
Chyavanprash News: आयुर्वेद की प्राचीन और विश्वसनीय औषधि च्यवनप्राश के फायदे से हम सब अवगत ही हैं...देशभर में तमाम कंपनियां इसका निर्माण करती हैं और इसका जमकर प्रचार-प्रसार भी करती हैं. लेकिन, अब एक नए रिसर्च में चौंकाने वाली बात सामने आई है. दरअसल शासकीय आयुर्वेद कॉलेज, ग्वालियर के द्रव्यगुण विभाग के विभागाध्यक्ष डॉ.के.एल.शर्मा ने दावा किया है कि शरीर को सबल बनाने वाला च्यवनप्राश अब खुद ही दुर्बल हो चुका है. डॉ शर्मा ने NDTV से बातचीत में दावा किया है कि इसके निर्माण प्रयोग होने वाली 54 औषधियों में से 32 या तो विलुप्त हो चुकी हैं या फिर विलुप्ति के कगार पर हैं. जिसकी वजह से च्यवनप्राश बनाने की मूल विधि से इन दिनों इसका निर्माण नहीं हो पा रहा है. कंपनियां इसकी जगह पर जिन विकल्पों का इस्तेमाल कर रही हैं उनका असर मूल औषधियों के मुकाबले सिर्फ 10 से 20 फीसदी ही है.
दरअसल हमारे ग्रंथों में च्यवनप्राश को आयुर्वेद का अमृत बताया गया है. इसे शरीर को सबल बनाने वाला और चिर यौवन देने वाला बताया गया है. डॉ के एल शर्मा ने अपने रिसर्च में जो पाया है वो इस प्रकार हैं.

च्यवनप्राश की मुख्य बूटियां ही 'विलुप्त'!
डॉ शर्मा के मुताबिक अब च्यवनप्राश उतना असरकारक नहीं रहा है जिसकी मुख्य वजह दुर्लभ हिमाचलयी जड़ी-बूटियों का तेजी से विलुप्त होना है. जो 8 बूटियां विलुप्त हो चुकी हैं उन्हें अष्ट वर्ग में शामिल किया जाता था जो शरीर में रोग प्रतिरोधक क्षमता को मजबूत करती थीं. ये जड़ी-बूटियां अत्यधिक दोहन, प्रदूषण, खेती में केमिकल का प्रयोग और वनों की कटाई के कारण करीब-करीब खत्म हो चुकी हैं. डॉ शर्मा के मुताबिक के मुताबिक यही अष्ट वर्ग च्यवनप्राश की जान मानी जाती हैं.
च्यवनप्राश को बनाने की विधि का भी पालन नहीं
डॉ शर्मा का कहना हैं कि आयुर्वेद में हमारी जो पुरातन निर्माण विधि परंपरा है उसके अनुसार च्यवनप्राश को देसी आंवला, देसी घी, देसी खांड और शुद्ध शहद का प्रयोग कर परंपरागत भट्टी पर बनाया जाता था. इसमें यह भी कहा गया हैं कि पौष मास में पके हुए आंवले को हाथ से तोड़कर प्रयोग करना चाहिए. इसको लेकर केंद्रीय आयुर्वेद विज्ञान अनुसंधान परिषद (सीसीआरएएस) द्वारा भी पहले ही आगाह किया जा चुका है कि अष्ट वर्ग (आठ औषधियों का समूह) की सात औषधियों समेत कुल 32 औषधियां विलुप्त होने की कगार पर हैं. च्यवनप्राश को अब आंवले के साथ-साथ गुड़ की जगह चीनी मिलाकर तैयार किया जा रहा है. रिसर्च में पाया गया है कि विशुद्ध औषधियों के स्थान पर दिए जा रहे विकल्पों का प्रभाव बेहद कम है. डॉ शर्मा कहते हैं कि इसकी गुणवत्ता को वापस लाने के लिए सरकार को विलुप्त औषधियों को पुनः उगाने के प्रयास करने होंगे. इसके लिए चित्रकूट,उत्तराखंड,ओडीसा और हिमालयी क्षेत्रों में काम शुरू किया जा सकता है. उनका कहना है कि यदि ऐसा नहीं होता है तो आने वाले समय में च्यवनप्राश सिर्फ एक मिठास भरी चीज भर बन कर रह जाएगी.
अस्वीकरण- ऊपर में दी गई जानकारी सिर्फ शासकीय आयुर्वेद कॉलेज, ग्वालियर के द्रव्यगुण विभाग के विभागाध्यक्ष द्वारा की गई रिसर्च के आधार पर है. इसमें उन कंपनियों का पक्ष शामिल नहीं है जो च्यवनप्राश बनाती हैं और उसकी शुद्धता का दावा करती हैं.