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मोदी का जादू कितना चलेगा !

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Diwakar Muktibodh
  • विचार,
  • Updated:
    February 16, 2024 6:13 pm IST
    • Published On February 16, 2024 18:13 IST
    • Last Updated On February 16, 2024 18:13 IST

लोकसभा चुनाव के लिए अब  ज्यादा वक्त नहीं बचा है. देश में पिछली यानी 17 वीं लोकसभा के चुनाव 11 अप्रैल  2019 से 19 मई 2019 के बीच , सात चरणों में सम्पन्न हुए थे. चुनाव के नतीजे  23 मई को आए जिसमें  भारतीय जनता पार्टी को 303 सीटें और उसके नेतृत्व वाले गठबंधन को मिलाकर कुल 353 सीटें हासिल हुई. नई लोकसभा के लिए भी चुनाव आगामी अप्रैल-मई में संभावित हैं. इस चुनाव में यह देखना दिलचस्प रहेगा कि अपने 138 वर्ष के इतिहास में सर्वाधिक बुरे दौर से गुज़र रही कांग्रेस क्या और नीचे जाएगी या कोई चमत्कार उसे बेहतर स्थिति में पहुंचा देगा ? अथवा  क्या केंद्र में सत्तारूढ भारतीय जनता पार्टी सरकार के प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी का जादू पिछले चुनावों की तुलना में अधिक जोरशोर से चलेगा ?

वर्ष 1984 में  लोकसभा की 543 में से 541 सीटों पर चुनाव हुए थे. कांग्रेस ने राजीव गांधी के नेतृत्व में चुनाव लड़ा तथा 46.86 प्रतिशत वोटों के साथ  414  सीटें जीतकर कीर्तिमान स्थापित किया था, नरेंद्र मोदी उसके निकट पहुंचने की कोशिश कर रहे हैं. उनके दस वर्ष के शासन के दौरान कांग्रेस की जो हालत हुई है, वह अविश्वसनीय है हालांकि यह सच है.

पार्टी की ऐसी स्थिति के लिए कमज़ोर नेतृत्व तो जिम्मेदार है ही, नेताओं की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा एवं जमीनी हकीकत से बेपरवाह रहना भी बडा कारण है. निरंतर  कमज़ोर होते कांग्रेस संगठन को मोदी-शाह की जोड़ी ने चुनावी राजनीति में अपने रणनीतिक कौशल से पीछे ढकेलने में किंचित भी कसर नहीं छोड़ी है. यही कारण है कि लोकसभा के पिछले दो चुनावों में कांग्रेस के वोटों का प्रतिशत धड़ाम से गिरा. 2014 में मात्र 44 सीटों व 19.31 प्रतिशत वोटों तक सिमटी कांग्रेस 2019 में अपने खाते में केवल आठ सीटों का इजाफ़ा कर सकी.  वोटों के उसके प्रतिशत में भी बहुत मामूली 0.18 की वृद्धि  हुई। अब यह तथ्य भी सामने है कि मौजूदा हालात में कांग्रेस में अफरातफरी की स्थिति है. चुनाव की बेला में वह अपने आंतरिक संकटों से जुझते हुए  किस तरह भाजपा की चुनौती का मुकाबला करेगी, यह गहन सोच का विषय है.

प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी ने लगातार तीसरा चुनाव नये कीर्तिमान के साथ जीतने के संकल्प को लेकर जो रणनीति बना रखी है और जो चक्रव्यूह रचा गया है , वह पूर्व के दो लोकसभा चुनाव के मुकाबले अधिक प्रभावशाली व बेहतर परिणाम मूलक नज़र आता हैं. इसका एक नमूना पिछले वर्ष नवंबर-दिसंबर में पेश हुआ जब तीन राज्यों छत्तीसगढ, मध्यप्रदेश व राजस्थान विधान सभा चुनाव के नतीजे संभावना के विपरीत आए जो यह बताते हैं कि भाजपा लोकसभा के चुनाव में 370-400 सीटें जीतने के लक्ष्य को पाने के लिए कैसे घनघोर प्रयत्न कर रही है.

इन तीनों राज्यों में से दो, छत्तीसगढ़ व मध्यप्रदेश में कांग्रेस की जीत की स॔भावना प्रबल थी लेकिन ऐसा नहीं हुआ.अच्छे बहुमत के साथ दोनों प्रदेशों में भाजपा की सरकार बन गई. दरअसल भाजपा की राजनीति विपक्ष पर चौतरफा प्रहार की है. इनमें महत्वपूर्ण हैं गैरभाजपा शासित राज्यों में सत्तारूढ पार्टियों को कमजोर करना तथा विभिन्न कारणों से असंतुष्ट नेताओं को भाजपा शामिल करके उनका यथायोग्य सम्मान करना.

इसके लिए पार्टी ने अपने दरवाजे काफी पहले से खोल दिए थे जिसमें कांग्रेस सहित अन्य दलों के नेताओं व कार्यकर्ताओं का समय-समय पर , विशेषकर चुनावों के निकट आने पर प्रवेश होता रहा, अब चूंकि लोकसभा चुनाव शीघ्र होने ही वाले है लिहाज़ा उलट-पलट का दौर पुनः शुरू हो गया है. हाल ही में महाराष्ट्र से कांग्रेस के प्रभावशाली नेता व पूर्व मुख्य मंत्री अशोक चव्हाण भाजपा में शामिल हुए. पार्टी ने उन्हें राज्य सभा की टिकट भी दे दी. अभी ,14 फरवरी को असम के चार कांग्रेसी विधायकों ने भाजपा की हिमंत बिस्वा सरमा सरकार को समर्थन घोषित कर पार्टी से इस्तीफा दे दिया. इनमें विधायक कमलाख्या डे भी शामिल हैं जो असम प्रदेश कांग्रेस के कार्यकारी अध्यक्ष थे. इधर मध्यप्रदेश कांग्रेस के वरिष्ठ नेता व पूर्व मुख्य मंत्री कमलनाथ भी असंतुष्टों की जमात में हैं. उनके बारे में भी कहा जा रहा है कि वे पार्टी छोड़ सकते हैं.  इंडिया ब्लाक के एक सदस्य तथा नेशनल कांफ्रेंस के अध्यक्ष फारूक अब्दुला ने भी जम्मू-कश्मीर में  सीटों के तालमेल से इंकार करते हुए एनडीए गठबंधन में शामिल होने के संकेत दिए हैं. हालांकि उनके बेटे उमर अब्दुल्ला इससे इत्तेफाक नहीं रखते.

इधर बिहार में भाजपा की कूटरचना से विपक्ष की सरकार का चेहरा  किस तरह बदल गया, वह भी हाल ही की बात है . पार्टी ने एक और रणनीतिक उपाय के तहत एक माह के भीतर विभिन्न क्षेत्रों के पांच महापुरुषों को भारत रत्न देकर  राज्यों में जातीय समीकरण को साधने एवं वाहवाही लूटने की कोशिश की है. चुनाव में उसे इसका कुछ न कुछ लाभ मिलना तय माना जा रहा है.

लोकसभा चुनाव में भारी बहुमत हासिल करने का भाजपा का एजेंडा एकदम साफ है - इस बार  दलितों, अल्पसंख्यकों , पिछड़ों तथा अति पिछड़ी जातियों पर विशेषध्यान. उन्हें संतुष्ट करने की हरचंद कोशिश. इसके अलावा इस एजेंडा के तीन अन्य महत्वपूर्ण कारक हैं - अयोध्या में भगवान श्रीराम की प्रतिमा की प्राण- प्रतिष्ठा के साथ ही धार्मिक भावनाओं का अविरल प्रवाह तथा मोदी की गारंटी जिसमें आम जनता को आकर्षित करने वाली अनेक योजनाएं शामिल हैं. तीसरा बड़ा उपाय वह हथियार है जिसे  ईडी कहते हैं. बीते समय से केंद्र सरकार ने इस हथियार के जरिए भ्रष्टाचार के खिलाफ जो महाअभियान चला रखा है , उसके टार्गेट में समूचा विपक्ष है खासकर कांग्रेस के अनेक नेता इसके शिकार रहे हैं. उनकी घेरेबंदी हौसला पस्त करने वाली रही है. कह सकते हैं कि ईडी के जरिए भय , आतंक व दबाव की राजनीति चुनावी जंग  जीतने के लिए भाजपा की वह अचूक दवा है जो अपना जौहर दिखाती रही है. किंतु इन तमाम उपायों के बावजूद  मौन मतदाताओं के मन को टटोलना आसान नहीं  रहेगा. यह राजनीति है, क्या पता ऐन वक्त पर कोई नया गुल खिल जाए.

दिवाकर मुक्तिबोध छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ पत्रकार हैं और राज्य की राजनीति की गहरी समझ रखते है.

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.

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