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संविधान दिवस : मनसा वाचा कर्मणा में हों संवैधानिक मूल्य

Ajay Kumar Patel, Satish Bhartiya
  • विचार,
  • Updated:
    नवंबर 25, 2024 22:31 pm IST
    • Published On नवंबर 25, 2024 22:07 pm IST
    • Last Updated On नवंबर 25, 2024 22:31 pm IST

आज़ाद भारत के 26 नवंबर 1949 की तारीख एक बहुत बड़ा ऐतिहासिक दिन है. वजह यह है कि, 26 नवंबर को देश के संचालन हेतु भारतीय संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित किया गया था. ऐसे में डॉ भीमराव आंबेडकर के संविधान रूपी महान अवदान के लिए भारत सरकार द्वारा 26 नवम्बर 2015 से "संविधान दिवस" मनाने का आगाज किया गया. 26 नवंबर का गौरव इसलिए भी है क्योंकि इस दिन संविधान निर्माण समिति के वरिष्ठ सदस्य और दानवीर डॉ हरिसिंह गौर का भी जन्मदिवस होता है. वहीं, संविधान दिवस देश को स्वतंत्र कराकर व्यवस्था निर्मित करने वाले महापुरुषों को याद करने और उनके कर्म को जीवन में उतारने के लिए भी प्रेरित करता है.

संविधान दिवस मनाने की दरकार क्यों है? इस सवाल के जवाब की तरफ जब हम गौर फ़रमाते हैं तब समझ आता है कि, संविधान किसी भी आजाद देश की जनता के गरिमापूर्ण जीवन और विकास का मूल आधार होता है. ठीक ऐसे ही हमारे देश का संविधान है, जिसका मूल अंश प्रस्तावना है.

प्रस्तावना को संविधान की आत्मा भी माना जाता है, इसलिए जब भी हम संविधान को याद करते हैं तब अक्सर संविधान की प्रस्तावना का मुंख से वाचन करते हैं. साथ-साथ प्रस्तावना में दर्ज़ सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय, विश्वास, व्यक्ति की गरिमा जैसे विभिन्न संवैधानिक मूल्यों को अपनाने और बढ़ाने का संकल्प लेते हैं. 

 
हमें गरिमापूर्ण जीवन जीने के लिए स्वतंत्रता, समानता, न्याय, बंधुता जैसे अन्य संवैधानिक मूल्य एक बुनियादी अपरिहार्यता है. मगर, ध्यातव्य है कि, संवैधानिक मूल्य आये कहां से हैं? ऐसे में मेरी समझ से मुझे प्रतीति होती है कि संवैधानिक मूल्यों का प्रादुर्भाव “प्राकृतिक आज़ादी” से ही हुआ.

महान दार्शनिक रूसो ने कहा है कि, “मनुष्य स्वतंत्र पैदा हुआ है”. जब हम स्वतंत्र पैदा हुए हैं, तब धरती पर गरिमामयी जीवन जीना भी हमारी प्राथमिकता है.

हमारी प्राकृतिक स्वतंत्रता के विकास से ही मानवाधिकार और संवैधानिक मूल्य प्रादुर्भूत हुए. संवैधानिक मूल्यों की महत्वता इसलिए है कि, संवैधानिक मूल्य गौरवशाली जीवन जीने के साथ, नागरिक कर्तव्यों का बोध कराते हुए, नागरिकों के हितों का सरंक्षण करते हैं. ऐसे में संवैधानिक मूल्यों को दुनिया का असाधारण मूल्य भी कहा जा सकता है. 

अब यह जानना भी जरूरी हो जाता है कि, संवैधानिक मूल्यों का अहसास कैसे होता है? इसके के लिए हम बंधुता और व्यक्ति की गरिमा जैसे संवैधानिक मूल्यों के उदाहरण देखें सकते हैं. जैसे यदि आप किसी सरकारी दफ्तर में सलाहकार के पद पर हैं और कोई आम व्यक्ति आपके पास सलाह लेने आया. तब आप व्यक्ति से विनम्रता व सम्मानपूर्वक पेशाते है और उचित ढंग से सलाह देते हैं. तब यहां आपने बंधुता और व्यक्ति की गरिमा जैसे संवैधानिक मूल्यों का पालन किया है. वहीं, यदि आपसे सलाह लेने आये व्यक्ति से आप असभ्यता से पेशाते हैं. गलत शब्द बोलते हैं और अनुचित सलाह देते हैं. तब इस स्थिति में आप बंधुता और व्यक्ति की गरिमा जैसे संविधानिक मूल्य का हनन करते हैं. ध्यान देने योग्य है कि, यहां आपका व्यवहार संवैधानिक मूल्य को मजबूत और कमजोर कर सकता है. इसलिए, हमारे व्यवहार में हमें संवैधानिक मूल्यों को लाने की दरकार है.

आजाद भारत में जब हम देखते हैं कि, विस्थापन में लोगों के साथ आर्थिक न्याय नहीं हो पाता तब पता चलता है कि, विस्थापितों के आर्थिक न्याय जैसे संवैधानिक मूल्य का हनन हो गया. जब पुलिस किसी बेकसूर से  बदतमीजी करती है तब व्यक्ति की गरिमा और बंधुता जैसे संवैधानिक मूल्य पर संकट दिखाई देता है.

जब छुआछूत और जातिगत भेदभाव की घटना हमारे सम्मुख आती है तब ज्ञात होता है कि, लोगों का समाजिक न्याय जैसा संवैधानिक मूल्य प्रभावित हो रहा है. वहीं, जब पीड़ित पक्ष का मामला शासन-प्रशासन के सामने होता है और पीड़ित पक्ष न्याय की गुहार भी लगाता है मगर, उसे न्याय नहीं मिलता, तब विश्वास और न्याय जैसे संवैधानिक मूल्यों को चोट पहुंचती है. 

कई बार हमारा आचरण, व्यवहार और कार्य में संवैधानिक मूल्यों का पालन नजर नहीं आता, जिससे संवैधानिक मूल्यों को क्षति पहुंचती है. ऐसे में हमारा नैतिक पतन होने लगता है. संवैधानिक मूल्य हमें सही और ग़लत में फर्क करना सिखाते हैं. जब हम संवैधानिक मूल्यों को जी रहे होते हैं तब हमें किसी घटना में नियमों, कानूनों का उल्लंघन दिखने लगता है. फिर, हमारी कार्रवाई न्याय की गुंजाइश पैदा करती है. असलियत में संविधान के अनुच्छेद, कानून और नीतियां संवैधानिक मूल्यों के पर्याय हैं. कानून निर्माण से लेकर उसके क्रियान्वयन तक संवैधानिक मूल्य ही फलीभूत दिखते हैं.

संवैधानिक मूल्य की जिम्मेदारी और पालन देखें, तब समझ आता है कि, यह हमारी नैतिकता पर निर्भर करता है. संवैधानिक मूल्य के प्रति हमें नैतिक रूप से जिम्मेदार होना पड़ेगा. तब कहीं संवैधानिक मूल्य जमीन पर पहुँच पायेगें. जिस तरह आज हमारा नैतिक पतन हो रहा है उससे अवश्यंभावी है कि, नैतिक शिक्षा में संवैधानिक मूल्यों को बढ़ावा देना चाहिए. वहीं, संवैधानिक मूल्यों को पढ़ने, समझने और प्रेक्टिस करने की जरूरत है. जिससे हमारे अंदर संवैधानिक मूल्यों की जीवंतता पैदा होगी और हम संविधान व कानून को वास्तविक रूप में समझते हुए उचित क्रियान्वित कर पायेंगे. जब कानून, नीतियों का न्यायसंगत निर्वहन होता है, तब सही मायनों में हमें संवैधानिक मूल्यों का सटीक पालन नजर आता है. इसलिए, नियमों, कानूनों को हमें संवैधानिक मूल्यों के नजरिए से देखना चाहिए.

सतीश भारतीय, एक स्वतंत्र पत्रकार हैं. मानवाधिकार और समाजिक न्याय के मुद्दों पर रिपोर्टिंग करते हैं.

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.

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