MP Tribal Heroes Story: 15 नवंबर को पूरा देश जनजातीय गौरव दिवस मना रहा है. मध्यप्रदेश, जहां देश की सबसे बड़ी जनजातीय आबादी निवास करती है, इस दिवस को और भी गौरवपूर्ण तरीके से मना रहा है. यह सिर्फ उत्सव मनाने का दिन नहीं, बल्कि उन अनगिनत आदिवासी नायकों के अदम्य साहस, बलिदान और संघर्ष को याद करने का अवसर है, जिन्हें स्वतंत्रता इतिहास में वह स्थान लंबे समय तक नहीं मिला जिसके वे अधिकारी थे.
बिरसा मुंडा, जिनका संघर्ष समय से आगे था
बिरसा मुंडा एक ऐसे जननायक थे, जिन्होंने भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद और गांधी जी से भी बहुत पहले अंग्रेजों के अत्याचारों के विरुद्ध संघर्ष का प्रारंभ किया. भारत में जब संगठित स्वतंत्रता आंदोलन की शुरुआत भी नहीं हुई थी, तब झारखंड के दूरस्थ इलाकों और जंगलों में- जहां संचार के साधन नगण्य थे. उन्होंने आदिवासियों को संगठित किया और अंग्रेजी शासन को खुली चुनौती दी.
वर्ष 1900 में बिरसा मुंडा के नेतृत्व में आंदोलन के तेज फैलाव से घबराकर, तत्कालीन जिला मैजिस्ट्रेट ने पुलिस और सेना बुलवाई और डोंबिवाड़ी हिल पर हो रही सभा पर गोलीबारी करवा दी, जिसमें लगभग 400 लोग मारे गए। यह घटना 19 साल बाद हुए जलियांवाला बाग हत्याकांड के समान थी, परंतु इस घटना को इतिहास में वह स्थान नहीं दिया गया. बिरसा मुंडा को पकड़ने के बाद अंग्रेजों ने निर्णय लिया कि उन्हें बेड़ियों में जकड़कर अदालत ले जाया जाए ताकि आमजन को पता चले कि अंग्रेजों के विरुद्ध बगावत करने का क्या नतीजा होता है. परंतु यह दांव उल्टा पड़ गया- बिरसा को देखने के लिए रोड के दोनों ओर हजारों की संख्या में लोग जमा हो गए. उन्हें तीन माह तक सोलिटरी कन्फाइनमेंट में रखा गया और यह भी कहा जाता है कि उन्हें स्लोपॉयज़न दिया गया. अंततः मात्र 25 वर्ष की आयु में वो शहीद हो गए.
आदिवासी वीर: जिन्हें इतिहास ने कम याद किया
अंग्रेजों ने भारत में अपनी जड़ें मजबूत करते ही यहां की प्राकृतिक संपदा, विशेषकर वन संपदा के दोहन की राह पकड़ी. जो आदिवासियों के साथ संघर्ष का कारण बना. 1857 की क्रांति से लगभग 25 साल पहले,शहीद बुधु भगतने छोटा नागपुर क्षेत्र में अंग्रेजों के जल, जमीन और वनों पर कब्जे की नीति के विरुद्ध विद्रोह का बिगुल बजाया. इसे लकड़ा विद्रोह के नाम से जाना जाता है. वीर बुधु भगत का विद्रोह इतना तीव्र था कि ईस्ट इंडिया कंपनी ने उनके नाम पर उस समय 1000 रुपये का इनाम रखा था.
सिद्धू और कान्हू ने दिया था 'करो या मारो…' का नारा
सिद्धू और कान्हू मुर्मू ने वर्ष 1855–56 में संथाल विद्रोह यानी हूल आंदोलन का नेतृत्व किया. जून 1855 में भोगनाडीह में 400 गांवों के 50,000 संथालों की सभा हुई, जिसमें संथाल विद्रोह की शुरुआत हुई. इसका नारा था- “करो या मारो… अंग्रेजों हमारी माटी छोड़ो.” अंग्रेजों के आधुनिक हथियारों का सामना संथालों ने तीर-कमान से किया. कार्ल मार्क्स ने “ नोट्स ऑन इंडियन हिस्ट्री” में संथाल क्रांति को भारत की पहली जनक्रांति कहा.
मध्य प्रदेश के निमाड़ का नाम आते ही टांट्या मामा या टांट्या भील का स्मरण होता है. उन्हें निमाड़ का शेर कहा जाता है. वो लगभग पोने 7 फीट ऊंचे, तेजस्वी व्यक्तित्व वाले योद्धा थे. वो अंग्रेजों से लूटा धन और अनाज गरीबों तक पहुंचाते थे. उन्हें ‘भारत का रॉबिन हुड' कहा जाता था. उनका आतंक अंग्रेजों की छावनियों तक फैला रहता था, जहां अतिरिक्त सुरक्षा इसलिए रहती थी कि “कहीं टांट्या न आ जाए.” अंततः अंग्रेजों ने छल से उन्हें पकड़ा. जबलपुर में फांसी दी और उनका शव पातालपानी क्षेत्र में लाकर रख दिया, ताकि आम लोगों को पता चले कि अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह करने का क्या नतीजा होता है.
आप सोच सकते हे कि निमाड़ या मालवा के छोटे से क्षेत्र में रहने वाले इस जननायक ने भारत में अंग्रेजों की कितनी नाक में दम कर रखी होगी कि उसके बारे में अंतर्राष्ट्रीय मीडिया बात कर रहा था.
इसी तरह राजा शंकर शाह और कुंवर रघुनाथ शाह भारत के पहले ऐसे रजवाड़े थे जिन्हें वर्ष 1857 की क्रांति को कुचलने की कड़ी में अंग्रेजों द्वारा तोप के मुंह से बांधकर उड़ाया गया. न्याय आयोग, जिसके सामने उन्हें पेश किया गया था, ने उनके सामने जान बचाने के लिए धर्मांतरण सहित कई विकल्प रखे, दोनों ने उन्हें मानने से इनकार कर दिया. इसके बाद उन्हें जबलपुर में “ब्लोइंग फ्रॉम ए गन” की सजा दी गई.
बड़वानी क्षेत्र के भीमा नायक भीलों के योद्धा थे, जिन्होंने वर्ष 1857 की क्रांति में अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष किया था. शहीद भीमा नायक का कार्य क्षेत्र बड़वानी रियासत से महाराष्ट्र के खानदेश तक फैला था. उन्हें आदिवासियों का पहला योद्धा माना जाता है, जिसे अंडमान के ‘काला पानी' में फांसी दी गई. वर्ष 1857 के संग्राम के समय अंबापावनी युद्ध में भीमा नायक की महत्वपूर्ण भूमिका थी. कहा जाता है कि जब तात्या टोपे निमाड़ आए थे, तो उनकी भेंट भीमा नायक से हुई थी और भीमा नायक ने उन्हें नर्मदा पार करने में सहयोग दिया था.
प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दौरान अंग्रेजों को लोहे के चने चबवाने वाले पचमढ़ी के आदिवासी राजा भभूत सिंह नर्मदांचल के शिवाजी कहलाते थे. जंगलों में रहकर अंग्रेजों को तीन साल तक परेशान करने वाले राजा भभूत सिंह गोरिल्ला युद्ध के साथ-साथ मधुमक्खी के छत्ते से हमला करने में भी माहिर थे. उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम के दौरान तात्या टोपे की मदद भी की थी. मढ़ई और पचमढ़ी के बीच घने जंगलों में आज भी भभूत सिंह के किले का द्वार और लोहारों की भट्टियां मौजूद हैं, जिससे पता चलता है कि वे न केवल किला बनाकर लड़ रहे थे, बल्कि बड़े पैमाने पर हथियार बनाने की क्षमता भी रखते थे.
आदिवासी संघर्ष: स्वतंत्रता की रीढ़
भारतीय इतिहास में आदिवासी समाज का योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण है. चाहे कोल क्रांति हो, उलगुलान हो, संथाल क्रांति हो, महाराणा प्रताप के साथ देने वाले वीर आदिवासी योद्धा हों या सह्याद्री के घने जंगलों में छत्रपति शिवाजी महाराज को ताकत देने वाले आदिवासी भाई-बहन- हर युग में आदिवासी समाज स्वतंत्रता और आत्मसम्मान के संघर्ष का अग्रदूत रहा है.
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