Anti Naxal Operation: छत्तीसगढ़ के नारायणपुर और दंतेवाड़ा जिले की सरहद पर माओवादियों के खिलाफ चलाए गए एंटी नक्सल ऑपरेशन में सुरक्षाबलों को बड़ी सफलता मिली है. 25 लाख की इनामी एसजेडसीएम रैंक की नक्सली नेता नीति उर्फ उर्मिला समेत 31 नक्सलियों को सुरक्षाबलों ने ढेर कर दिया. बड़ी संख्या में आधुनिक हथियार भी बरामद किए हैं. बस्तर के इतिहास में माओवादियों का इतना बड़ा नुकसान पहली बार हुआ है. सुरक्षाबलों की सटीक रणनीति और प्लानिंग ने माओवादी संगठन पर बड़ा प्रहार किया. इस मुठभेड़ को सफल बनाने के लिए दोनों जिलों के 1500 से अधिक जवानों ने 25 किमी पैदल सफर तयकर अंजाम तक पहुंचाया.
बस्तर में अब तक के सबसे बड़े मुठभेड़ को कवर करने एनडीटीवी की टीम भी 7 अक्टूबर को सुबह 8 बजे घटना स्थल के लिए रवाना हुई. यहां तक पहुंचने के लिए दो रास्ते थे, एक नारायणपुर जिले के ओरछा होते हुए थुलथुली पहुंचा जा सकता था तो दूसरा दंतेवाड़ा जिले के छिंदनार के पास इंद्रावती नदी पर बने पुल को पार कर बेड़मा गांव होते हुए. हमने दंतेवाड़ा जिले के छिंदनार मार्ग का चयन किया और दो पहिया वाहन में सवार होकर निकल पड़े. रास्त बेहद दुर्गम और पहुंचविहीन था, इसलिए रास्ते में ही खाने और पीने की व्यवस्था भी कर लिए. छिंदनार पुल पार करते ही दाहिने तरफ पहुंनार की ओर बढ़ते चले गए. माड़ की पहाड़ी श्रृंखला की तलहटी पर बसे बेड़मा गांव के आगे बाइक से सफर करना नामुमकिन था तो बाइक को वहीं जंगल में छोड़कर पैदल घटना स्थल की ओर बढ़ गए.
इलाके की भौगोलिक परिस्थितियां और क्षेत्रीय बोली की दिक्कतों को देखते हुए हमने बेड़मा के रहने वाले एक छात्र को घटना स्थल तक ले जाने का निवेदन किया. लंबी पहाड़ी श्रृंखलाओं के बीच बसे नेंदूर और थुलथुली गांव तक पहुंचना बेहद कठिन था. उमस और अचानक हो रही बारिश के बीच पहाड़ी रास्ते का सफर आसान नहीं था. सीधी पहाड़ी पर फिसलन का डर बना हुआ था. धीरे-धीरे हम पथरीले रास्तों से होते हुए आगे बढ़ रही थे. रास्ते में पत्थरों पर सरकार विरोधी नारे लिखे मिले.
पत्थरों पर खून के धब्बे और रेडी टू ईट के रैपर
जैसे-जैसे हम आगे बढ़ रहे थे, पहाड़ के पगडंडी रास्ते पर पड़े बड़े-बड़े पत्थर हमारा हौसला तोड़ रहे थे. चढ़ाव के साथ उमस ने भी शरीर का बुरा हाल कर दिया था, लेकिन जब सुरक्षाबल के जवानों द्वारा 48 घंटे से भी ज्यादा समय तक चलाए गए ऑपरेशन फिर उसके बाद माओवादियों के शवों को ढो कर पहाड़ के रास्ते लाने का ख्याल जैसे ही जेहन में आया तो हमारे हौसले को बल मिला. धीरे-धीरे सफर आगे बढ़ता रहा. पहाड़ के रास्ते में चलने के दौरान कई जगह खून धब्बे नजर आए. इसके अलावा जवानों द्वारा इस्तेमाल किए गए रेडी टू ईट के रैपर बड़ी संख्या में रास्ते भर दिखे. इससे अंदाजा लगा रहे थे कि जवान इसी रास्ते से माओवादियों के शव लेकर नीचे उतरे हैं.
ग्रामीण बोले रुक-रुक कर हो रही थी फायरिंग
साढ़े चार घंटे का थकान भरा सफर तय कर हम दोपहर करीब ढाई बजे इतावाड़ा गांव पहुंचे. गांव में महिला, बच्चे और बुजुर्ग के अलावा कोई नहीं था. गांव में सन्नाटा पसरा हुआ था. बाहरी व्यक्तियों को गांव में देखकर सभी घर छोड़कर जंगल की तरफ चले गए. करीब 45 मिनट तक गांव में रहने के बाद एक दो महिलाएं नजर आईं. इसके बाद गांव में रहने वाला मासा नाम का व्यक्ति हमारे पास आया और हमारे गांव आने का कारण पूछा. जब हमने मुठभेड़ को कवर करने की बात बताई तो धीरे-धीरे बात करने लगा. मासा को देखकर गांव के कुछ लोग सामने आए और मुठभेड़ के बारे में बताने लगे. सुबह 10 बजे से फायरिंग की आवाज आनी शुरू हुई और रूक रूक कर दोपहर तक चलते रही.
खास कार्यक्रम के लिए थुलथुली के जंगल में इकट्ठा हो रहे थे नक्सली
ग्रामीणों के अनुसार, बीते 4-5 दिन से थुलथुली की पहाड़ी पर माओवादी नेता जमा हो रहे थे. माड़ इलाके में आर्मी की दखल और नक्सलियों के आधार वाले इलाकों में लगातार खुल रहे पुलिस कैंप को लेकर संगठन में चर्चा थी. बड़ी संख्या में माड़ में इकट्ठा हुए नक्सलियों के लिए भोजन की व्यवस्था की जिम्मेदारी ग्राम एरिया कमेटी और मिलिशिया सदस्य को दी गई थी. पहाड़ की तलहटी में बसे गांवों से राशन का इंतजाम किया गया था. कब पुलिस वाले नक्सलियों के ठिकाने पहुंच गए किसी को पता ही नहीं चला. ग्रामीणों के अनुसार 3 अक्टूबर की रात को जवानों की पार्टी नक्सली कैंप तक पहुंची. इसके बाद दूसरे दिन फायरिंग की आवाजें आने लगीं.
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ग्रामीणों के बताए कहानी के बाद हम आखिरी मुठभेड़ स्थल पर गए. गांव से करीब आधे घंटे पैदल चलकर थुलथुली के जंगल पहुंचे, जहां ग्रामीणों ने मुठभेड़ होना बताया. कुछ पेड़ों पर गोलियों के निशान नजर आए. बीती रात इलाके में हुई बारिश की वजह से मुठभेड़ स्थल पर खून के धब्बे मिट गए थे. पहाड़ी के पगडंडी रास्ते में नक्सलियों द्वारा लगाए गए डिफ्यूज आईईडी के अवशेष बिखरे पड़े मिले. ग्राउंड जीरो से मुठभेड़ की पूरी कहानी कवर करने के बाद शाम करीब 5.30 बजे हम वहां से वापस लौटने लगे. ग्रामीणों ने बताया कि पहाड़ में भालू हैं और शाम को विचरण करते हैं, इसलिए शाम ढलते ही ग्रामीण पहाड़ की तरफ नहीं जाते हैं. ये सुनने के बाद हमारा डर बढ़ गया, लेकिन किसी तरह हमारी टीम हाथों में लाठी डंडे लेकर करीब 7 बजे पहाड़ के नीचे उतरे.
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