छत्तीसगढ़ में हाल ही में सम्पन्न हुए विधानसभा चुनाव में एक बार पुनः साबित हो गया है कि पार्टी के नेतृत्व कर्ता की छवि कितनी भी लोकप्रिय क्यों न हो उसके दम पर चुनाव नहीं जीता जा सकता. अगर ऐसा होता तो भूपेश बघेल की कांग्रेस सरकार अपने मुख्यमंत्री की लोकप्रियता को भुनाकर चुनाव जीत जाती लेकिन यह नहीं हो सका. चुनाव में न तो छत्तीसगढ़ियावाद चला और न ही छवि निखारने की भूपेश बघेल की कोशिशें रंग लाई. मतदाताओं ने जो निर्णय दिया वह आश्चर्यजनक अवश्य था किंतु उन्होंने मुख्यमंत्री की व्यक्तिगत छवि न देखकर सरकार के पांच साल के कामकाज पर गौर किया. यह देखा कि सरकार ने उनकी आकांक्षाओं व अपेक्षाओं की पूर्ति किस हद तक की. कितने वायदे पूरे किए. इसकी उन्होंने समीक्षा की और निराशा में कांग्रेस के नये चुनावी वायदों को नज़रअंदाज़ करते हुए एक बार पुनः मतदाताओं ने उस भाजपा पर भरोसा जताया जिसे पिछले चुनाव में उन्होंने रसातल पर पहुंचा दिया था. हालांकि जनता का विश्वास जीतने के लिए भाजपा ने प्रलोभनों का जाल तो फैलाया ही था,इसके अलावा कईं अन्य उपाय भी किए. उसने अपने प्रमुख हथियार के रूप में हिंदुत्व के उभार के साथ ही सरकार में व्याप्त भ्रष्टाचार को प्रमुख मुद्दा बनाया. उसके प्रचार युद्ध में आरएसएस ने अहम भूमिका निभाई. ऐसा चक्रव्यूह रचा गया कि कांग्रेस उसमें फंसती चली गई.
बघेल ने जनता के बीच अपनी छवि को चमकदार व सहज-सरल बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी. 2018 में मुख्यमंत्री बनने के बाद पूरे पांच साल तक उन्होंने प्रदेश के लोगों के बीच स्वयं को आम नागरिक व ग्रामीण छत्तीसगढिय़ा के रूप में स्थापित करने के लिए अनेक उपाय किए जो कारगर भी रहे. इसके लिए उन्होंने छत्तीसगढ़ की लोक-संस्कृति को प्रमुख माध्यम बनाया. छत्तीसगढ़ के सभी तीज-त्यौहारों पर सार्वजनिक अवकाश घोषित करने का मामला हो या उनमें स्वयं की तथा सरकार की भागीदारी का प्रश्न हो, वे सक्रिय रहे. लोक-उत्सवों में उनकी सक्रियता जनता को लुभाती थी. इनमें शामिल होने के अलावा उन्होंने किसान की तरह सिर पर साफा बांधकर खेत में हल चलाया तथा बैलगाड़ी हांकी. यही नहीं उन्होंने ग्रामीण खेलों को भी प्रोत्साहित किया. उन्होंने कुछ देशी खेलों मसलन भौंरा,गिल्ली डंडा,कंचा,पिट्टूल व गैडी पर अपना हुनर दिखाया.सभी ग्रामीण खेलों के लिए हर आयु वर्ग में राज्य स्तरीय ओलंपिक का आयोजन भी छवि को लोकलुभावन बनाने का प्रयास था.छत्तीसगढ़ की राजनीति में छवि निखारने की दृष्टि से यह एक नया व विशिष्ट प्रयोग था जो किसी भी पूर्व मुख्यमंत्री अथवा बीते समय के दौरान बड़े-बड़े पदों से अंदर-बाहर होते गए किसी भी राजनेता के कार्यों में नज़र नहीं आया या कह सकते हैं कि लोगों के साथ घुलमिलकर आत्मीयता का भाव जगाने जैसा भी कोई राजनीतिक उपाय हो सकता है,यह उनकी सोच से बाहर था. पूर्व मुख्यमंत्री तथा छत्तीसगढ़ विधानसभा के नये अध्यक्ष डॉक्टर रमन सिंह ने जरूर कुछ कोशिश की थी किंतु वे बीच में ही ठहर गये.अधिक संलिप्तता नहीं दिखाई.
हालांकि एक और उपाय के रूप में उन्होंने भाजपा के हिंदुत्व की धार को कुंद करने तथा उसे कांग्रेस की ओर मोडने के लिए राम गमन पथ,कृष्ण कुंज,गायों के लिए गौठान व गोबर से ग्रामीण रोजगार जैसी अनेक ग्रामीण हितकारी योजनाएं चलाईं.लेकिन उनका यह प्रयास भी फीका पड़ गया.भाजपा का हिंदुत्व अधिक प्रबल निकला.
कांग्रेस क्यों हारी ? इसके कई कारण हैं. 2018 के चुनाव में बंपर जीत का हैंगओवर इतना जबरदस्त था कि नेताओं के पैर जमीन पर नहीं पड़ रहे थे. कांग्रेस की राजनीति में बघेल का कद भी इतना बढ़ गया कि वे राष्ट्रीय नेता के श्रेणी में आ गए.सत्ता के मद में वे अहंकारी भी हो गए. उनके ईर्दगिर्द सलाहकारों की फौज उन्हें वास्तविकता से परिचित नहीं करा सकी और न ही इसके लिए हिम्मत जुटा सकी. बघेल सत्ता व संगठन को अपनी मर्जी से चला रहे थे. वे कांग्रेस को अपने कंधों पर ढोते रहे. संगठन को उन्होंने स्वतंत्र नहीं होने दिया. तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष मोहन मरकाम ने अपना पृथक अस्तित्व जताने की जरूर कोशिश की थी किंतु परिणाम स्वरूप चुनाव के चंद माह पूर्व उन्हें पद छोड़ना पड गया. इन तथ्यों के अलावा कांग्रेस सरकार की पराजय के और भी कारण थे. उनमें प्रमुख है -सरकार व संगठन का अति आत्मविश्वास,जमीनी हकीकत से बेखबर रहना,निचली पायदान के कार्यकर्ताओं की उपेक्षा, भ्रष्टाचार,चाटूकारों की फौज,नौकरशाही पर अविश्वास,भाजपा के उस प्रोपेगंडा के पीछे की कूटनीति को समझ न पाना जिसमें खुद भाजपाई आम चर्चाओं में कांग्रेस के पुनः सत्तारूढ़ होने की संभावना जता रहे थे, लिहाज़ा संगठन का चुनाव जीत जाने की खुशफहमी में रहना, आदिवासी व धर्मांतरित आदिवासियों के बीच राजनीतिक साजिश के तहत फैले तनाव व विवाद को सुलझाने के लिए गंभीर प्रयत्न न करना तथा टिकिटों की बंदरबांट को माना जाना चाहिए.
2018 के चुनाव में बुरी तरह पराजय के बाद भाजपा की जो हालत थी, कमोबेश यही स्थिति अब कांग्रेस की है. तब हार के बाद भाजपा चार वर्षों तक लगभग सुप्तावस्था में रही थी. कांग्रेस के लिए यह अच्छी बात है कि अगले चार महीनों में लोकसभा के चुनाव होने हैं.अतः निराशा के बावजूद वह तैयारियों में जुट गई है.अभी लोकसभा की 11 में से दो सीटें उसके पास है.इन सीटों को बचाने के साथ ही इसमें इज़ाफ़ा करने की बड़ी चुनौती है. विधानसभा चुनाव में हार के गम को गलत करने का फिलहाल यही नायाब मौका उसके पास है.
दिवाकर मुक्तिबोध छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ पत्रकार हैं और राज्य की राजनीति की गहरी समझ रखते है.
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.