
छत्तीसगढ़ के दुर्ग जिले में एक छोटा सा गांव पुरई है, जिसे आज “खेल गांव” के नाम से जाना जाता है. यह अब अपने आप में एक अनोखी मिसाल बन चुका है. पुरई कभी गुमनाम था, लेकिन आज स्विमिंग के क्षेत्र में देशभर में अपनी अलग पहचान बना चुका है. आपको बता दें कि यहीं से निकले 168 राष्ट्रीय तैराक, 8 अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी निकले हैं. इनके अलावा 4 ऐसे सितारे निकले हैं, जिनका नाम गोल्डन बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में दर्ज हो चुका है.

जब फुटबॉलर ने पकड़ी तैराकी की राह
ओम कुमार ओझा 2009 में 16 वर्ष के थे, उस समय वह फुटबॉल के शौकीन थे. उस समय ओम कुमार अपने चाचा याज्ञवल्क्य ओझा को घंटो तालाब में तैरते देखते थे. यहीं से उसका ध्यान तैराकी ने खींच लिया और तालाब में तैरने लगा. धीरे-धीरे वह जिला स्तर की प्रतियोगिताओं में भाग लेने लगा, फिर राज्य स्तरीय मुकाबलों में पहुंच गया.

जब तैराकी बनी गांव के बच्चों की जिंदगी बदलने वाली राह
ओम बताते हैं कि गांव में 12वीं कक्षा के बाद बच्चे आर्थिक तंगी के कारण पढ़ाई छोड़ देते थे. तब ओम ने एक नई राह खोजी. वह गर्मी की छुट्टियों में बच्चों को स्विमिंग पूल में नौकरी दिलवाता था, जिससे उन्हें कुछ आमदनी हो सके.
इन पैसों से बच्चों ने अपनी पढ़ाई फिर से शुरू की. जब बच्चों को यह समझ में आया कि स्विमिंग सिर्फ एक खेल नहीं, बल्कि एक अवसर है और इस तरह ओम के साथ जुड़ते चले गए. आज वह दर्जनों बच्चों खुद ट्रेनिंग दे रहे हैं और बच्चे ओम के सपने को और आगे बढ़ा रहे हैं.

लड़कियों के लिए सबसे कठिन लड़ाई, बहन को सिखाया हुनर
गांव में लड़कियों का तैरना आसान नहीं था. जब ओम के साथ लड़कियां जुड़ने लगीं तो छोटे कपड़ों में तैराकी देखकर गांव वालों ने ताने मारने शुरू कर दिए. इन तानों का सामना करने के लिए ओम ने सबसे पहले अपनी छोटी बहन निशा ओझा को तालाब में उतारा. उसने तैराकी सीखी और जिला स्तर से लेकर राष्ट्रीय प्रतियोगिता तक पहुंची और आज निशा ओझा छत्तीसगढ़ की पहली महिला स्विमिंग कोच बन चुकी हैं.

निशा कहती हैं “मैंने 10 साल तक मेहनत की, राष्ट्रीय स्तर तक पहुंची लेकिन मैडल से चूक गई. इसकी सबसे बड़ी वजह थी उच्च स्तरीय ट्रेनिंग की कमी. फिर मैंने तय किया कि मैं खुद कोच बनूंगी और ग्वालियर जाकर NIS से कोचिंग की ट्रेनिंग ली. आज मेरा सपना है हमारे गांव के बच्चे ओलंपिक में भारत का नाम रोशन करें.”

ओम कुमार की बहन.
जब ‘गांव का गंवार' कहा गया तो जगी हौसले की चिंगारी
ओम ओझा याद करते हैं “जब हम शहर की प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेने जाते, तो हमें ‘गांव का गंवार' कहा जाता था. शहरों में महंगे पूल, अच्छे कोच, ब्रांडेड कॉस्ट्यूम और हमारे पास सिर्फ एक तालाब था. लेकिन उसी ताने ने हमें मजबूत बना दिया. हमने ठान लिया नंबर एक बनकर दिखाएंगे.”
कॉस्ट्यूम नहीं था, तो बाथरूम में होता था इंतजार
ओम बताते हैं कि शुरुआती दिनों में खिलाड़ियों के पास अपने तैराकी कॉस्ट्यूम तक नहीं होते थे. एक खिलाड़ी जब स्विमिंग करता तो दूसरा बाथरूम में कॉस्ट्यूम का इंतजार करता, फिर वही पहनकर दूसरा खिलाड़ी प्रतियोगिता में उतरता।
गंदे पानी से फैला चर्म रोग और फिर किया ‘जल सत्याग्रह'
वर्ष 2012-13 में जब गांव के इकलौते तालाब में नाली और गंदे बाथरूम का पानी डाला जाने लगा तो खिलाड़ियों को चर्म रोग होने लगा. ओम और बच्चों ने सरपंच से लेकर कलेक्टर तक गुहार लगाई, लेकिन कहीं कोई सुनवाई नहीं हुई.
फिर ओम और दर्जनों बच्चे स्कूल-कॉलेज छोड़ तालाब किनारे बैठ गए 7 दिन तक जल सत्याग्रह चला. अंततः मिनिस्ट्री हरकत में आया, तालाब की सफाई हुई और खिलाड़ियों की जीत हुई.
गोल्डन बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड भी रह गई हैरान
जब गोल्डन बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड की टीम गांव पहुंची तो उन्हें ऐसा कोई तैराक चाहिए था जो 6 घंटे लगातार तैर सके, लेकिन जब देखा कि यहां के बच्चे तो 12 घंटे तक तैराकी प्रैक्टिस कर रहे हैं तो वे हैरान रह गए. उसी दिन 4 बच्चों ने अलग-अलग उम्र वर्गों में रिकॉर्ड बनाकर वर्ल्ड रिकॉर्ड में अपना नाम दर्ज करवाया. यह गांव अब विश्व पटल पर चमकने लगा है.
ओलंपिक में तिरंगा लहराने का सपना, लेकिन संसाधन नहीं
आज भी गंदगी के कारण बच्चे चर्म रोग से परेशान हैं. ओम कहते हैं “जब आपको वैश्विक स्तर पर पहुंचना होता है तो आपको बेहतर संसाधनों की ज़रूरत होती है. तालाब और स्विमिंग पूल में बड़ा अंतर है.” इसी अंतर को मिटाने के लिए ओम ने अब 5 करोड़ की लागत से स्विमिंग पूल बनाने का सपना देखा है और एक कैंपेन भी शुरू किया है. वे कहते हैं “अगर देश के हर नागरिक से हमें सिर्फ 10 रुपये मिल जाएं तो हम 5 करोड़ जुटाकर अपने गांव में विश्वस्तरीय स्विमिंग पूल बना सकते हैं.”
अब तक 2.5 लाख रुपये का डोनेशन मिल चुका है, लेकिन अभी रास्ता लंबा है. फिर भी उम्मीदें जिंदा हैं, हौसले बुलंद हैं.