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Damoh Lok Sabha Seat: पिछले 35 वर्षों से BJP का दबदबा, इस बार आमने-सामने हैं कांग्रेस के दो पूर्व विधायक

Damoh Lok Sabha: दमोह लोकसभा सीट मध्य प्रदेश की ऐसी सीट है जहां पिछले 35 वर्षों से बीजेपी का कब्जा रहा है. इस दौरान कई प्रत्याशी बदले, लेकिन जीत बीजेपी के खाते में ही गई. वहीं इस बार इस सीट पर कांग्रेस के दो पूर्व विधायक आमने-सामने हैं. इससे यहां का चुनाव दिलचस्प हो गया है.

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Damoh Lok Sabha Seat: पिछले 35 वर्षों से BJP का दबदबा, इस बार आमने-सामने हैं कांग्रेस के दो पूर्व विधायक
फोटो - फेसबुक

Damoh Lok Sabha Constituency Political History: दमोह, मध्य प्रदेश (Madhya Pradesh) की एक ऐसी लोकसभा सीट (Damoh Lok Sabha Seat) जहां बीजेपी का एकतरफा दबदबा रहा है. यूं तो हमने अक्सर सुना होगा कि किसी भी लोकसभा सीट पर उतार-चढ़ाव आते रहे हैं, कभी कोई पार्टी जीतती है तो कभी कोई. लेकिन ऐसी बहुत ही कम सीटें हैं जहां किसी भी पार्टी का एकतरफा वर्चस्व या कहें कि दबदबा रहा हो. मध्य प्रदेश की राजनीति (MP Politics) में एक सीट अक्सर चर्चा में रहती है. वह है छिंदवाड़ा (Chhindwara). इसका कारण भी है. यह सूबे के पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता कमलनाथ (Kamal Nath) का गढ़ है. दरअसल, कमलनाथ इस सीट से 9 बार सांसद चुने गए. लेकिन, इस बीच उन्हें एक बार हार भी मिली. ऐसी ही कुछ कहानी है दमोह लोकसभा सीट (Damoh Lok Sabha Seat) की. हम आपको विस्तार से बताते हैं. लेकिन इससे पहले दमोह के इतिहास को जान लेते हैं.

दमोह जिले का अपना एक इतिहास रहा है. प्राचीन काल की बात करें तो यह जिला 5वीं शताब्दी में पाटलिपुत्र के शक्तिशाली गुप्त साम्राज्य का हिस्सा हुआ करता था. जिले में इसके सबूत भी मौजूद हैं. यहां कई स्थानों पर पाए जाने वाले शिलालेख, सिक्के व अन्य वस्तुओं के संबंध समुद्रगुप्त, चन्द्रगुप्त, और स्कन्दगुप्त के शासन काल से हैं. दसवीं शताब्दी आते-आते यह क्षेत्र कलचुरी साम्राज्य के अधीन आ गया. इसके बाद यहां मुगलों ने भी राज किया. इस क्षेत्र में कभी रानी दुर्गावती जैसी महान योद्धा ने भी शासन किया है. इसके अलावा यह जिला  बुंदेलों और मराठों के अधीन रहा, और अंत में पेशवा की मृत्यु के बाद यह अंग्रेजों के अधीन आ गया. पौराणिक कथाओं और किंवदंतियों के अनुसार दमोह जिले का नाम राजा नल की पत्नी और नरवर की रानी दमयंती के नाम पर पड़ा.

समझें दमोह लोकसभा सीट का सियासी इतिहास

वहीं दमोह लोकसभा क्षेत्र (Damoh Lok Sabha Constituency) की बात करें तो इसके अंतर्गत तीन जिलों की आठ विधानसभा सीटें आती हैं. जिनमें दमोह की चार सीट - पथरिया, दमोह, जबेरा और हटा, सागर (Sagar) की तीन सीट - देवली, रहली और बंडा, और छतरपुर (Chhatarpur) की एक सीट मलहरा शामिल है. बुंदेलखंड के अंदर आने वाला यह क्षेत्र महाकौशल से लगा हुआ है. दमोह जिले की ही बात करें तो यह जिला पश्चिम में सागर, दक्षिण में नरसिंहपुर और जबलपुर, उत्तर में छतरपुर, पूर्व में पन्ना और कटनी से घिरा हुआ है.

दमोह में पहली बार आम चुनाव 1962 में हुए. इस क्षेत्र की सियासत बड़ी ही दिलचस्प रही है. जब हम यहां के सियासी इतिहास को खंगालते हैं तो एक तो एक फैक्ट निकल कर आता है और वो ये है कि इस सीट पर भले ही किसी राजनीतिक दल का एक तरफा दबदबा रहा हो लेकिन अभी तक कोई ऐसा राजनेता निकल कर नहीं आया है जो यहां से बड़ी सियासी पारी खेल सके. हालांकि इस क्षेत्र ने कई राज्य मंत्री व केंद्रीय मंत्री दिए हैं.

अब यहां हुए लोकसभा चुनाव के इतिहास की बात करते हैं. दमोह में हुए शुरुआती तीन संसदीय चुनावो में यानी कि 1962, 1967 और 1971 में कांग्रेस ने जीत हासिल की. जबकि इमरजेंसी के बाद हुए 1977 के चुनाव में जनता पार्टी ने बाजी मारी. इसके बाद 1980 और 1984 में एक बार फिर कांग्रेस की वापसी हुई. लेकिन, यहां पर महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि 84 के चुनाव के बाद कांग्रेस ने दमोह सीट पर कभी भी जीत का मुंह नहीं देखा.

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लगातार 9 बार जीती बीजेपी

अब बात छिंदवाड़ा और दमोह कनेक्शन की. दरअसल मध्य प्रदेश की छिंदवाड़ा ऐसी सीट है जहां कांग्रेस का एकतरफा दबदबा रहा है, और वहां से सबसे ज्यादा 9 बार कमलनाथ सांसद चुने गए. वहीं दमोह एक ऐसी सीट है जहां बीजेपी ने लगातार 9 बार जीत हासिल की. 1984 के बाद 1989 में हुए लोकसभा चुनाव में पहली बार दमोह सीट पर बीजेपी की जीत के साथ एंट्री हुई. इसके बाद बीजेपी ने यहां कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा. वो अलग बात है कि इन 9 बार के चुनावों में किसी सांसद या नेता का लंबे समय तक प्रभाव नहीं रहा. हालांकि बीच में रामकृष्ण कुसमरिया (Ramkrishna Kusmaria) लगातार चार बार सांसद बने. इसके बाद फिर यहां बदलाव हुआ और सांसद बदलते गए.

बता दें कि 1989 के चुनाव में यहां से बीजेपी प्रत्याशी लोकेंद्र सिंह ने जीत हासिल की. इसके बाद 1991, 1996, 1998 और 1999 में लगातार चार बार रामकृष्ण कुसमरिया ने बीजेपी को जीत दिलाई. फिर 2004 में बीजेपी के चंद्रभान भैया और 2009 में शिवराज लोधी ने जीत दर्ज की. वहीं 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव में पूर्व केंद्रीय मंत्री और वर्तमान में मध्य प्रदेश के कैबिनेट मंत्री प्रहलाद पटेल (Prahlad Patel) ने जीत हासिल की और यहां से सांसद बने. 2023 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने उन्हें विधानसभा चुनाव लड़ाने का फैसला किया, जिसके बाद वे विधायकी का चुनाव लड़े और कैबिनेट मंत्री बने.

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बीजेपी-कांग्रेस ने इन्हें दिया टिकट

राज्य की सियासत में प्रहलाद पटेल की एंट्री के बाद बीजेपी ने इस सीट ने उमा भारती (Uma Bharti) के भतीजे राहुल लोधी (Rahul Lodhi) को उतारा है. वहीं कांग्रेस ने बंडा विधानसभा सीट से पूर्व विधायक तरवर सिंह लोधी (Tarvar Singh Lodhi) को अपना प्रत्याशी बनाया है. इन दोनों के आमने सामने होने से इस बार का चुनाव बड़ा ही दिलचस्प हो गया है. यह इसलिए भी क्योंकि कभी ये दोनों एक ही पार्टी के विधायक हुआ करते थे. दरअसल, राहुल लोधी बीजेपी से पहले कांग्रेस में थे. 2018 के विधानसभा चुनाव में वे कांग्रेस के टिकट से चुनाव लड़े और दमोह सीट से जीते भी. वहीं तरवर सिंह लोधी ने भी 2018 में ही बंडा से जीत दर्ज की. 2020 में सिंधिया के दल बदल के कुछ समय बाद प्रहलाद पटेल और उमा भारती के कहने पर बड़ामलहरा विधायक प्रद्युम्न लोधी और दमोह विधायक राहुल लोधी ने बीजेपी का दामन थाम लिया.

वहीं बंडा से पूर्व विधायक तरवर सिंह लोधी अपने शांत स्वभाव और पार्टी के प्रति निष्ठा के लिए जाने जाते हैं. इसके अलावा ऐसा कहा जाता है कि राहुल लोधी उनके रिश्तेदार हैं. जिस वजह से कांग्रेस ने उन्हें यहां से मैदान में उतारा है. 

दमोह लोकसभा सीट पर सबसे ज्यादा अहम जातिगत समीकरण माना जाता है. लोधी बाहुल्य सीट होने के चलते ज्यादातर पार्टियां इसी समुदाय से आने वाले नेताओं को प्रत्याशी बनाती है.यही कारण है कि कांग्रेस ने यहां राहुल लोधी को टक्कर देने के लिए तरवर सिंह लोधी को उतारा है. इसके अलावा महत्वपूर्ण बात यह है कि वे राहुल लोधी के साथ काम भी कर चुके हैं, मतलब कांग्रेस के दो पूर्व विधायक और सांसदी के लिए दमोह सीट से चुनावी रण में हैं.

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