बाद सक्रिय राजनीति में वापसी के अनेक उदाहरण हैं. यह पार्टी नेतृत्व पर निर्भर है कि वह वापसी का अवसर दे या नहीं.

चूंकि छत्तीसगढ़ भाजपा नेतृत्व के संकट से गुज़र रही है इसलिए उम्र की कथित शर्त को दरकिनार करते हुए वह अनुभव व जातिगत समीकरण को प्राथमिकता दे सकती थी. चुनाव की टिकिट जिन प्रत्याशियों को मिलने की बात है, उनमें 70-75 पार नेताओं के भी नाम है. सबसे ज्यादा आयु के पूर्व गृहमंत्री ननकी राम कंवर हैं जो 80 के हैं.  इसलिए यह मानना चाहिए कि चुनाव की राजनीति में उम्र बंधन नहीं है. पकी उम्र के जो नेता जीत का माद्दा रखते हैं, उन्हें टिकिट दे दी जाती है. रमेश बैस अब सवाल नहीं है पर क्या यह मानकर चलना चाहिए कि पार्टी के प्रधान कर्ताधर्ताओं ने उन्हें  2024 के लोकसभा चुनाव के लिए रिजर्व रखा है ?

दिवाकर मुक्तिबोध छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ पत्रकार हैं और राज्य की राजनीति की गहरी समझ रखते है.

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.

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