क्या यह मान लिया जाए कि छत्तीसगढ़ में नक्सल समस्या अंतिम सांसे गिन रही है? राज्य की नयी नवेली भाजपा सरकार ने इसके खात्मे के लिए जिस गंभीरता का परिचय दिया तथा अभियान शुरू किया है, उसे देखते हुए यह मान लेने में कोई हर्ज नहीं कि इस राष्ट्रीय समस्या जो अब छत्तीसगढ़ तक सिमट गई है, का अंत निकट है. अगर ऐसा हुआ तो डबल इंजिन सरकार की यह बड़ी उपलब्धि होगी और बस्तर की उस गरीब व निरीह आदिवासी जनता को न्याय मिल पाएगा जो बीते 40-50 वर्षों से भय व आत॔क के साये में जी रहे थे तथा जिन्होंने नक्सली हिंसा में बड़ी संख्या में अपने परिजन खोये हैं.
कथित तीसरे कार्यकाल के लिए केन्द्र सरकार ने जो एजेंडा तय किया है उसमें नक्सल समस्या भी शामिल है. इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए साम-दाम -दंड -भेद नीति के तहत काम शुरू हो चुका है. केन्द्र के इशारे पर छत्तीसगढ़ के डिप्टी सीएम विजय शर्मा ने पिछले दिनों मीडिया से हुई एक चर्चा में नक्सलियों को बातचीत के लिए आमंत्रित किया था. वर्ष 2003 से 2018 तक राज्य की सत्ता पर कायम रही भाजपा की रमन सरकार ने भी अनेक अवसरों पर नक्सलियों से शांति वार्ता की मंशा जाहिर की थी पर वह कभी मूर्त रूप नहीं ले सकी. किंतु इस बार इसी सरकार के उप मुख्यमंत्री जिनके पास गृह मंत्रालय भी हैं, ने एक कदम आगे बढ़ते हुए नक्सली प्रतिनिधियों को टेबल पर आमने-सामने की बातचीत के लिए आगे आने की अपील की. उन्होंने यह भी स्पष्ट किया था कि यदि नक्सलियों को कोई झिझक हो तो उनसे वीडियो या टेलिफोनिक वार्तालाप भी किया जा सकता है. गृह मंत्री के इस मौखिक प्रस्ताव को करीब एक पखवाड़े में बस्तर में सक्रिय नक्सलियों की दंडकारण्य स्पेशल जोनल कमेटी ने इसे स्वीकार किया तथा अपनी कुछ शर्तें रखीं. ये शर्तें नयी नहीं है. बीते वर्षों में भी वार्ता हेतु सकारात्मक माहौल बनाने केन्द्र की ओर से जितने भी प्रयास हुए उसमें नक्सली नेताओं की महत्वपूर्ण मांगें यहीं थी कि बस्तर में तैनात राज्य पुलिस व केंद्रीय सुरक्षा बलों को बैरकों में भेजा जाए तथा इस बात की गारंटी दी जाए कि उनकी ओर से कोई हिंसा नही होगी. इस दफे भी ये ही शर्तें पुनः दोहराई जा रही हैं. हालांकि माओवादियों ने सरकार के इरादे पर संदेह भी व्यक्त किया है. भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) की दंडकारण्य स्पेशल ज़ोनल कमेटी ने 8 फरवरी को जारी एक प्रेस विज्ञप्ति में इसे बेईमानी भरा और जनता की आंखों में धूल झोंकने वाला माना है किंतु वार्ता के लिए सहमति जाहिर की है.
लेकिन पहले भी केन्द्र की ओर से ऐसी शर्तों को खारिज कर दिया गया था अतः नक्सल क्षेत्रों से सुरक्षा बलों को हटाना असंभव ही है किंतु यदि वार्ता हेतु अनुकूल माहौल बनाने माओवादी हिंसक घटनाओं को विराम देंगे तो मुमकिन है कि सुरक्षा बल भी स्वयं को नागरिक सुरक्षा तक सीमित रखें और मुठभेड न करे. इसी स्थिति में वार्ता की बेहतर संभावना बन सकती है.
दरअसल डबल इंजिन सरकार का लक्ष्य स्पष्ट है - विकास, विश्वास व प्रहार। प्रहार की बात करें तो रणनीति स्पष्ट है. माओवादियों के गढ़ में घुसकर चौतरफा घेरेबंदी करके उन्हें इतना कमजोर कर दिया जाए ताकि जान बचाने के लिए अंततः उनके पास केवल शांति वार्ता का ही विकल्प शेष रहे. इस इरादे के साथ ही सरकार इसी मुहिम पर तेजी से आगे बढ़ रही. इस अभियान से बीते समय में अनेक नक्सली नेता या तो मारे गए या आत्म समर्पित हुए. सुरक्षा बलों के दबाव व कार्रवाई की वजह से निश्चित रूप से उनकी ताकत घटी है. तथा बौखलाहट बढ़ी है. चंद दिन पूर्व सुरक्षा बल ने नक्सलियों के बेहद सुरक्षित स्थल पूवर्ती गांव में कैम्प की स्थापना के जरिए नया मुकाम हासिल किया है. अब बस्तर में नक्सली आतंक से प्रभावित इलाकों में शिविरों की संख्या बढ़कर 141 हो गई है. पुलिस के अनुसार निर्णायक लडाई का दौर शुरू हो गया है.
इधर 15 फरवरी को राज्य विधान सभा में मुख्यमंत्री विष्णु देव साय ने नक्सल क्षेत्रों में विकास के सवाल पर जो बात कही थी , वह नई नहीं है पर उत्साहवर्धक है. वह एक प्रकार से यह उस सलवा जुडूम का परिष्कृत रूप है जिसकी औपचारिक शुरुआत भाजपा की रमन सिंह सरकार ने 4 जून 2005 को बीजापुर के कुटूरू से की थी और इसके बाद नक्सली हिंसा और तेज हो गई थी. उस दौर में ग्रामीण सुरक्षा की दृष्टि से अविभाजित दंतेवाड़ा जिले के 644 गांवों को खाली कराकर 56 हजार से अधिक आदिवासियों को अलग-अलग इलाकों में स्थापित राहत शिविरों में रखा गया था तथा उनके लिए स्वरोजगार की व्यवस्था के साथ ही आवश्यक जन-सुविधाएं उपलब्ध कराई गयी थीं. पर इस योजना के परिणामस्वरूप हिंसा व प्रतिहिंसा का जो दौर चला वह भीषण था लिहाज़ा सुप्रीमकोर्ट के हस्तक्षेप एवं आदेश के बाद वर्ष 2011 में इसे बंद कर देना पड़ा. विष्णुदेव साय सरकार की ' नियद नेल्लानार ' अर्थात 'आपका अच्छा गांव ' योजना इससे थोड़ी हटकर विकास के मुद्दे पर केंद्रित है.
दरअसल विकास, विश्वास व प्रहार इन तीन मोर्चों पर केन्द्र की मदद से राज्य सरकार वर्षों से काम कर रही है पर चार दशक बीतने के बाद भी छत्तीसगढ़ से नक्सलवाद का सफाया नहीं हुआ है. सुरक्षा दलों के दबाव के बावजूद नक्सलियों की हिंसक वारदातें जारी हैं. हाल ही में, 16 फरवरी को बीजापुर जिले कुटूरू थाना क्षेत्र के जैगूर गांव के बाजार में गश्त के दौरान सुरक्षा बल के जवान का सिर कलम कर देनी की घटना पुनः यह हकीकत बयान करती है कि ग्रामीणों में कौन नक्सली है कौन नही है, की पहचान करना बहुत मुश्किल है. पुलिस के जवानों एवं ग्रामीणों के मारे जाने की यह भी एक बड़ी वजह रही है.
बहरहाल वार्ता की नयी पहल किस तरह आगे बढ़ेगी अथवा खत्म हो जाएगी कहना मुश्किल है. पर जैसा कि अनेक बार कहा गया है और सच भी है कि नक्सल समस्या का हल सिर्फ बन्दूक की गोली से नहीं निकल सकता. इसीलिए सरकार दोनों उपायों के साथ आगे बढ़ रही है. कितनी कामयाबी मिलेगी, इसे समय ही तय करेगा.
दिवाकर मुक्तिबोध छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ पत्रकार हैं और राज्य की राजनीति की गहरी समझ रखते है.
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.