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दिग्गी राजा सामने थे..सिंधिया उठे, हाथ पकड़े और ले आए मंच पर...दो सौ सालों की 'अदावत' याद आई

भोपाल के रातीबड़ इलाके में एक स्कूल के उद्घाटन के मौके पर सियासत की शानदार तस्वीर सामने आई. मंच पर बैठे केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया जब सामने पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह को बैठे देखा तो खुद उठे और उनका हाथ थामकर उन्हें भी मंच पर ले आए. इसका वीडियो खूब वायरल हो रहा है. प्रदेश की सियासत में फुसफुसाहटें फिर से तेज़ हो गईं ... क्या बर्फ पिघल रही है?

दिग्गी राजा सामने थे..सिंधिया उठे, हाथ पकड़े और ले आए मंच पर...दो सौ सालों की 'अदावत' याद आई

Scindia-Digvijay together News: भोपाल की अगस्त की दोपहरी में यह वीडियो जैसे किसी पुराने किस्सागो की जीती-जागती तस्वीर बनकर सामने आया ... भोपाल के रातीबड़ इलाके में एक स्कूल के उद्घाटन के मौके पर मंच से उतरते हुए केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया, भीड़ के बीच से रास्ता बनाते, और फिर सामने बैठे दिग्विजय सिंह का हाथ थामकर उन्हें ऊपर ले जाते. कैमरे ने यह दृश्य कैद किया, सोशल मीडिया ने उसे बार-बार चलाया, और प्रदेश की सियासत में फुसफुसाहटें फिर से तेज़ हो गईं ... क्या बर्फ पिघल रही है? लेकिन इस एक क्षण के पीछे सदियों की तलवारबाज़ी, राजसी गर्व और राजनीतिक शतरंज की बिसात बिछी है.

जिस मिट्टी में यह हाथ मिलाना हुआ वह इतिहास से भरी है. यह कहानी सिर्फ़ दो नेताओं की नहीं, बल्कि दो राजघरानों की है राघोगढ़ और ग्वालियर जिनके रिश्ते 1802 से विरोधाभासों के धागों में उलझे हुए हैं. उस साल ग्वालियर के महाराज दौलतराव सिंधिया ने राघोगढ़ के सातवें राजा जय सिंह को हराया, और राघोगढ़ ग्वालियर रियासत के अधीन आ गया. तब से एक तरह का ‘अनकहा हिसाब' चला आ रहा है.दिलचस्प यह कि दोनों भोपाल में पड़ोसी हैं, लेकिन राजनीति में वक्त-वक्त पर शब्दों के शूल चलाते रहे हैं. इस एक दृश्य के पीछे सदियों की कहानियां, रियासतों की अदावत और सत्ता की अनंत परिक्रमा छिपी है.

यह कहानी सिर्फ दो नेताओं की नहीं, बल्कि दो राजघरानों की है — राघोगढ़ और ग्वालियर. राघोगढ़, जिसे 1677 में लाल सिंह खिंची ने बसाया था, और ग्वालियर, जिसकी सत्ता 18वीं सदी में सिंधियाओं के हाथ में आई.दोनों की ठनक 1780 में महादजी सिंधिया द्वारा राघोगढ़ के राजा बलवंत सिंह और जय सिंह की गिरफ्तारी से शुरू हुई, और 1818 तक तलवारों और समझौतों का सिलसिला चलता रहा.

अंग्रेजों की मध्यस्थता से अस्थायी सुलह हुई, लेकिन दिलों में कड़वाहट बची रही. 1802 में ग्वालियर के महाराज दौलतराव सिंधिया ने राघोगढ़ को अधीन किया, और तब से यह ‘अनकहा हिसाब' राजनीति में भी अपनी छाया डालता रहा.1993 में जब मुख्यमंत्री की दौड़ में माधवराव सिंधिया पिछड़कर दिग्विजय सिंह से हार गए, तो इसे कई लोग राघोगढ़ का ग्वालियर पर पलटवार मानते हैं. यह मलाल माधवराव से उनके पुत्र ज्योतिरादित्य तक पहुंचा, और 2018 में फिर इतिहास ने खुद को दोहराया सत्ता कांग्रेस के पास आई, सिंधिया दावेदार थे, मगर कुर्सी कमलनाथ को मिली. सवा साल बाद, सिंधिया भाजपा में चले गए और आरोपों-प्रतिआरोपों का नया दौर शुरू हुआ. 

कुछ सालों पहले चुनावी बयार में राघोगढ़ की रैली में दिग्विजय का बयान गूंजा “कांग्रेस का फायदा उठाकर भाजपा में चले गए… इतिहास गद्दारों को माफ नहीं करेगा.” सिं.धिया ने पलटवार किया “मैं उस स्तर पर नहीं गिरना चाहता… पर जनता तय करेगी गद्दार कौन है,” और तंज कसा “जो ओसामा को ‘ओसामा जी' कहते थे…” राज्यसभा में जब दोनों मिले, तो दिग्विजय ने मीठे व्यंग्य में कहा “आप किसी भी पार्टी में रहें, हमारी शुभकामनाएं आपके साथ हैं.” फिर जोड़ा “वो हीरा हैं, और हमने तराशा है.” हाल ही में उन्होंने सिंधिया को “बच्चा” कहकर याद दिलाया “माधवराव को कांग्रेस में मैं ही लाया था.” पर इन कटाक्षों के बीच भी एक प्रोटोकॉल कायम है सभा में हाथ मिलाना, सदन में मुस्कुराना, और चुनावी मैदान में तलवारें खींच लेना.

हालांकि कई मौके पर ऐसा भी लगता है कि 200 साल पुरानी कहानी अभी खत्म नहीं हुई. 1818 के समझौते से लेकर 2020 के सत्ता परिवर्तन तक, हर मोड़ पर यह रिश्ते तलवार की धार पर चले हैं. एक तरफ महाराजा, दूसरी तरफ राजा और बीच में मध्यप्रदेश की राजनीति, जिसमें दुश्मनी और शिष्टाचार साथ-साथ चलते हैं.

कहानी का पहला अंक कोई चुनावी मंच नहीं, बल्कि युद्धभूमि है. सन 1802 में ग्वालियर के महाराज दौलतराव सिंधिया ने राघोगढ़ रियासत के सातवें राजा जय सिंह को पराजित किया राघोगढ़, ग्वालियर रियासत के अधीन हो गया. यह अधीनता तलवारों के संग चली, लेकिन मन के भीतर बीज किसी अनकहे वैमनस्य का पड़ा रहा. दो सौ साल बाद, यह बीज राजनीति के खेत में उगकर नई फसल देने लगा.

आजादी के बाद राघोगढ़ पहले राजनीति में उतरा 1951 में दिग्विजय के पिता बलभद्र सिंह विधायक बने. ग्वालियर राजघराना 1957 में विजयाराजे सिंधिया के रूप में आया, जो जनसंघ की प्रखर नेता बनीं. 1971 में दिग्विजय और माधवराव सिंधिया, दोनों ने अपने-अपने मोर्चे से राजनीति में कदम रखा एक कांग्रेस के जरिए, दूसरा कांग्रेस में रहकर लेकिन दिल में पुराने हिसाब-किताब लिए. 1993 में कांग्रेस सत्ता में लौटी. मुख्यमंत्री पद की दौड़ में माधवराव सिंधिया भी थे, लेकिन बाजी दिग्विजय सिंह ने मार ली. कहा गया कि यह राघोगढ़ का ग्वालियर पर राजनीतिक पलटवार था.माधवराव को यह मलाल रहा, और यह मलाल विरासत की तरह उनके पुत्र ज्योतिरादित्य तक पहुंचा।

माधवराव नहीं रहे, ज्योतिरादित्य अपने पिता के रास्ते कांग्रेस में स्थापित हो चुके थे. 2018 में कांग्रेस को सत्ता मिली, मुख्यमंत्री की संभावित सूची में सिंधिया का नाम था. पर अंत में कमलनाथ बने और यह भी दिग्विजय की रणनीति का हिस्सा बताया गया.सवा साल बाद, सिंधिया कांग्रेस छोड़ बीजेपी में शामिल हुए. सत्ता परिवर्तन की पटकथा में दिग्विजय की भूमिका विरोधियों और समर्थकों, दोनों के बीच चर्चा का विषय बनी.यह रिश्ता ऐसा है जिसमें तलवार और फूल दोनों साथ चलते हैं.सदन में हंसी-मजाक, सभाओं में कटाक्ष, निजी मुलाकात में हाथ मिलाना यही इसका अद्भुत संतुलन है. भोपाल में पड़ोसी होने के बावजूद, राजनीतिक मंच पर वे एक-दूसरे के ध्रुव हैं....और लगता है इस रिश्ते का अभी अंतिम पन्ना लिखा नहीं गया.

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