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This Article is From Jul 28, 2023

बचपन बाइस्कोप: दिल ढूँढता है ...

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Madhavi Mishra
  • विचार,
  • Updated:
    July 28, 2023 3:55 pm IST
    • Published On July 28, 2023 15:55 IST
    • Last Updated On July 28, 2023 15:55 IST

अंग्रेजी में एक phrase है mid life crisis जो बहुत अर्थपूर्ण है यह उदासी की एक गहनतम अवस्था है जिससे बाहर निकलने की राहें संकुचित हैं. एक कशमकश है एक रस्साकशी है .. जीवन का सुनहरा दौर पीछे छोड़ आये हैं , बहुत कुछ है जिसे आप खो चुके हैं बचपन के साथी ,गुरु ,माता पिता पर आप उनकी याद में रो भी नहीं सकते क्योंकि परिपक्वता उम्र का तकाज़ा है. जो खोया है वह वापस नहीं आएगा पर एक फाँस की तरह टीस देता रहेगा. खोना मानो जीवन का स्थायी भाव बन चुका है. एक नोस्टाल्जिया है जो हर पल हर दिन दिलो दिमाग पर तारी रहता है. हम जैसे 70 के दशक में पैदा हुए हर शख्स की कमोबेश यही मनोदशा रहती होगी. 

आज मैं अपने बचपन के उस हिस्से को याद करूँगी जो छत्तीसगढ़ के जगदलपुर में बीता. स्मृतियों का वितान बहुत बड़ा है , शुरू से शुरू करती हूँ. सारा बचपन रेडियो सुनते हुए बीता दूरदर्शन तो बाद में आया. ये आकाशवाणी का जगदलपुर केंद्र है सुनते ही मन के तार झंकृत हो जाते थे . एम ए रहीम , जया आर्य , सरोज मिश्र , लक्षमेंद्र चोपड़ा की आवाजें आज भी जहन में गहरी पैबस्त हैं.

आज अगर लोगों को मेरे संगीत के वृहद ज्ञान पर आश्चर्य होता है तो इसका पूरा श्रेय आकाशवाणी के जगदलपुर केंद्र को जाता है जहाँ हर गीत के साथ गायक कलाकार का नाम गीतकार और संगीतकार का नाम पाबंदी के साथ पढ़ा जाता था कभी कभी तो रागों की भी चर्चा होती थी

बस्तर के क्षेत्रीय संगीत में उन दिनों कविता हीरकनी लक्ष्मण सिंह मस्तुरिया के नाम महत्वपूर्ण थे पता लेजा रे गाड़ीवाला , मोर संग चलो रे  और मन डोले रे माह फगुनवा आदि गीतों का अंजोर  चहुँ ओर बगरा रहता था . जिस संबलपुरी रोंगोबती गीत को फ्यूज़न बना कर लोकप्रिय करने की विद्रूप कोशिश की जा रही है हमने तो अनगढ़ और सोंधी मिट्टी की महक लिए इस तरह के गानों को हर पल जीया है जिनमे सिर्फ बेसिक वाद्य यंत्रों का प्रयोग होता था लेकिन सुनने में इतने मनभावन कि इस लोकरस से बाहर आना कठिन था. छत्तीसगढ़ के सुवा नृत्य , गेड़ी नृत्य ,राउत नाचा तो स्कूल के दिनों में हर प्रतियोगिता का हिस्सा होते थे. डोंगा चो डोंगी गाने पर ढोलक की मधुर थाप  और हमारा कदम ताल अद्भुत समा था अमृत का उत्सव था. हरेली उत्सव था गोंचा का त्योहार था .क्या कहूँ  जीवन ही उत्सव था. 

दशहरे पर दंतेश्वरी देवी के मंदिर से रथयात्रा का वो नज़ारा , चित्रकूट और तीरथगढ़ के मनोहारी जलप्रपात जहाँ तब you tubers और ट्रेवलर्स का कोई फैशन नही था  वहाँ प्रकृति अपने उत्कृष्ट और आत्मीय रूप में प्रस्तुत होती थी ।

रामलीला था ,सर्कस थे ,मेला और मड़ई कितने लोक लुभावने रहे. महीनों में कभी एक बार थियेटर जाकर सिनेमा देखने का दिन किसी उत्सव से कम नहीं होता था. 
रायपुर से जगदलपुर के बीच का करीब 300 किलो मीटर का लंबा  पथ सदाबहार वनों की हरियाली से आच्छादित था दोनों ओर साल, सागौन ,महुआ , पलाश ,सेमल और कुटज की बहार , गोदावरी नदी का साथ , काँकेर घाटी और balancing rocks.उफ्फ क्या क्या याद करूँ .....
कितनी अजीब बात है एक वो हमारा समय था जो अब बीत चुका है मन है कि रीत गया है. ग़म .ए - रोज़गार तब भी था पर दिलों में मोहब्बतें थीं, अपनापन था ,पड़ोस था, गली चौबारे थे ,चूल्हा था चक्की थी यही तो जीवन था .

इकबाल अज़ीम कह गए हैं
हम बहुत दूर निकल आये हैं चलते चलते 
अब ठहर जाएं कहीं शाम के ढलते ढलते 
                                     

(लेखिका संगीत मर्मज्ञ और डीपीएस, उज्जैन की डायरेक्टर हैं.)

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.

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