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Bastar Dussehra 2025: 600 साल पुरानी परंपरा; बस्तर राजघराने ने मां दंतेश्वरी को दिया दशहरे का शाही निमंत्रण

Bastar Dussehra 2025: बस्तर दशहरा आस्था, परंपरा एवं संस्कृति का अनूठा संगम है. विश्व का सबसे लंबा दशहरा उत्सव, जो माई दंतेश्वरी, स्थानीय देवताओं की आराधना व आदिवासी परंपराओं के साथ 75 दिनों तक मनाया जाता है. रथ यात्रा से लेकर मुरिया दरबार तक, बस्तर दशहरा आस्था व सांस्कृतिक धरोहर का अद्भुत प्रतीक है.

Bastar Dussehra 2025: 600 साल पुरानी परंपरा; बस्तर राजघराने ने मां दंतेश्वरी को दिया दशहरे का शाही निमंत्रण
Bastar Dussehra: 600 साल पुरानी परंपरा; बस्तर राजघराने ने मां दंतेश्वरी को दिया दशहरे का शाही निमंत्रण

Bastar Dussehra: शारदीय नवरात्रि पर्व पर शनिवार को बस्तर राजघराने की सदियों पुरानी परंपरा निभाई गई. बस्तर के राजा कमलचंद भंजदेव दंतेवाड़ा स्थित मां दंतेश्वरी मंदिर पहुंचे और ताम्रपत्र पर पारंपरिक निमंत्रण देकर देवी को जगदलपुर में आयोजित होने वाले बस्तर दशहरे में शामिल होने का आग्रह किया. यह परंपरा लगभग 600 वर्षों से चली आ रही है. दरअसल बस्तर दशहरा अनूठा पर्व माना जाता है, जो करीब 75 दिनों तक चलता है. नवरात्रि में मां दंतेश्वरी को आमंत्रित करने की बड़ी रस्म होती है. दशहरे में माऊली परघाव की रस्म के दौरान देवी की विशेष सहभागिता होती है. जगदलपुर में आयोजित भव्य परिक्रमा में मां दंतेश्वरी की प्रतिमा को रथ पर सवार कर नगर भ्रमण कराया जाता है. इस दौरान हजारों श्रद्धालु दर्शन कर आशीर्वाद प्राप्त करते हैं.

पहले बैलगाड़ी और डोली

मंदिर के गर्भगृह से मां दंतेश्वरी के प्रतीक चिन्ह को निकालकर मुख्य द्वार के समीप रखा गया. पुजारियों के अनुसार, पुराने समय में जब परिवहन के साधन उपलब्ध नहीं थे, तब मां की डोली और छत्र बैलगाड़ी से जगदलपुर ले जाए जाते थे. अब अष्टमी तिथि को देवी को जगदलपुर पहुंचाया जाता है.

नवरात्रि पर हुए इस धार्मिक आयोजन में बड़ी संख्या में श्रद्धालु, पुजारी और स्थानीय जनप्रतिनिधि शामिल हुए. मंदिर परिसर में पारंपरिक विधि-विधान से पूजा-अर्चना हुई और भक्तों ने मां दंतेश्वरी से सुख-समृद्धि की कामना की.

इस अवसर पर बस्तर के राजा कमलचंद भंजदेव ने कहा कि यह परंपरा बस्तर की सांस्कृतिक धरोहर है और इससे जनमानस की आस्था जुड़ी हुई है. वहीं दंतेश्वरी मंदिर के पुजारी विजेंद्र नाथ ने बताया कि देवी का निमंत्रण बस्तर दशहरे का प्रारंभिक और सबसे महत्वपूर्ण चरण होता है.

कब से होती है शुरुआत?

बस्तर दशहरे की शुरुआत श्रावण के महीने में पड़ने वाली हरियाली अमावस्या से होती है. इस दिन रथ बनाने के लिए जंगल से पहली लकड़ी लाई जाती है. इस रस्म को पाट जात्रा कहा जाता है. यह त्योहार दशहरा के बाद तक चलता है और मुरिया दरबार की रस्म के साथ समाप्त होता है. इस रस्म में बस्तर के महाराज दरबार लगाकार जनता की समस्याएं सुनते हैं. यह त्योहार देश का सबसे ज्यादा दिनों तक मनाया जाने वाला त्योहार है.

यहां रावण दहन नहीं बल्कि देवी पूजा होती है

दशहरे का वैभव ही कुछ ऐसा है कि सबको आकर्षित करता है. असत्य पर सत्य के विजय के प्रतीक, महापर्व दशहरे को पूरे देश में राम का रावण से युद्ध में विजय के रूप में विजयादशमी के दिन मनाया जाता है. लेकिन बस्तर दशहरा देश का ही नहीं, बल्की पूरे विश्व का अनूठा महापर्व है, जो असत्य पर सत्य की विजय का प्रतीक  है, मगर बस्तर दशहरा में रावण नहीं मारा जाता बस्तर की आराध्य देवी को पूजा की जाती है.

जानिए बस्तर के दशहरे का इतिहास

दशहरे का संबंध भगवान राम से माना जाता है. दशहरे को लोग बुराई पर अच्छाई की जीत के पर्व के तौर पर मनाते हैं. इसी दिन भगवान राम ने लंका के राजा रावण का वध किया था, लेकिन बस्तर के दशहरे का संबंध महिषासुर का वध करने वाली मां दुर्गा से जुड़ा हुआ है. 

पौराणिक कथाओं के अनुसार अश्विन शुक्ल की दशमी तिथि को मां दुर्गा ने महिषासुर का संहार किया था. हरेली अमावस्या से शुरू होने वाला यह त्योहार 75 दिनों तक चलता है. इसमें बस्तर के दूसरे जिले के देवी-देवताओं को भी निमंत्रित किया जाता है.

बस्तर में दशहरा पर्व पर रथयात्रा होती है. इस रथयात्रा की शुरूआत 1408 ई. के बाद चालुक्य वंशानुक्रम के चौथे शासक राजा पुरूषोत्तम देव ने की थी. इस क्षेत्र के आदिवासियों में धार्मिक भावना को सही दिशा प्रदान करने के उद्देश्य से राजा पुरूषोत्तमदेव ने जगन्नाथपुरी की यात्रा और अपनी प्रजा को साथ ले जाने का निश्चय किया था. राजा के इस प्रस्ताव का बड़ा प्रभाव पड़ा. लोगों के मन में मुफ्त यात्रा और राजा के साथ जाने की उमंग के भाव के साथ अंचल के मुरिया, भतरा, गोंड, धाकड़़, माहरा तथा अन्य जातियों के मुखियाओं ने राजा के साथ जाने की मन बनाया. शुभ मुहुर्त देख कर राजा इस ऐतिहासिक यात्रा के लिये रवाना हुए थे. इस कष्ट-साध्य यात्रा में पैदल ही जाना था, राजा ने खुद भी सवारियों का प्रयोग नहीं किया था.

जगन्नाथ स्वामी ने प्रसन्न होकर सोलह पहियों का रथ राजा को दिया

ऐसा बताया जाता है कि राजा पुरूषोत्तमदेव ने अपनी प्रजा और सैन्यदल के साथ जगन्नाथपुरी पहुंचे. पुरी के राजा को जगन्नाथ स्वामी नें सपने  में यह आदेश दिया कि बस्तर नरेश की अगवानी कर उनका सम्मान करें, वे भक्ति, मित्रता के भाव से पुरी पहुंच रहे है. पुरी के नरेश ने बस्तर नरेश का राज्योचित स्वागत किया. बस्तर के राजा ने पुरी के मंदिरों में एक लाख स्वर्ण मुद्राएं, बहुमूल्य रत्न आभूषण और बेशकीमती हीरे-जवाहरात जगन्नाथ स्वामी के श्रीचरणों में अर्पित किया.

जगन्नाथ स्वामी ने प्रसन्न होकर सोलह पहियों का रथ राजा को प्रदान करने का आदेश प्रमुख पुजारी को दिया. इसी रथ पर चढ़कर बस्तर नरेश और उनके वंशज दशहरा पर्व मनाया.

रथ परिक्रमा की इस रस्म को 800 सालों बाद आज भी बस्तरवासी उसी उत्साह के साथ निभाते आ रहे हैं. मां दंतेश्वरी के मंदिर से मां के छत्र और डोली को रथ तक लाया जाता है, इसके बाद बस्तर पुलिस के जवानों द्वारा बंदूक से सलामी (गार्ड ऑफ ऑनर) देकर इस रथ की परिक्रमा का आगाज किया जाता है.

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