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छत्तीसगढ़ में चुनाव क्यों नहीं लड़ना चाहते हैं कांग्रेस के सीनियर ?

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Prem Kumar
  • विचार,
  • Updated:
    January 29, 2024 5:31 pm IST
    • Published On January 29, 2024 17:31 IST
    • Last Updated On January 29, 2024 17:31 IST

छत्तीसगढ़ के दिग्गज कांग्रेसी नेता लोकसभा का चुनाव लड़ना नहीं चाहते. ऐसा लगता है कि इन नेताओं को अपनी हार और हार से ज्यादा अपने राजनीतिक करियर की चिंता सता रही है. जबकि, उनकी प्राथमिकता अपनी जीत ही नहीं राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पार्टी की लोकसभा टैली में सुधार होना चाहिए. 2024 का लोकसभा चुनाव कांग्रेस एक ऐसे चुनाव के तौर पर देख रही है जो लोकतंत्र को बचाने वाला है. जब सीनियर नेता स्वयं इस मकसद से जुड़ने को प्रेरित नहीं हो रहे हैं तो वे दूसरों के लिए प्रेरणा कैसे बन सकेंगे? 
कांग्रेस के लिए दिग्गज नेताओं के चुनाव मैदान से दूर रहने की प्रवृत्ति ख़तरनाक है. यह प्रवृत्ति 2014 से ही दिखने लगी थी जब मनीष तिवारी जैसे नेताओं ने चुनाव लड़ने से मना कर दिया था. हालांकि राज्यसभा में पहुंचने का कोई अवसर ये छोड़ना भी नहीं चाहते. दस साल बाद छत्तीसगढ़ में पूर्व मुख्यमंत्री भूपेश बघेल और पूर्व उपमुख्यमंत्री टीएस सिंह देव ऐसे ही उदाहरण बने हैं जो प्रदेश की सियासत में सर्वोच्च पद के आकांक्षी तो हैं लेकिन लोकतंत्र के सबसे बड़े अवसर लोकसभा चुनाव के वक्त इससे दूर रहकर अपने राजनीतिक करियर में कोई आंच आने नहीं देना चाहते. 

नेतृत्व की अवमानना कर रहे हैं सीनियर नेता?

छत्तीसगढ़ में कांग्रेस के प्रभारी सचिन पायलट के लिए सीनियर नेताओँ का व्यवहार सीधे चुनौती है. सचिन पायलट ने सीईसी में फैसला लेने की बात कहकर मामले की पर्देदारी करने की कोशिश की है. हालांकि इन सीनियर नेताओं को बतौर प्रभारी सचिन पायलट की बात को सुझाव से ज्यादा फरमान के तौर पर लेना चाहिए था. 

छत्तीसगढ़ में 11 लोकसभा सीटें हैं और बीजेपी का इनमें से 9 सीटों पर कब्जा है. 2014 के लोकसभा चुनाव में भी बीजेपी ने 10 लोकसभा सीटें अपने नाम की थीं. बीजेपी को 2019 में 50.70% वोट मिले थे. 2014 के मुकाबले 2 प्रतिशत वोट अधिक मिलने के बावजूद बीजेपी की एक लोकसभा सीट कम हो गयी थी.

वहीं कांग्रेस ने 40.91% वोट 2019 के लोकसभा चुनाव में हासिल किया था जो 2014 के मुकाबले 2.51% ज्यादा था. कांग्रेस की लोकसभा सीटों की संख्या एक से बढ़कर दो हो गयी थी. जाहिर है कि कांग्रेस अपन वोट प्रतिशत में मामूली इजाफा भी करती है तो वह सीटों में बदलकर पार्टी की ताकत को बढ़ाती है. अंकगणितीय नजरिए से यह आसान लगता है लेकिन जमीनी स्तर पर वोटों को जोड़ पाना कांग्रेस के लिए छत्तीसगढ़ में कठिन चुनौती है.
2013, 2018 और 2023 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को क्रमश: 40.3%, 43%, 42.23% वोट मिले थे. इसका मतलब यह है कि छत्तीसगढ़ में कांग्रेस का वोट बैंक 40 फीसदी के आसपास सुरक्षित रहा है. लेकिन, लोकसभा चुनाव में इतने वोटों से सीटें नहीं मिला करती हैं क्योंकि यह आमने-सामने का चुनाव होता है. वोटों का प्रतिशत बढ़ाने के लिए इससे आगे कांग्रेस को कुछ ठोस करने की जरूरत है. यह बीड़ा बड़े नेताओं को ही उठाना होगा. लिहाजा छत्तीसगढ़ कांग्रेस के प्रभारी सचिन पायलट ने बहुत सही रणनीति सामने रखी जिसके तहत सीनियर नेताओं को लोकसभा चुनाव लड़ाया जाना है. इससे चुनाव के प्रति गंभीरता आएगी और पूरी पार्टी शिद्दत से जीत के लिए लड़ने को तैयार होगी. 

सीनियर नेताओं को उदाहरण बनना होगा

कांग्रेस का मुकाबला ऐसी पार्टी से जिसने हाल में छत्तीसगढ़ समेत पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनाव के दौरान केंद्रीय मंत्रियों और सांसदों को विधानसभा का चुनाव लड़ने को बाध्य किया था. इसका फायदा भी पार्टी को मिला और बीजेपी हिन्दी पट्टी के तीन राज्यों छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश और राजस्थान में जीत हासिल कर सकी.

छत्तीसगढ़ में बीजेपी ने चार सांसदों को विधानसभा चुनाव में उतारा. इनमें विजय बघेल, गोमती साय, रेणुका सिंह और अरुण साव शामिल हैं. विजय बघेल को पाटन में तत्कालीन मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के हाथों हार का सामना करना पड़ा. बाकी सभी जीत गये. कांग्रेस क्यों नहीं ऐसे उदाहरण पेश कर सकती?

निवर्तमान सीएम या मंत्री नहीं तो कम से कम पूर्व मुख्यमंत्रियों और मंत्रियों को चुनाव मैदान में उतारा तो जा ही सकता है. अहम सवाल यह है कि बिल्ली के गले में घंटी बांधे कौन? सचिन पायलट ने यह हिम्मत दिखलायी है तो उन्हें बिल्ली के काटने का खतरा भी झेलना होगा. 
सवाल यह है कि कांग्रेस के छत्तीसगढ़ प्रभारी सचिन पायलट ने सीनियर नेताओँ की इच्छा पूछी थी या फिर निर्देश सुनाया था? चाहे भूपेश बघेल हों या फिर टीएस सिंहदेव- इन दोनों से उनकी राय नहीं पूछी गयी थी. फिर भी इन्होंने अपनी राय सामने रखकर पायलट के फैसले को चुनौती दी है. इससे पार्टी कार्यकर्ताओँ में अच्छा संदेश कतई नहीं जाएगा. फिर पार्टी जीत के लिए काम कैसे करेगी? 

हार का डर जीत से दूर कर देगी

संभव है कि पूर्व मुख्यमंत्री भूपेश बघेल चुनाव मैदान में हार से डरते हों. वे 2004 और 2009 में लोकसभा का चुनाव और 2008 में पाटन विधानसभा का चुनाव हार चुके हैं. लगातार तीन चुनाव हारने से उबरना आसान नहीं होता. फिर भी बघेल ने 2013 के विधानसभा चुनाव में जीत हासिल कर अपना दमखम दिखाया था. लेकिन, अब 2024 में मुख्यमंत्री से पूर्व मुख्यमंत्री हो जाने के बाद भूपेश बघेल आगे जोखिम नहीं उठाना चाहते. वे विधायक रहते हुए चुनाव प्रचार करने तक की अपनी सीमित भूमिकाएं चाहते हैं. यह आजादी भूपेश बघेल को क्यों मिलनी चाहिए? टीएस सिंह देव को भी ऐसी आजादी क्यों मिलनी चाहिए? हालांकि सिंह देव को 2023 के विधानसभा चुनाव में भी नजदीकी मुकाबले में हार का सामना करना पड़ा था.
बीजेपी ने छत्तीसगढ़ में अपने प्रभारियों की नियुक्ति दिसंबर में ही कर दी थी. कांग्रेस प्रभारी सचिन पायलट लोकसभा उम्मीदवार तय करने में बढ़त हासिल करना चाहते हैं. ऐसा करने से उम्मीदवारों को चुनाव की तैयारियों का पर्याप्त वक्त मिलेगा. एक और अहम बात है कि राहुल गांधी की भारत जोड़ो न्याय यात्रा छत्तीसगढ़ में 15 फरवरी के आसपास पहुंचेगी. सचिन चाहते हैं कि तब तक कांग्रेस प्रत्याशी चुनाव मैदान में उतर चुके हों. तभी इस यात्रा का चुनावी लाभ हासिल किया जा सकता है.

छत्तीसगढ़ में कांग्रेस का वोट बैंक बरकरार

छत्तीसगढ़ में सत्ता छिन जाने के बावजूद कांग्रेस का वोट बैंक छिटका नहीं है. इसे मजबूत करना और आसान है. राहुल गांधी की यात्रा एक अवसर है जब कांग्रेसी पूरे दमखम के साथ राजनीतिक माहौल को अपने वश में करने का प्रयास करे. यह तय है कि छत्तीसगढ़ समेत हिन्दी पट्टी के उन प्रदेशों में जहां बीजेपी से सीधा मुकाबला है, कांग्रेस अपना प्रदर्शन सुधारकर ही दिल्ली की सत्ता पर दावा कर सकती है.

सीनियर कांग्रेस नेताओं को यह बात समझ में क्यों नहीं आ रही है? जो तेवर सचिन पायलट छत्तीसगढ़ में दिखा रहे हैं वही तेवर मध्यप्रदेश और राजस्थान में क्यों नहीं दिख रहे हैं? छत्तीसगढ़ जैसे प्रदेश में कांग्रेस के लिए लोकसभा चुनाव के दौरान हार अनहोनी बात नहीं है.

मगर, जीत बहुत बड़ी बात हो जाती है. अगर कांग्रेस के नेता जीत की अहमियत को समझते हैं तो उन्हें चुनाव में जाने से संकोच नहीं करना चाहिए. यह संकोच बड़े से बड़े नेता को भी हैसियत में बौना बना देता है. कांग्रेस से बीजेपी में गये नेता राजेश अग्रवाल ने दिग्गज कांग्रेस नेता और तत्कालीन डिप्टी सीएम टीएस सिंह देव को हरा दिया. जाहिर है अब उनकी गिनती बीजेपी में कद्दावर नेता के तौर पर होने लगी है. यही काम कांग्रेस क्यों नहीं कर सकती? 

हर सीट पर लड़नी होगी कांटे की लड़ाई

छत्तीसगढ़ में लोकसभा की 11 सीटों पर बीजेपी को चुनौती देने के लिए हर सीट पर कांटे की लड़ाई लड़नी होगी. इसका मतलब यह है कि उम्मीदवार देखकर उम्मीदवार तय करने की रणनीति जरूरी है. इसके लिए जाति, धर्म से लेकर उम्र तक भी स्पर्धी आधार पर देखने होंगे. सीनियर उम्मीदवार सीट की दशा-दिशा को बदलने में वक्त नहीं लगाते. लिहाजा सीनियर अगर चुनाव मैदान में उतरते हैं तो स्थिति पूरी तरह बदल जाती है. सचिन पालट की रणनीति का संभवत: यही आधार है. अब इस रणनीति पर अमल कराना भी सचिन पायलट की ही जिम्मेदारी है. वे सीईसी के भरोसे बातों को छोड़ नहीं सकते. 
सीनियर नेता क्या तभी चुनाव लड़ेंगे जब उनकी पार्टी के जीतने की संभावना हो और जीत की स्थिति में उन नेताओं के मंत्री बनने के आसार हो? सबकुछ तय हो जाने के बाद किसी नेता की सीनियॉरिटी से पार्टी को क्या फायदा? सीनियर लीडर को चुनाव मैदान में भेजने की रणनीति तैयार कर आलाकमान ने तय कर दिया है कि 2024 का आम चुनाव वे बहुत संजीदगी और गंभीरता से ले रहे हैं.

प्रेम कुमार तीन दशक से पत्रकारिता में सक्रिय हैं, और देश के नामचीन TV चैनलों में बतौर पैनलिस्ट लम्बा अनुभव रखते हैं...

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.

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