वर्ष 2018 के विधान सभा चुनाव में बुरी हार के बाद भाजपा जिस तरह संज्ञा शून्य होकर हौसला खो चुकी थी लगभग वैसी ही स्थिति में कांग्रेस 2023 का चुनाव हारने के बाद नज़र आ रही है. राज्य में लगातार 15 वर्षों तक राज करने वाली भाजपा मात्र 15 विधायकों तक सिमटने के बाद हार के सदमे से दीर्घ अवधि तक उबर नहीं पाई थी लिहाजा लगभग चार वर्षों तक निष्क्रिय बनी रही. हालांकि तब सत्ता विरोधी लहर सहित उसकी पराजय के अनेक कारण थे. फलस्वरूप उसकी वह पराजय न तो चौंकाने वाली थी और न ही आश्चर्यजनक अलबत्ता वह अति दयनीय स्थिति में पहुंच जाएगी इसकी कल्पना नहीं थी. इसकी तुलना में 2023 के चुनाव के परिणाम कांगेस के लिए अप्रत्याशित व कल्पना से परे थे. फिर भी उसकी वह पराजय ऐसी नहीं थी कि हौसला पस्त हो जाए. चुनाव में उसके 35 विधायक जीते थे. पर लगता है , हार के सदमे से वह उबर नहीं पा रही है जिसका परिणाम संगठन की सुस्त गतिविघियों के रूप में दिखाई दे रहा है जबकि लोकसभा चुनाव सिर पर हैं. इससे यह आभास होता है कि बिना अपनी ताकत पर भरोसा किए छत्तीसगढ़ कांग्रेस ने लड़ने के पहले ही हथियार डाल दिए है. जिले से लेकर देहात तक कांग्रेस के नेता तथा कार्यकर्ता आगामी युद्ध के लिए जोश-खरोश के साथ तैयार होते नज़र नहीं आ रहे हैं.
उसने 2014 में 10 व 2019 में 9 सीटें जीती थीं. कांग्रेस ने पिछले चुनाव में अपनी संख्या में सिर्फ एक का इजाफ़ा किया था. उसने दो सीटें, कोरबा व बस्तर में जीत दर्ज की. दरअसल जिन मतदाताओं ने विधान सभा चुनाव में कांग्रेस को प्रचंड बहुमत से सत्ता सौंपी थी , उन्हीं मतदाताओं ने चार माह बाद हुए 2019 के लोकसभा चुनाव में मोदी मेजिक पर भरोसा जताया था. क्या इस बार भी मोदी का जादू पुनः चलेगा ? कांग्रेस की स्थिति देखकर ऐसा ही लगता है जबकि भाजपा एक निश्चित लक्ष्य के साथ आगे बढ़ रही है. इरादा कांग्रेस से दोनों सीटें छिननी है ताकि वह शून्य हो जाए. इसके लिए वह जी-तोड़ प्रयास कर रही है. इसे देखते हुए क्या छत्तीसगढ में कांग्रेस बराबरी की टक्कर देने में कामयाब रहेगी? जवाब ना में ही है फिर भी इसका संकेत आगे चलकर कांग्रेस की तैयारी व मतदाताओं के रूख से मिल सकता है.
छत्तीसगढ़ में उसने नये चेहरे उतारे हैं जिनमें तीन महिलाएं हैं. चुनाव प्रचार अभियान की बात करें केन्द्रीय रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह 9 मार्च को रायपुर में किसान सम्मेलन को संबोधित करने वाले हैं. इसके पूर्व महतारी वंदन योजना के अंतर्गत हितग्राहियों को मानदेय वितरण का शुभारंभ करने प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के आने की खबर है. अभी तो लोकसभा चुनाव की तिथियां भी घोषित नहीं हुई है. इससे समझा जा सकता है कि भाजपा का प्रचारतंत्र कांग्रेस से कितना-कितना आगे है.
छत्तीसगढ़ में कांग्रेस के लिए इंडिया की सहयोगी पार्टियों के साथ सीटें साझा करने की भी समस्या नहीं है क्योकि यहां बसपा को छोड़ राष्ट्रीय पार्टियों का दखल नहीं है. कांग्रेस व भाजपा के बीच हमेशा सीधा मुकाबला होता रहा है. विधान सभा चुनाव हारने के बाद कांग्रेस संगठन में बिखराव की स्थिति की झलक उसकी तैयारियों में भी दिखाई देती है. उसमें कोई दमखम नज़र नहीं आ रहा है. प्रदेश अध्यक्ष दीपक बैज ही पड़ाव दर पड़ाव बैठकें लेकर नेताओं व कार्यकर्ताओं को उत्साहित करने का प्रयास कर रहें हैं पर सामूहिकता का अभाव स्पष्ट दिखाई दे रहा है. राज्य के प्रभारी सचिन पायलट भी बेदिली से काम कर रहे हैं, ऐसा महसूस किया जा रहा है. मौजूदा स्थिति में कांग्रेस अभी से बैकफुट पर नज़र आ रही है.
यानी भाजपा उन सीटों पर विशेष ध्यान दे रही है जहां कांग्रेस बराबरी के मुकाबले में हैं अथवा जहां उसकी जीत की संभावना है. दरअसल जांजगीर सहित कोरबा, बस्तर, कांकेर , महासमुंद व राजनांदगांव भी कांग्रेस के लिए संभावना पूर्ण है बशर्ते वह पूरी ताकत के साथ लड़े क्योंकि मुकाबला केवल भाजपा से नहीं, उसके धार्मिक ध्रुवीकरण के अभियान से भी है जिसका जादू इन दिनों सिर चढ़कर बोल रहा है.
बहरहाल अब छत्तीसगढ़ की सभी सीटों पर भाजपा प्रत्याशियों के नाम सामने आ चुके हैं अत: कांग्रेस के पास ठोंक बजाकर उम्मीदवारों के नाम फायनल करने का अवसर है. भाजपा अमूमन नये चेहरों को आजमाती है , यहां भी उसने सात नये चेहरे दिए हैं. कांग्रेस भी संभवतः इसी फार्मूले पर चलेगी. लोकसभा चुनाव में कांग्रेस अपनी दो सीटें बचाने के साथ यदि इस संख्या में इजाफ़ा कर पाई तो यह उसकी बड़ी उपलब्धि होगी.
दिवाकर मुक्तिबोध छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ पत्रकार हैं और राज्य की राजनीति की गहरी समझ रखते है.
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.